6. पदम प्रभु चालीसा
शीश नवा अर्हंत को सिद्धन करुं प्रणाम |
उपाध्याय आचार्य का ले सुखकारी नाम |
सर्व साधु और सरस्वती जिन मन्दिर सुखकार |
पद्मपुरी के पद्म को मन मन्दिर में धार ||
जय श्रीपद्मप्रभु गुणधारी,
भवि जन को तुम हो हितकारी |
देवों के तुम देव कहाओ,
पाप भक्त के दूर हटाओ ||1
तुम जग में सर्वज्ञ कहाओ,
छट्टे तीर्थंकर कहलाओ |
तीन काल तिहुं जग को जानो,
सब बातें क्षण में पहचानो ||2
वेष दिगम्बर धारणहारे,
तुम से कर्म शत्रु भी हारे |
मूर्ति तुम्हारी कितनी सुन्दर,
दृष्टि सुखद जमती नासा पर ||3
क्रोध मान मद लोभ भगाया,
राग द्वेष का लेश न पाया |
वीतराग तुम कहलाते हो,
; सब जग के मन को भाते हो ||4
कौशाम्बी नगरी कहलाए,
राजा धारणजी बतलाए |
सुन्दरि नाम सुसीमा उनके,
जिनके उर से स्वामी जन्मे ||5
कितनी लम्बी उमर कहाई,
तीस लाख पूरब बतलाई |
इक दिन हाथी बंधा निरख कर,
झट आया वैराग उमड़कर ||6
कार्तिक वदी त्रयोदशी भारी,
तुमने मुनिपद दीक्षा धारी |
सारे राज पाट को तज के,
तभी मनोहर वन में पहुंचे ||7
तप कर केवल ज्ञान उपाया,
चैत सुदी पूनम कहलाया |
एक सौ दस गणधर बतलाए,
मुख्य व्रज चामर कहलाए ||8
लाखों मुनि आर्यिका लाखों,
श्रावक और श्राविका लाखों |
संख्याते तिर्यच बताये,
देवी देव गिनत नहीं पाये ||9
फिर सम्मेदशिखर पर जाकर,
शिवरमणी को ली परणा कर|
पंचम काल महा दुखदाई,
जब तुमने महिमा दिखलाई ||10
जयपुर राज ग्राम बाड़ा है,
स्टेशन शिवदासपुरा है |
मूला नाम जाट का लड़का,
घर की नींव खोदने लागा ||11
खोदत-खोदत मूर्ति दिखाई,
उसने जनता को बतलाई |
चिन्ह कमल लख लोग लुगाई,
पद्म प्रभु की मूर्ति बताई ||12
मन में अति हर्षित होते हैं,
अपने दिल का मल धोते हैं |
तुमने यह अतिशय दिखलाया,
भूत प्रेत को दूर भगाया ||13
भूत प्रेत दुःख देते जिसको,
चरणों में लेते हो उसको |
जब गंधोदक छींटे मारे,
भूत प्रेत तब आप बकारे ||14
जपने से जब नाम तुम्हारा,
भूत प्रेत वो करे किनारा |
ऐसी महिमा बतलाते हैं,
अन्धे भी आंखे पाते है ||15
प्रतिमा श्वेत-वर्ण कहलाए,
देखत ; ही हिरदय को भाए |
ध्यान तुम्हारा जो धरता है,
इस भव से वह नर तरता है ||16
अन्धा देखे, गूंगा गावे,
लंगड़ा पर्वत पर चढ़ जावे |
बहरा सुन-सुन कर खुश होवे,
जिस पर कृपा तुम्हारी होवे||17
मैं हूं स्वामी दास तुम्हारा,
मेरी नैया कर दो पारा |
चालीसे को ‘चन्द्र’ बनावे,
पद्म प्रभु को शीश नवावे ||18
सोरठाः
नित चालीसहिं बार, पाठ करे चालीस दिन |
खेय सुगन्ध अपार, पद्मपुरी में आय के ||
होय कुबेर समान, जन्म दरिद्री होय जो |
जिसके नहिं सन्तान, नाम वंश जग में चले ||