9.देव शास्त्र गुरु पूजा
प्रथम देव अरहंत, सुश्रुत सिद्धांत जू |
गुरु निर्ग्रन्थ महन्त, मुकतिपुर पन्थ जू ||
तीन रतन जग मांहि सो ये भवि ध्याइये |
तिनकी भक्ति प्रसाद परमपद पाइये ||
दोहा - पूजौं पद अरहंत के, पूजौं गुरुपद सार |
पूजौं देवी सरस्वती, नित प्रति अष्ट प्रकार ||
ॐ ह्रीं देव-शास्त्र-गुरु-समूह!
अत्र अवतर अवतर संवौषट् (आह्वाननं) |
ॐ ह्रीं देव-शास्त्र-गुरु-समूह!
अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः (स्थापनं) |
ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुसमूह!
अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्(सन्निधि करणं)
सुरपति उरग नरनाथ तिनकर, वन्दनीक सुपद-प्रभा |
अति शोभनीक सुवरण उज्ज्वल, देख छवि मोहित सभा ||
वर नीर क्षीरसमुद्र घट भरि अग्र तसु बहुविधि नचूं |
अरहंत,श्रुत-सिद्धांत, गुरु-निर्ग्रन्थ नित पूजा रचूं ||
दोहा - मलिन वस्तु हर लेत सब, जल स्वभाव मल छीन|
जासों पूजौं परमपद, देव शास्त्र गुरु तीन ||
ॐ ह्रीं देव-शास्त्र-गुरुभ्यः जन्म-जरा-मृत्यु-विनाशाय जलं निर्व0 स्वाहा |1|
जे त्रिजग उदर मंझार प्राणी तपत अति दुद्धर खरे |
तिन अहित-हरन सुवचन जिनके,परम शीतलता भरे ||
तसु भ्रमर-लोभित घ्राण पावन सरस चंदन घिसि सचूं |
अरहंत,श्रुत-सिद्धान्त,गुरु-निर्ग्रन्थ नित पूजा रचूं ||
दोहा - चंदन शीतलता करे,तपत वस्तु परवीन|
जासों पूजौं परमपद, देव शास्त्र गुरु तीन||
ॐ ह्रीं देवशास्त्र गुरुभ्यः संसार-ताप-विनाशनाय चंदनं निर्व0 स्वाहा |2|
यह भवसमुद्र अपार तारण के निमित्त सुविधि ठई |
अति दृढ़ परमपावन जथारथ भक्ति वर नौका सही ||
उज्ज्वल अखंडित शालि तंदुल पुंज धरि त्रय गुण जचूं |
अरहंत, श्रुत-सिद्धान्त, गुरु-निर्ग्रन्थ नित पूजा रचूं ||
दोहा - तंदुल शालि सुगंध अति, परम अखंडित बीन |
जासों पूजौं परमपद, देव शास्त्र गुरु तीन ||
ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यः अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्व0 स्वाहा |3|
जे विनयवंत सुभव्य-उर-अंबुज प्रकाशन भान हैं |
जे एक मुख चारित्र भाषत त्रिजगमाहिं प्रधान हैं||
लहि कुंद कमलादिक पुहुप,भव भव कुवेदनसों बचूं|
अरहंत, श्रुत-सिद्धान्त, गुरु-निर्ग्रन्थ नित पूजा रचूं||
दोहा - विविध भांति परिमल सुमन,भ्रमर जास आधीन|
जासों पूजौं परमपद देव शास्त्र गुरु तीन||
ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यः कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्व0 स्वाहा |4|
अति सबल मद-कंदर्प जाको क्षुधा-उरग अमान ह |
दुस्सह भयानक तासु नाशन को सु गरुड़ समान है||
उत्तम छहों रसयुक्त नित,नैवेद्य करि घृत में पचूं |
अरहंत,श्रुत-सिद्धान्त,गुरु-निर्ग्रन्थ नित पूजा रचूं||
दोहा - नानाविधि संयुक्तरस,व्यंजन सरस नवीन|
जासों पूजौं परमपद देव शास्त्र गुरु तीन ||
ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यः क्षुधा-रोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्व0 स्वाहा |5|
जे त्रिजगउद्यम नाश कीने, मोहतिमिर महाबली|
तिंहि कर्मघाती ज्ञानदीप प्रकाश ज्योति प्रभावली||
इह भांति दीप प्रजाल कंचन के सुभाजन में खचूं|
अरहंत, श्रुत-सिद्धान्त, गुरु-निर्ग्रन्थ नित पूजा रचूं||
दोहा-स्वपरप्रकाशक ज्योति अति,दीपक तमकरि हीन|
जासों पूजौं परमपद देव शास्त्र गुरु तीन||
ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यः मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्व0 स्वाहा |6|
जे कर्म-ईंधन दहन अग्निसमूह सम उद्धत लसै|
वर धूप तासु सुगन्धता करि,सकल परिमलता हंस ||
इह भांति धूप चढ़ाय नित भव ज्वलनमाहिं नहीं पचूं |
अरहंत,श्रुत-सिद्धान्त,गुरु-निर्ग्रन्थ नित पूजा रचूं||
दोहा - अग्निमांहि परिमल दहन,चंदनादि गुणलीन|
जासों पूजौं परमपद देव शास्त्र गुरु तीन||
ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यः अष्ट कर्मविध्वंसनाय धूपं निर्व0 स्वाहा |7|
लोचन सुरसना घ्राण उर, उत्साह के करतार हैं |
मोपै ब उपमा जाय वरणी,सकल फल गुणसार हैं||
सो फल चढ़ावत अर्थपूरन, परम अमृतरस सचूं |
अरहंत,श्रुत-सिद्धान्त,गुरु-निर्ग्रन्थ नित पूजा रचूं||
दोहा - जे प्रधान फल फलविषैं, पंचकरण-रस लीन|
जासों पूजौं परमपद देव शास्त्र गुरु तीन||
ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यः मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्व0 स्वाहा |8|
जल परम उज्ज्वल गंध अक्षत,पुष्प चरु दीपक धरुं|
वर धूप निरमल फल विविध,बहु जनम के पातक हरुं||
इहि भांति अर्घ चढ़ाय नित भवि करत शिवपंकति मचूं|
अरहंत,श्रुत-सिद्धान्त,गुरु-निर्ग्रन्थ नित पूजा रचूं||
दोहा -वसुविधि अर्घ संजोय के,अति उछाह मन कीन|
जासों पूजौं परमपद देव शास्त्र गुरु तीन|
ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यःअनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्व0 स्वाहा |9|
जयमाल
देव शास्त्र गुरु रतन शुभ,
तीन रतन करतार |
भिन्न भिन्न कहुं आरती,
अल्प सुगुण विस्तार|1
कर्मन की त्रेसठ प्रकृति नाशि,
जीते अष्टादश दोषराशि|
जे परम सुगुण हैं अनंत धीर,
कहवत के छयालिस गुणगंभीर |2
शुभ समवशरण शोभा अपार,
शत इंद्र नमत कर सीस धार |
देवाधिदेव अरहंत देव,
वंदौं मन-वच-तन करि सुसेव |3
जिनकी ध्वनि ह्वै ओंकाररुप,
निर-अक्षर मय महिमा अनूप |
दश अष्ट महाभाषा समेत,
लघुभाषा सात शतक सुचेत |4
सो स्याद्वादमय सप्तभंग,
गणधर गूंथे बारह सुअंग |
रवि शशि न हरें सो तम हराय,
सो शास्त्र नमौं बहु प्रीति ल्याय |5
गुरु आचारज उवझाय साधु,
तन नगन रतनत्रय-निधि अगाध |
संसारदेह वैराग्य धार,
निरवांछि तपैं शिवपद निहार |6
गुण छत्तिस पच्चिस आठबीस,
भवतारन तरन जिहाज ईस |
गुरु की महिमा वरनी न जाय,
गुरु-नाम जपौं मन-वचन-काय |7
सोरठा - कीजै शक्ति प्रमान,
शक्ति बिना सरधा धरे |
द्यानत सरधावान,
अजर अमरपद भोगवे |8
ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यः जयमाला पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा स्वाहा |
दोहा -श्रीजिन के परसाद तें,सुखी रहें सब जीव|
या तें तन मन वचन तें,सेवो भव्य सदीव||
इत्याशीर्वादः (पुष्पांजलिं क्षेपत्) |
तीस चौबीसी का अर्घ्य
द्रव्य आठों जु लीना है,अर्घ्य कर में नवीना है |
पूजतां पाप छीना है,‘भानुमल’ जोड़ि कीना है ||
दीप अढ़ाई सरस राजै,क्षेत्र दश ता विषै छाजै |
सात शत बीस जिनराजै,पूजतां पाप सब भाजै ||
ॐ ह्रीं पंचभरत, पंच ऐरावत, दशक्षेत्रविषयेषु त्रिंशति चतुर्विशत्यस्य सप्तशत विंशति जिनेंद्रेभ्यः नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा स्वाहा |
विद्यमान बीस तीर्थंकरों का अर्घ्य
उदक-चंदन-तंदुलपुष्पकैश्चरु-सुदीप-सुधूपफलार्घ्य कैः|
धवल मंगल-गानरवाकुले जिनगृहे जिनराजमहं यजे |1
ॐ ह्रीं सीमंधर-युगमंधर-बाहु-सुबाहु-संजात-स्वयंप्रभ-ऋषभानन-अनन्तवीर्य-सूर्यप्रभ-विशालकीर्ति-वज्रधर-चन्द्रानन-भद्रबाहु-श्रीभुजंग-ईश्वर-नेमिप्रभ-वीरसेन-महाभद्र-यशोधर-अजितवीर्येति विंशति-विद्यमानतीर्थंकरेभ्य नमः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा स्वाहा |