7.भक्तामर स्त्रोत- मुनि श्री समता सागरजी

भक्त अमर नत मुकुट द्युति, अघतम-तिमिर पलाय।

भवदधि डूबत को शरण, जिनपद शीश नवाय॥1

 
श्रुत पारग देवेन्द्र से, संस्तुत आदि जिनेश।

की थुति अब मैं करहुँ, जो मनहर होय विशेष ॥2

 
मैं अबोध तज लाज तव, थुति करने तैयार।

जल झलकत शशि बाल ही,पकड़े बिना विचार॥3

 
क्षुब्ध मगरयुत उदधि ज्यों, कठिन तैरना जान।

त्यों तव गुण धीमान भी,न कर सकें बखान॥4

 
फिर भी मैं असमर्थ तव, भक्तिवश थुति लीन।

सिंह सम्मुख नहिं जाय क्या,मृगि शिशु पालन दीन॥5

 
हास्य पात्र अल्पज्ञ पर, थुति करने वाचाल।

पिक कुहुके ज्यों आम को,बौर देख ऋतुकाल॥6

 
शीघ्र पाप भव-भव नशे, तव थुति श्रेष्ठ प्रकार।

ज्यों रवि नाशे सघन तम, फैला जो संसार॥7

 
मनहर थुति मतिमंद मैं, करता देख प्रभाव।

कमल पत्र जलकण पड़े, पाते मुक्ता भाव॥8

 
संस्तुति तो तव दूर ही, कथा हरे जग पाप।

भले दूर, फिर भी खिलें, पंकज सूर्य प्रतापl9


क्या अचरज थुतिकार हो, प्रभु यदि आप समान।

दीनाश्रित को ना करे,क्या निज सम श्रीमान्॥10

 
तुम्हें देख अन्यत्र न, होत नयन संतुष्ट।

कौन नीर खारा चहे, क्षीरपान कर मिष्ट॥११

 
प्रभु तन जिन परमाणु से, निर्मित शांत अनूप।

भू पर उतने ही रहे, अत: न दूजा रूप॥१२

 
नेत्र रम्य तव मुख कहाँ, उपमा जय जग तीन।

कहाँ मलिन शशि बिम्ब जो, दिन में हो द्युतिहीन॥१३

 
चन्द्रकला सम शुभ्र गुण, प्रभु लांघे त्रयलोक।

जिन्हें शरण जगदीश की, विचरें वे बेरोक॥१४

 
प्रभु का चित न हर सकीं, सुरतिय विस्मय कौन।

गिरि गिरते पर मेरु ना, हिले प्रलय पा पौन॥१५

 
तैल न बाती धूम ना, हवा बुझा नहिं पाय।

त्रय जग जगमग हों प्रभो,तुहि वर दीप रहाय॥१६

 
मेघ ढकें न तेज ना, ग्रसे राहु, नहि अस्त।

तव रवि महिमा श्रेष्ठ है, द्योतित भुवन समस्त॥१७

 
नित्य उदित तम मोह हर, मेघ न राहु गम्य।

सौम्य मुखाम्बुज चन्द्र वह,जिसकी आभ अदम्य॥१८

 
तमहर तव मुख काम क्या, निशा चन्द्र दिन भान।

पकी धान पर अर्थ क्या, झुकें मेघ जलवान॥१९॥

 
शोभे ज्यों प्रभु आप में, ज्ञान न हरिहर पास।

जो महमणि में तेज है, कहाँ काँच के पास॥२०॥

 
हरि हरादि लख आप में, अतिशय प्रीति होय।

इसी हेतु भव-भव विभो,मन हर पाय न कोय॥२१


शत नारीं शत सुत जनें,पर तुम सा नहिं एक।

तारागण सब दिशि धरें,रवि बस पूरव नेक॥ २२

 
अमल सूर्य तमहर कहत, योगी परम पुमान।

मृत्युंजय हों पाय तुम,बिन शिव पथ न ज्ञान॥ २३

 
ब्रह्मा विभु अव्यय विमल,आदि असंख्य अनन्त।

कामकेतु योगीश जिन,कह अनेक इक सन्त॥ २४


विवुधार्चित बुध बुद्ध तुम, तुम शंकर सुखकार।

शिवपथ विधिकर ब्रह्म तुम,तुम पुरुषोत्तम सार॥२५

 
त्रिजग दु:ख हर प्रभु नमूँ, नमूँ रतन भू माँहि।

नमूँ त्रिलोकीनाथ को,नमूँ भवसिंधु सुखाँहि॥ २६

 
शरण सर्व गुण आय, क्या विस्मय जग नहिं थान।

स्वप्न न मुख दोषहि लखो,आश्रय पाय जहान॥२७

 
तरु अशोक तल शुभ्र तन, यूँ शोभे भगवान।

मेघ निकट ज्यों सूर्य हो,तमहर किरण वितान॥२८

 
सिंहासन पर यूँ लगे, कनक-कान्त तन आप।

ज्यों उदयाचल पर उगे,रवि कर-जाल प्रताप॥२९

 
ढुरते चामर शुक्ल से, स्वर्णिम देह सुहाय।

चन्द्रकान्त मणि मेरु पर,मानो जल बरसाय॥३०

 
शशि सम शुभ मोती लगे, आतप हार दिनेश।

प्रकट करें त्रय छत्र तुम,तीन लोक परमेश॥३१

 
गूँजे ध्वनि गम्भीर दश, दिशि त्रिलोक सुखदाय।

मानो यश धर्मेश का,नभ में दुन्दुभि गाय॥३२

 
मन्द मरुत गन्धोद युत, सुरतरु सुमन अनेक।

गिरत लगे वच पंक्ति ही,नभ से गिरती नेक॥ ३३

 
त्रिजग कान्ति फीकी करे, भामण्डल द्युतिमान।

ज्योत नित्य शशि सौम्य पर,दीप्ति कोटिश:भान॥३४


तव वाणी पथ स्वर्ग शिव, भविजन को बतलाय।

धर्म कथन समरथ सभी,भाषामय हो जाय॥३५

 
स्वर्ण कमल से नव खिले, द्युति नखशिख मन भाय।

प्रभु पग जहँ जहँ धरत तहँ,पंकज देव रचाय॥३६॥

 
धर्म कथन में आप सम, वैभव अन्य न पाय ।

रहते ग्रहगण दीप्त पर,रवि सम तेज न आय॥३७


गण्डस्थल मद जल सने, अलिगण गुंजे गीत।

मत्त कुपित यूँ आय गज,पर तव दास अभीत॥३८

 
भिदे कुम्भ गज मोतियों, से भूषित भू भाग।

सिंह ऐसा क्या कर सके,जिसको तुमसे राग॥३९

 
प्रलय काल सी अग्नि दव, उड़ते तेज तिलंग।

जगभक्षण आतुर शमे,आप नाम जलगंग॥४०

 
लाल नेत्र काला कुपित, भी यदि समद भुजंग।

नाम नागदम पास जिस,वह निर्भीक उलंघ॥४१

 
हय हाथी भयकार रव, युत नृपदल बलवान।

नाशे प्रभु यशगान तव,ज्यों सूरज तम हान॥४२

 
भाले लग गज रक्त के, सर तरने भट व्यग्र।

रण में जीतें दास तव,दुर्जय शत्रु समग्र॥४३

 
क्षुब्ध जलधि बडवानली, मकरादिक भयकार।

आप ध्यान से यान हो,निर्भयता से पार॥ ४४

 
तजी आश चिन्तित दशा, महा जलोदर रोग।

अमृत प्रभु-पदरज लगा,मदन रूप हों लोग॥ ४५

 
सारा तन दृढ़ निगड़ से, कसा घिस रहे जंघ।

नाम मंत्र तव जपत ही,होय शीघ्र निर्बन्ध॥ ४६

 
गज अहि दव रण सिंधु गद, बन्धन भय मृगजीत।

सो भय ही भयभीत हो,जो थुति पढ़े विनीत॥ ४७

 
विविध सुमन जिनगुण रची,माला संस्तुति रूप।

कंठ धरे सो श्री लहे मानतुङ्ग अनुरूप॥ ४८॥