2.दर्शन-पूजा विधि
हम देव,शास्त्र और गुरु के दर्शन/पूजा द्वारा अपनी आत्मा की शुद्धि में अभिवृद्धि कर सकते है! हमारी युवा पीढ़ी में से अधिकांश त: को देवादि दर्शन करने की विधि नहीं मालूम होती अथवा पूजाओं के अर्थों ओर भावों का ज्ञान नहीं होता, इस लिए उन्हें ये समस्त क्रियाये अरुचिकर लगती है,वे इन्हे मात्र एक कोरम की पूर्ती हेतु अपने अभिवाकों के दबाव में अथवा किसी अंध विश्वास में,अपनी वांछाओं की पूर्ती के लिए अज्ञानता वश करते है, स्वात्मकल्याण हेतु नहीं कर पाते!देवदर्शन,पूजन आदि की विधि ऐसे ही युवक/युवतियों के लिए प्रस्तुत है जिससे भविष्य में वे आनंद पूर्वक नित्य मंदिर जी में मन,वचन,काय से जाकर इस का आनंद लेकर लाभान्वित हो सके !हमें विधिवत ज्ञानपूर्वक दर्शन करना अत्यंत आवश्यक है अन्यथा जैन धर्म के संस्कार से वंचित रह जायेंगे और जैन धर्म का विकास रुक जाएगा! इसलिए दर्शनविधि का ज्ञान होना अत्यंत आवश्यक है !
दर्शन विधि
१-जैनियों में कुलाचार-जैनियों का मूल आचरण,व्यक्ति विशेष के जैनत्त्व के सूचक !हमारे कुलालाचार तीन है-
१-नित्य देवदर्शन करना,
२-छने जल का सेवन करना और
३-रात्रि में भोजन का त्याग करना!इस प्रकार के आचरण से युक्त व्यक्ति के सरलता से जैन होने की पुष्टि हो जाती है!
२- मंदिर जी में ही देवदर्शन का महत्व-१-अरिहंत भगवन के बिम्ब(प्रतिमा) के मंदिर जी में नित्य दर्शन करने से ,हमे उन जैसे बनने की प्रेरणा मिलती है,जो कि जीवन का हमारा मुख्य लक्ष्य है!जिनबिम्ब की छाप हमारे हृदय पर अंकित होती है! देवदर्शन के लिए मंदिर जाना उसी प्रकार आवश्यक है,जैसे किसी विद्यार्थी को शिक्षा ग्रहण करने के लिए विद्यालय अथवा व्यापार के लिए अपने प्रतिष्ठानस्थल पर जाना आवश्यक है क्योकि वहाँ पर उन कार्यों की पूर्ती के लिए समुचित वातावरण उपलब्ध होता है!मंदिर में प्रवेश करते ही हृदय प्रसन्नता और आनंद की प्रकाष्ठा से प्रफुल्लित होता है क्योकि वहाँ उपस्थित समस्त भक्तगण,पूजनादि के छंद एवं श्लोको के उच्चारण से वातावरण को हृदयस्पर्शी एवं पवित्र बनाते है!घर में पूजा करने पर हमें इस प्रकार का यथायोग्य वातावरण उपलब्ध नहीं होता !
३-देव दर्शन कि महिमा -आचार्यों ने लिखा है कि-१-आत्मा से बंधे निधत्ति और निकाचित कर्मों (अधिकतम कड़े कर्म, जिन की निर्जरा सरलता से नहीं होती) की निर्जरा भी मात्र देवदर्शन से हो जाती है!उनका निधत्तित्व एवं निकाचितत्व टूट जाता है, मन प्रसन्न होता है
२-दर्शनं देवदेवस्य,दर्शनं पाप नाशनम्! दर्शनं स्वर्गसोपानं,दर्शनं मोक्षसाधनम्!!
अर्थात देव और देवादि का दर्शन;पापों को नष्ट करने वाला है,स्वर्ग के लिए सीड़ी है,वहाँ पहुचने वाला है,और मोक्ष का साधन है!जो मंदिरजी,माता पिता की आज्ञावश अथवा केवल कोरम पूर्ती के लिए जाते है तो देवदर्शन से उनके पापों का नाश नही होता है!जिन्होंने विधि पूर्वक मन लगाकर दर्शन किये उनके लिए स्वर्ग पहुचाने वाला है!जिनके देव दर्शन से,उन जैसे बनने के भाव उत्पन्न होते है उनके लिए यह मोक्ष प्राप्ति का साधन है!
४-मंदिर जी में प्रवेश करते समय ध्यान रखने योग्य बाते -१-सबसे पहिले मंदिर जी के परिसर में पहुँच कर पैर धोये,मुख की शुद्धि ठन्डे जल से करे!मंदिर जी में प्रवेश कर मुख्य द्वार के दरवाजे/दहलीज को हाथ से स्पर्श कर,हाथ से अपने मस्तक को स्पर्श करे क्योकि मंदिर जी भी जैनियों के पूजनीय नवदेवताओं में,एक देवता-(जिनचैत्यलय) है! फिर तीन बार निसहि: का उच्चारण करे !
१-निसहि: का अर्थ है कि,मैं समस्त सांसारिक विकल्पों का त्याग कर मंदिर जी में प्रवेश कर रहा हूँ !
२-निसहि: से तात्पर्य है कि यदि मंदिर जी में कोई देवता आदि दर्शन कर रहे तो मेरे आने से उन्हें बाधा नहीं हो
३-निसहि:से तात्पर्य जिनालय को नमस्कार हो,नमस्कार हो !
२-मंदिर जी में प्रसन्नतापूर्वक प्रवेश कर ३ बार घंटा बजाकर मन को एकाग्रचित करे!घंटा बजाना समवशरण में बाजा बजाने का प्रतीक है!यह मांगलिक है,मंगल नाद है!प्रतिमाजी को बार २ एकाग्रचित हो कर प्रसन्नता पूर्वक देखे,मुस्कराते हुए प्रणाम करे !फिर ॐ(पञ्चपरमेष्ठी)जयहो!जयहो! जयहो!नमोस्तु,नमोस्तु,नमोस्तु बोले!
३-णमोकार मंत्र शुद्ध(हो सके तो श्वासोच्छ्वास विधि से (३ सांसों में ,एक बार पंच परमेष्ठी को नमस्कार ), अर्थ समझते हुए, धीरे धीरे,ऐसे बोले जिस से अन्य भक्तों कि पूजा में विघ्न नहीं पड़े !
४-दर्शन करते समय भगवान् जी के दाहिनी हाथ की ओर,दोनों पंजो की दूरी ४-५ अंगुल की रखकर, खड़े होवे क्योकि सामने से दर्शन करने का विधान नहीं है और आशीर्वाद भगवान् सीधे हाथ से देते है!जो ४-५ अंगुल से अधिक पैरों के बीच दूरी रखकर दर्शन करते है वे आचार्यों अनुसार अज्ञानी है!(हाथ जोड़े हुए,उठे हुए),कर्थंपुति- का मुद्रा कहते है !
५- देवदर्शन करते समय,आप किसी अन्य भक्त के दर्शन करने में बाधक नहीं होने चाहिए अन्यथा आपके दर्शनावरणीय कर्म का आस्रव/बंध होगा !
६- दर्शन आँखे बंद करके नहीं करने चाहिए अन्यथा वीतराग मुद्रा का दर्शन कैसे होगा !
७-फिर चत्तारि दंडक,चत्तारि मंगल बोले !
८-ऐसे पञ्च णमो यारो------ बोले !
९-२४ तीर्थंकरों के नाम बोले !
१०-भगवान् के समक्ष पांच अर्घ्य के पुंज ;पांच परमेष्ठी के समक्ष,जिनवाणी के समक्ष ४ अर्घ्य के पुंज; प्रथमा नुयोग,करणानुयोग,चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग और मुनि श्री के समक्ष ३ पुंज अर्घ्य के उनके समयग्दर्शन, सम्यगज्ञान और समयगचारित्र के लिए अर्पित करे!
११-देव,शास्त्र गुरु,सिद्ध भगवान्,चौबीस तीर्थंकर भगवान्,मूल नायक भगवान् ,दस लक्षण धर्म,सोलहकारण भावनाओं ,पंचमेरू ,नन्दीश्वर द्वीप,का अर्घ्य अर्पित करे!
१२-भगवान् की३ प्रदिक्षणाये लगाए!मंदिर जी में प्रतिमाये साक्षात् समवशरण का प्रतीक है,जिसमे अरिहंत भगवान् विराजमान है!पहली परिक्रमा में,हम दाहिने हाथ खड़े होकर तीन बार आवर्त कर,एक नमोस्तु करेंगे,फिर भगवान् के पीछे जायेंगे तीन आवर्त और एक नमोस्तु करेंगे ,इसी तरह भगवान् के बाए और सामने भी ३ आवर्त और एक नमोस्तु करें!दूसरी परिक्रमा में बेदी के चारों कोनो में नमोस्तु करे,तीसरी में भी नमोस्तु करना है !परिक्रमा करते समय कोई अच्छी स्तुति बोल सकते है;प्रभु पतित पावन,मै अपावन -बोले। यदि याद हो तो दर्शन पाठ की स्तुति' सकल देव' बोले जो कि लघु समयसार है !तीन परिक्रमाएं केवल दिन में,भगवान् के समवशरण में चारों दिशाओं में विराजमान भगवान के मुखों के दर्शन के लिए,और रत्नत्रय की प्राप्ति के लिए,ले !रात्रि में परिक्रमाएं नहीं लगाते जिससे हम दिखाई नहीं देने वाले जीवो की अनावश्यक हिंसा से बच सके!
१३-परिक्रमा के पश्चात भगवान् को पंचांग नमस्कार करे !
१४-महिलाओं को गौवासन से जबकि पुरषों को पंचांग नमस्कार करना चाहिए!आचार्यों ने लिखा है कि यदि महिलाये अज्ञानत वश यदि पुरुषवत नमस्कार करती है तो वे दंड की पात्र है !
१४-मंदिर जी में मौजे पहिनकर नहीं जाना चाहिए क्योकि वे अशुद्ध होते है!मंदिर जी में त्रिलोकीनाथ के दर्शन हेतु सिर को आदरपूर्वक टोपी/दुपट्टा अथवा रुमाल से ढक कर जाना चाहिए
१५-गंधोदक ग्रहण करने की विधि-
गंधोदक भगवान् के अभिषेक से प्राप्त सुगन्धित पवित्र जल है !हाथ को धोकर चम्मच अथवा कन्नी अंगुली को छोड़कर अगली दो अँगुलियों से थोडा सा गंधोदक लेकर मस्तक,नेत्र, कंठ एवं हृदय पर धारण करे !गंधोदक लेते समय निम्न मंत्र बोले-
"निर्मलं निर्मले करणं,पवित्रं पापनाशनम् !जिन गन्धोदकम् बंदे अष्ट कर्म विनाशनम्' !!
अर्थात यह निर्मल है,निर्मल करने वाला है,पवित्र है और पापों को नष्ट करने वाला है,ऐसे जिन गंधोदक कि मै वंदना करता हूँ,यह मनुष्य के अष्टकर्मो का नाशक है!गंधोदक अत्यंत महिमावान है!मैना सुंदरी जी के द्वारा श्रीपालजी के शरीर पर गंधोदक छिड़कने से उनके कुष्ट रोग का निवारण हो गया था !
गंधोदक लेते समय ध्यान रखने योग्य विशेष बात है-अंगुली से एक बार गंधोदक कटोरे में से लेने के बाद पुन: वही अंगुली पुन: गंधोदक लेने के लिए,बिना धोये,गंदक के कटोरे मे डालना अनुचित है क्योकि शरीर का स्पर्श करने से वे अशुद्ध हो जाती है!
१६-क्या देवदर्शन ही आवश्यक है या पूजा आदि करना भी आवश्यक है ?
आचार्यों ने लिखा है-देव,पूजा,गुरु उपास्ति,स्वाध्याय,संयम,दान व तप,श्रावक के ष्ट आवश्यक नित्य करने योग्य कार्य है !जो देवपूजा करने में असमर्थ हो;जैसे आठ वर्ष से कम आयु के बच्चे अथवा अत्यंत वृद्ध , वे देव दर्शन से काम चला सकते है!देवदर्शन,परिक्रमा और गंधोदक लगाने के पश्चात स्वाध्याय के लिए एकांत में अपनी बुद्धि अनुसार यथायोग्य शास्त्र जी के नित्य ज्ञान वृद्धि हेतु १-२ पृष्ट का स्वाध्याय करे! यथायोग्य शास्त्र जी से अभिप्राय,हमारे समझने योग्य शास्त्रो से है!स्वाध्याय का आरम्भ प्रथमानुयोग के ग्रंथों, जिनमे ६३ शलखापुरषों के चरित्र के वर्णन के साथ धार्मिक बातों से अवगत कराया गया है,जैसे पदमपुराण, आदिपुराण आदि ग्रंथों से स्वाध्याय आरम्भ करना चाहिए!ये ग्रन्थ हमें ६३ शलखा पुरुषों जैसा,अगला जन्म प्राप्त करने के लिए प्रेरित करते है!फिर चरणानुयोग/करणानुयोग के ग्रंथों का स्वाध्याय करना चाहिए अंत में द्रव्यानुयोग के ग्रंथों का स्वाध्याय करना आपेक्षित है!कोई श्रावक यदि पहले ही द्रव्यानुयोग के ग्रन्थ समयसार,तत्वार्थसूत्र का स्वाध्याय करेगा तो उन्हें समझ नहीं पायेगा!चरणानुयोग के ग्रंथों जैसे;रत्नकरंडश्रावकाचार,मूलाचार आदि ग्रंथों के स्वाध्याय से हमे आत्मकल्याण के योग्यचारित्र निर्माण का ज्ञान होता है!करुणानुयोग के ग्रन्थ,हमें लोक के स्वरुप,चतुर्गतियों,गुणस्थान,कालचक्र आदि से अवगत कराते है!इनका स्वाध्याय क्रम से ही करना चाहिए!पहले छह ढाला फिर द्रव्यसंग्रह फिर तत्वार्थसूत्र आदि ग्रंथों का स्वाध्याय करे !
१७-स्वाध्याय के बाद किसी मंत्र की अथवा 'णमो कार मंत्र' की एक जाप(१०८ बार) मंदिर जी में ही करे ,घर पर नहीं क्योकि घरों में बहुत विघ्न होते है ,शुद्धता से करे उसकी उत्कृष्टता के लिए २० मिनट लगते है!यदि इतना समय उपलब्ध नहीं हो तो"अर्हन्त सिद्ध",'अर्हन्त' अथवा सूक्ष्मतः'ॐ' का जाप कर सकते है जिसमे ३-४ मिनट ही लगते है!मंदिर जी में मोबाइल फोन लेकर नहीं जाना चाहिए क्योकि पूजा,स्वाध्याय आदि में बाधक है!मंदिर का समय सिर्फ भगवान् 'जी से जुड़ने का होना चाहिए!ऐसा करने से आपको जीवन में उत्कृष्ट धार्मिक लाभ होगा!उसके बाद भगवन जी को नमस्कार करते हुए मंदिर जी से बहार असहि: असहि: असाही: बोलते हुए आये!ध्यान रखे,बहार आते हुए आपकी पीठ पूजनीय भगवान् की ओर नहीं रहे!
जब दरवाज़े से बहार निकले तो ३ बार बोले"भूयार्थ पुन: दर्शनं!अर्थात हे भगवान् आपके दर्शन से मुझे बड़ा आनंद मिला है!आपका दर्शन मुझे बार बार मिले!बार बार मिले,बार बार मिले !फिर घर की ओर प्रस्थान करे !
१८-मंदिर से लौटते समय कैसे विचार होने चाहिए
सम्यग्दृष्टि की पहिचान-आचार्य विद्यासागर जी के अनुसार यदि कोई व्यक्ति मंदिरजी दर्शन के लिए जाते समय प्रसन्न,आनंदित होता है क्योकि वह अशुभ कर्मों से दूर होकर भावों की विशुद्धि के लिए मंदिर जी जा रहा है किन्तु लौटते हुए रोता हुआ दुखी होकर आये क्योकि वह शुभोपयोग में लगने के बाद लौटकर पुन: सां सारिक अशुभ उपयोग में लगकर कर्मों के संचित करने आ रहा है,तो वह सम्यग्दृष्टि है !
१९-अष्टपाहु, कुंदकुंद आचार्य द्वारा रचित टीका में स्पष्ट लिखा है कि जो मंदिर जी में दर्शन,पूजन,स्वाध्याय से पूर्व नाश्ता करके जाते है उन्हें पुण्य की जगह पाप बंध होता है!पेट पूजा से पूर्व अपने आत्मकल्याण की बात करनी चाहिए!
२०-मानस्तम्भ का महत्व-जिस स्तम्भ को देख कर मान नष्ट हो जाये उसे मानस्तम्भ कहते है !शास्त्रों के अनुसार इन्द्रभूति गौतम,भगवान् महावीर के समवशरण में मानस्तम्भ देखने से पूर्व मिथ्यादृष्टि थे,किन्तु इंद्र के कहने पर उन्होंने जब समवशरण में प्रवेश किया तब उनका मान,मानस्तम्भ देखते ही नष्ट हुआ, उन्हों ने वही वंदना करी,जय हो भगवन जय हो भगवन बोले,और वही सम्यग्दृष्टि हुए !
जैनियों के अतिरिक्त अन्य मति,जो भगवान् के दर्शन करना चाहे वे मानस्तम्भ की प्रतिमाओं के दर्शन कर सके!इसलिए वे मंदिर के बाहर निर्मित किये जाते है!मानस्तम्भ में प्रतिष्ठित प्रतिमाये सबसे ऊपर और बीच में होती है!इसलिए हमे दोनों मूर्तियों कि विधिवत वंदना करनी चाहिए!जिस भी भगवान् की प्रतिमाये हो उनके लिए अर्घ्य के चार पुंज बनाकर चारों कोनो मे अर्पित करने चाहिए!मानस्तम्भ में चारों प्रतिमाये एक ही भगवान् की और भिन्न भिन्न भगवान् की भी होती है !इन प्रतिमाओं को अर्घ्य से पूजा करे और नमस्कार करे !
२१- धातु अथवा पाषाण की प्रतिमाओं से हमारा कैसे कल्याण हो सकता है?
यद्यपि प्रतिमा धातु अथवा पाषाण की है किन्तु उसमे पंचकल्याणक प्रतिष्ठा के समय सूर्य मंत्र दिया गया है, इसलिए स्थापना निक्षेप से ये प्रतिमाये भगवान् जैसी ही बन गयी है अत: पूजनीय है!इनके दर्शन के माध्यम से हम सिद्धालय में विराजमान भगवान् का दर्शन करते है!जो प्रतिमाये बाज़ार में उपलब्ध है उनके पञ्च कल्या णक नहीं होने के कारण पूजनीय नहीं है!इन प्रतिमाओं का इतना प्रभाव हमारे जीवन पर पड़ता है कि यदि हम इन्हे भगवान् मानकर श्रद्धापूर्वक पूजते है तो पापकर्मों की महाननिर्जरा होती है तथा पुण्यकर्मों का बंध होता है!
२२- हमें दर्शन दिन के आदि में प्रात:-,मध्यान-दोपहर,और अवसान -साय काल में,तीन बार करने चाहिए !जो ३ बार दर्शन करेंगे उनके ह्रदय मे भगवान् विराजमान रहगे जिससे उनके कषाय और पाप नहीं रह पाएंगे !फलत" वह पंचेन्द्रिय विषयों में नहीं फंसेंगे !वह संसार से बहुत दूर हो गया!यदि दर्शन ३ बार नहीं हो पाये तो कम से कम सुबह और शाम तो अवश्य करे !
२३-शंका -यदि मंदिर जी घर से १०-१५ किलोमीटर दूर हो तो क्या करे?
समाधान-नियम तो कहता है कि दर्शन नित्य करे!पंडित पन्ना लाल जी सागर वालों ने कहा था कि अपने घर में एक धर्म कक्ष बनाये!उस कक्ष में मेज पर,सिंहासन पर रखकर जिनवाणी (समयसार/रत्न कण्ड श्रावकाचार / तत्वार्थ सूत्र को विराजमान करे !
नित्य प्रति उस कक्ष में नहा धोकर भगवान् के दर्शन पूजन,स्वाध्याय आदि पूर्ण करे !जिनवाणी भी भगवान् का ही स्वरुप है !
यदि आप विदेश जा रहे है कुछ समय के लिए,आप जिस मंदिर जी में नित्य दर्शन करते है,उस मंदिर जी से एक प्रतिमाजी अपने साथ ले जाए,वहाँ धर्म कक्ष में उन प्रतिमाजी को विराजमान करे!जब तक वहाँ रहे उनका पूजन दर्शन करे और जब लौटे तो पुन: मंदिर जी में विधिवत शांति विधान करवाकर स्थापित करे !बाज़ार से अप्रति ष्ठित मूर्ती अथवा चित्रों के पूजन करना विकल्प नहीं है !
२४-व्रती अपना मकान मंदिर से अधिक दूरी पर नहीं ले !जहाँ अपने नियम नहीं पल सके वहाँ मत जाइये !
२५- देवदर्शन कब से है ?
अनादिकाल से मंदिर है,तभी से देवदर्शन और पूजन है!मूर्ती पूजन का विधान सर्वप्रथम जैनियों में ही है अन्य मैतियों ने जैनियों से ही मूर्ती पूजा ली है!हिन्दू धर्म के वेदों में हवन करने का विधान है!दयानंद स्वामी कभी मूर्ती पूजा की चर्चा नहीं करते थे क्योकि वेदों में इसका विधान लिखा नहीं है!जैनियों में देव अनादिकाल से नंदी श्वर द्वीप के जिन चैत्यालयों मे,अष्टाह्निका पर्वों पर,वर्ष मे तीन पूजन करते है !
२६- दर्शन करते समय विशेष ध्यान रखने योग्य तथ्य -
१-मुह में सुपारी,इलायची आदि कुछ नहीं होना चाहिए !मुख शुद्ध होना चाहिए !
२-दर्शन,परिक्रमा,पूजा आदि करते समय हमें किसी से बातचीत नहीं करनी चाहिए,यहाँ तक की किसी को मंदिर जी के अंदर जैजिनेंद्र भी नहीं करनी है,एकाग्रचित होकर दर्शन,पूजा आदि करने से पुण्य,सम्यग्दर्शन की प्राप्ति तथा कर्मों की निर्जरा होती है जो मोक्ष के साधन है!अपने बच्चो में भी देवदर्शन के संस्कार हमे डालने चाहिए इससे कुलाचार के पहले देवदर्शन भाग की पूर्ती हो जायेगी !
३-सभी दर्शनार्थियों के पौशाक शालीन होनी चाहिए!किसी की पोषाक उत्तेजक अथवा किसी की आपके ऊपर कुदृष्टि पड़ने योग्य नहीं होनी चाहिए !उत्तेजक श्रृं गार अथवा इत्र ,लिपस्टिक आदि का प्रयोग नहीं करे !
४-पूजा,पाठ,स्वाध्याय आदि जो भी करे मंद आवाज़ में अथवा मन मन में करे,जिससे अन्य सहधर्मी भाई बहिनों की पूजन/दर्शन बाधित नहीं हो!ताली आदि नहीं बजानी चाहिए,इससे जीव हिंसा होती है तथा अन्यो की पूजा में विघ्न पड़ता है !
५-यदि आपके शरीर पर सफ़ेद दाग है तो गंधोदक उस पर नहीं लगाना चाहिए!शरीर पर लगाये,अपने शरीर की पवित्रता बनेगी जो दागों को भरे प्रभावित करेगी !
६-गंधोदक से अपनी गले की चैन,माला आदि को धोना नहीं चाहिए !
७-भगवान के दर्शन और साधुओं की वंदना करने से पापकर्म अधिक देर तक नहीं रुकते जैसे अंजलि में पानी रखने पर वह अधिक देर उस मे टिक नहीं सकता!नित्य भगवान् के दर्शन पूजन करने से आप उनकी ओर बढ़ने के लिए प्रेरित होंगे
८-भगवान् से मंदिरजी में,सदा आत्मकल्याण की वांच्छा रखनी चाहिए,न कि सांसारिक/लौकिक सुखों की! दर्शन करने से आत्मिक सुखों की प्राप्ति होने पर सांसारिक सुख/विभूतियां स्वयमेव मिलते है,उन्हें मांगने की आवश्यकता नहीं होती है!