12.देव शास्त्र गुरु पूजा,रवि किरणों से

रवि किरणों से जिसका,
 सम्पूर्ण प्रकाशित है अन्तर,

उस श्री जिनवाणी में होता,
 तत्त्वों का सुंदरतम दर्शन ।

सद्दर्शन-बोध-चरण-पथ पर,
 अविरल जो बढ़ते हैं मुनिगण,

उन देव परम आगम गुरु को, 
शत शत वंदन शत शत वंदन ॥

ॐ ह्रीं श्री देव शाष्त्र गुरुसमूह अत्र अवतर २ सम्वौषट आव्हानं

ॐ ह्रीं श्री देव शाष्त्र गुरुसमूह अत्र तिष्ठ २ ठः २ स्थापनं

ॐ ह्रीं श्री देव शाष्त्र गुरुसमूह अत्र मम संहितो भव २ वषट
 


इन्द्रिय के भोग मधुर विष सम, 
लावण्यामयी कंचन काया ।

यह सब कुछ जड़ की क्रीडा है,
 मैं अब तक जान नहीं पाया ॥

मैं भूल स्वयं के वैभव को,
 पर ममता में अटकाया हूँ ।

अब निर्मल सम्यक नीर लिये, 
मिथ्या मल धोने आया हूँ ॥१॥

 
ॐ ह्रीं श्री देव शाष्त्र गुरुभ्यो मिथ्यात्व मल विनाशनाय जलं निर्वापामिति स्वाहा ॥

 
जड़ चेतन की सब परिणति प्रभु, 
अपने अपने में होती है ।

अनुकूल कहें प्रतिकूल कहें, 
यह झूठी मन की वृत्ति है ॥

प्रतिकूल संयोगों में क्रोधित, 
होकर संसार बढ़ाया है ।

संतप्त हृदय प्रभु चंदन सम,
 शीतलता पाने आया है ॥२॥

 

ॐ ह्रीं श्री देव शाष्त्र गुरुभ्यो क्रोध कषाय मल विनाशनाय चन्दनं निर्वापामिति स्वाहा ॥

 
उज्ज्वल हूँ कुंद धवल हूँ प्रभु, 
पर से न लगा हूँ किंचित भी ।

फिर भी अनुकूल लगें उन पर,
 करता अभिमान निरंतर ही ॥

जड़ पर झुक झुक जाता चेतन,
 नश्वर वैभव को अपनाया ।

निज शाश्वत अक्षत निधि पाने, 
अब दास चरण रज में आया ॥

 
ॐ ह्रीं श्री देव शाष्त्र गुरुभ्यो मान कषाय मल विनाशनाय अक्षतं निर्वापामिति स्वाहा ॥

 
यह पुष्प सुकोमल कितना है,
 तन में माया कुछ शेष नही ।

निज अंतर का प्रभु भेद कहूं,
 उसमे में ऋजुता का लेश नही ॥

चिन्तन कुछ फिर संभाषण कुछ,
 क्रिया कुछ की कुछ होती है ।

स्थिरता निज में प्रभु पाऊं जो, 
अंतर का कालुष धोती है ॥

 
ॐ ह्रीं श्री देव शाष्त्र गुरुभ्यो माया कषाय मल विनाशनाय पुष्पम निर्वापामिति स्वाहा ॥

 
अब तक अगणित जड़ द्रव्यों से,
 प्रभु भूख न मेरी शांत हुई ।

तृष्णा की खाई खूब भरी, 
पर रिक्त रही वह रिक्त रही ॥

युग युग से इच्छा सागर में, 
प्रभु ! गोते खाता आया हूँ ।

पंचेन्द्रिय मन के षटरस तज, 
अनुपम रस पीने आया हूँ ॥

 
ॐ ह्रीं श्री देव शाष्त्र गुरुभ्यो लोभ कषाय मल विनाशनाय नैवेद्यम निर्वापामिति स्वाहा ॥
 

जग के जड़ दीपक को अब तक मैंने समझा था उजियारा ।

झंझा कि एक झकोरे में जो बनता घोर तिमिर कारा ॥

अतएव प्रभो!यह नश्वर दीप,समर्पित करने आया हूँ।

तेरी अंतर लौ से निज अंतर,दीप जलाने आया हूँ ॥

 
ॐ ह्रीं श्री देव शाष्त्र गुरुभ्यो अज्ञान विनाशनाय दीपं निर्वापामिति स्वाहा ॥

 
जड़ कर्म घुमाता है तुझको, 
यह मिथ्या भ्रांति रही मेरी ।

में राग द्वेष किया करता, 
जब परिणति होती जड़ केरी ॥

यों भाव करम या भाव मरण, 
युग युग से करता आया हूँ ।

निज अनुपम गंध अनल से प्रभु, 
पर गंध जलाने आया हूँ ॥

 
ॐ ह्रीं श्री देव शाष्त्र गुरुभ्यो विभाव परिणति विनाशनाय धूपं निर्वापामिति स्वाहा ॥

 

जग में जिसको निज कहता में, 
वह छोड मुझे चल देता है ।

में आकुल व्याकुल हो लेता, 
व्याकुल का फल व्याकुलता है ॥

में शांत निराकुल चेतन हूँ,
 है मुक्तिरमा सहचर मेरी ।

यह मोह तड़क कर टूट पड़े, 
प्रभु सार्थक फल पूजा तेरी ॥
 

ॐ ह्रीं श्री देव शाष्त्र गुरुभ्यो मोक्ष फल प्राप्ताय फलं निर्वापामिति स्वाहा ॥

 

क्षण भर निज रस को पी चेतन, 
मिथ्या मल को धो देता है ।

कशायिक भाव विनष्ट किये, 
निज आनन्द अमृत पीता है ॥

अनुपम सुख तब विलसित होता,
 केवल रवि जगमग करता है ।

दर्शन बल पूर्ण प्रगट होता, 
यह है अर्हन्त अवस्था है ॥

यह अर्घ्य समर्पण करके प्रभु, 
निज गुण का अर्घ्य बनाऊंगा ।

और निश्चित तेरे सदृश प्रभु, 
अर्हन्त अवस्था पाउंगा ॥
 

ॐ ह्रीं श्री देव शाष्त्र गुरुभ्यो अनर्घ पद प्राप्ताय अर्घम निर्वापामिति स्वाहा ॥

 
जयमाला

भव वन में जी भर घूम चुका, 
कण कण को जी भर भर देखा।

मृग सम मृग तृष्णा के पीछे,
 मुझको न मिली सच की रखा।

झूठे जग के सपने सारे, 
झूठी मन की सब आशाएं ।

तन जीवन यौवन अस्थिर है,
 क्षण भंगुर पल में मुरझाएं ।

सम्राट महाबल सेनानी,
 उस क्षण को टाल सकेगा क्या।

अशरण मृत काया में हरषित,
 निज जीवन दल सकेगा क्या।

संसार महा दुख सागर के,
 प्रभु दुखमय सच आभसोन में।

मुझको न मिला सच क्षणभर भी,
 कंचन कामिनी प्रासदोन में।

में एकाकी एकत्वा लिये,
 एकत्वा लिये सब है आते।

तन धन को साथी समझा था,
 पर ये भी छोड चले जाते।

मेरे न हुए ये में इनसे, 
अति भिन्ना अखंड निराला हूँ।

निज में पर से अन्यत्वा लिये,
 निज समरस पीने वाला हूँ।

जिसके श्रिन्गारोन में मेरा,
 यह महंगा जीवन घुल जाता।

अत्यन्ता अशुचि जड़ काया से,
 ईस चेतन का कैसा नाता।

दिन रात शुभाशुभ भावों से,
 मेरा व्यापार चला करता।

मानस वाणी और काया से,
 आस्रव का द्वार खुला रहता।

शुभ और अशुभ की ज्वाला से,
 झुलसा है मेरा अन्तस्तल।

शीतल समकित किरण फूटें, 
सँवर से जाग अन्तर्बल।

फिर तप की शोधक वन्हि जगे, 
कर्मों की कड़ियाँ फूट पड़ें ।

सर्वांग निजात्म प्रदेशों से,
 अमृत के निर्झर फूट पड़ें

हम छोड चलें यह लोक तभी, 
लोकान्त विराजें क्षण में जा।

निज लोक हमारा वासा हो, 
शोकान्त बनें फिर हमको क्या।

जागे मम दुर्लभ बोधी प्रभो,
 दुर्नैतम सत्वर तल जावे।

बस ज्ञाता दृष्टा रह जाऊं, 
मद मत्सर मोह विनश जावे।

चिर रक्षक धर्म हमारा हो,
 हो धर्म हमारा चिर साथी।

जग में न हमारा कोई था,
 हम भी न रहें जग के साथी।

चरणों में आया हूँ प्रभुवर, 
शीतलता मुझको मिल जावे।

मुरझाई ज्ञानलता मेरी, 
निज अन्तर्बल से खिल जावे।

सोचा करता हूँ भोगों से,
 बूझ जावेगी इच्छा ज्वाला।

परिणाम निकलता है लेकिन, 
मानो पावक में घी डाला।

तेरे चरणों की पूजा से,
 इन्द्रिय सुख को ही अभिलाषा।

अब तक न समझ है पाया प्रभु,
 सच्चे सुख की भी परिभाषा।

तुम तो अविकारी हो प्रभुवर,
 जग में रहते जग से न्यारे।

अतएव झुक तव चरणों में,
 जग के माणिक मोती सारे।

स्याद्वाद मयी तेरी वाणी, 
शुभ नय के झरने झरते हैं ।

और उस पावन नौका पर लाखों,
 प्राणी भाव वारिधि तिरते हैं।

हे गुरुवर शाश्वत सुख दर्शक, 
यह नग्न स्वरूप तुम्हारा है।

जग की नश्वरता का सच्चा, 
दिग्दर्शन करने वाला है।

जब जग विषयों में रच पच कर,
 गाफिल निद्रा में सोता हो।

अथवा वह शिव के निष्कंटक, 
पथ में विष्कन्तक बोटा हो।

हो अर्ध निशा का सन्नाटा, 
वन में वनचारी चरते हों।

तब शांत निराकुल मानस तुम, 
तत्त्वों का चिन्तन करते हो।

करते तप शैल नदी तट पर,
 तरुतल वर्षा की झाड़ियों में।

समता रस पान किया करते,
 सुख दुख दोनों की घडियों में।

अन्तर्ज्वाला हरती वाणी, 
मानों झरती हों फुल्झदियाँ ।

भाव बंधन तड तड टूट पड़ें ,
 खिल जावें अंतर की कलियां।

तुम सा दानी क्या कोई हो,
 जग को दे दी जग की निधियां।

दिन रात लुटाया करते हो,
 सम शम की अविनश्वर मणियाँ।

हे निर्मल देव तुम्हें प्रणाम,
 हे ज्ञानदीप आगम प्रणाम।

हे शांति त्याग के मूर्तिमान,
 शिव पथ पंथी गुरुवर प्रणाम।
 

ॐ ह्रीं श्री देव शाष्त्र गुरुभ्यो पूर्णार्घम निर्वापामिति स्वाहा ॥