14.एकीभाव स्तोत्र -हिंदी कविवर भूधरदास जी कृत भाषानुवाद
दोहा :वादिराज मुनिराज के,चरणकमल चित्त लाय|
भाषा एकीभाव की, करुँ स्वपर सुखदाय |
(रोला छन्दः“अहो जगत गुरुदेव” विनती की चाल में)
यो अति एकीभाव भयो मानो अनिवारी|
जो मुझ-कर्म प्रबंध करत भव भव दुःख भारी|
ताहि तिहांरी भक्ति जगतरवि जो निरवारै |
तो अब और कलेश कौन सो नाहिं विदारै|1
तुम जिन जोतिस्वरुप दुरित अँधियारि निवारी|
सो गणेश गुरु कहें तत्त्व-विद्याधन-धारी|
मेरे चित्त घर माहिं बसौ तेजोमय यावत|
पाप तिमिर अवकाश तहां सो क्यों करि पावत|2
आनँद-आँसू वदन धोयं तुम जो चित्त आने|
गदगद सरसौं सुयश मन्त्र पढ़ि पूजा ठानें
ताके बहुविधि व्याधि व्याल चिरकाल निवासी|
भाजें थानक छोड़ देह बांबइ के वासी|3
दिवि तें आवन-हार भये भवि भाग-उदय बल|
पहले ही सुर आय कनकमय कीन महीतल|
मन-गृह ध्यान-दुवार आय निवसो जगनामी|
जो सुरवन तन करो कौन यह अचरज स्वामी|4
प्रभु सब जग के बिना-हेतु बांधव उपकारी|
निरावरन सर्वज्ञ शक्ति जिनराज तिहांरी |
भक्ति रचित मम चित्त सेज नित वास करोगे|
मेरे दुःख-संताप देख किम धीर धरोगे|5
भव वन में चिरकाल भ्रम्यों कछु कहिय न जाई|
तुम थुति-कथा-पियूष-वापिका भाग से पाई|
शशि तुषार घनसार हार शीतल नहिं जा सम|
करत न्हौन ता माहिं क्यों न भवताप बझै मम|6
श्रीविहार परिवाह होत शुचिरुप सकल जगl
कमल कनक आभाव सुरभि श्रीवास धरत पग|
मेरो मन सर्वंग परस प्रभु को सुख पावेl
अब सो कौन कल्यान जो न दिन-दिन ढिग आवे|7
भव तज सुख पद बसे काम मद सुभट संहारे|
जो तुमको निरखंत सदा प्रिय दास तिहांरे|
तुम-वचनामृत-पान भक्ति अंजुलि सों पीवै|
तिन्हैं भयानक क्रूर रोगरिपु कैसे छीवै|8
मानथंभ पाषान आन पाषान पटंतर|
ऐसे और अनेक रतन दीखें जग अंतर|
देखत दृष्टि प्रमान मानमद तुरत मिटावे|
जो तुम निकट न होय शक्ति यह क्योंकर पावे|9
प्रभुतन पर्वत परस पवन उर में निबहे है|
ता सों तत छिन सकल रोग रज बाहिर ह्रै है|
जा के ध्यानाहूत बसो उर अंबुज माहीं|
कौन जगत उपकार-करन समरथ सो नाहीं|10
जनम जनम के दुःख सहे सब ते तुम जानो|
याद किये मुझ हिये लगें आयुध से मानों|
तुम दयाल जगपाल स्वामि मैं शरन गही है|
जो कुछ करनो होय करो परमान वही है|11
मरन-समय तुम नाम मंत्र जीवक तें पायो|
पापाचारी श्वान प्रान तज अमर कहायो|
जो मणिमाला लेय जपे तुम नाम निरंतर|
इन्द्र-सम्पदा लहे कौन संशय इस अंतर|12
जो नर निर्मल ज्ञान मान शुचि चारित साधै|
अनवधि सुख की सार भक्ति कूंची नहिं लांघे|
सो शिव वांछक पुरुष मोक्ष पट केम उघारे|
मोह मुहर दिढ़ करी मोक्ष मंदिर के द्वारै|13
शिवपुर केरो पंथ पाप-तम सों अतिछायो|
दुःख सरुप बहु कूप-खाई सों विकट बतायो|
स्वामी सुख सों तहां कौन जन मारग लागें!
प्रभु-प्रवचन मणि दीप जोन के आगे आगे|14
कर्म पटल भू माहिं दबी आतम निधि भारी|
देखत अतिसुख होय विमुख जन नाहिं उघारी|
तुम सेवक ततकाल ताहि निहचै कर धारै|
थुति कुदाल सों खोद बंद भू कठिन विदारै|15
स्याद् वाद-गिरि उपज मोक्ष सागर लों धाई|
तुम चरणांबुज परस भक्ति गंगा सुखदाई|
मो चित निर्मल थयो न्होन रुचि पूरव तामें|
अब वह हो न मलीन कौन जिन संशय या में|16
तुम शिव सुखमय प्रगट करत प्रभु चिंतन तेरो|
मैं भगवान समान भाव यों वरतै मेरो|
यदपि झूठ है तदपि त्रप्ति निश्चल उपजावे|
तुव प्रसाद सकलंक जीव वांछित फल पावे|17
वचन जलधि तुम देव सकल त्रिभुवन में व्यापे|
भंग-तरंगिनि विकथ-वाद-मल मलिन उथापे|
मन सुमेरु सों मथे ताहि जे सम्यज्ञानी|
परमामृत सों तृप्त होहिं ते चिरलों प्रानी|18
जो कुदेव छविहीन वसन भूषन अभिलाखे|
वैरी सों भयभीत होय सो आयुध राखे|
तुम सुंदर सर्वांग शत्रु समरथ नहिं कोई|
भूषन वसन गदादि ग्रहन काहे को होई|19
सुरपति सेवा करे कहा प्रभु प्रभुता तेरी|
सो सलाघना लहै मिटे जग सों जग फेरी|
तुम भव जलधि जिहाज तोहि शिव कंत उचरिये|
तुही जगत-जनपाल नाथ थुति की थुति करिये|20|
वचन जाल जड़ रुप आप चिन्मूरति झांई|
तातैं थुति आलाप नाहिं पहुंचे तुम तांई||
तो भी निर्फल नाहिं भक्ति रस भीने वायक|
संतन को सुर तरु समान वांछित वरदायक|21
कोप कभी नहिं करो प्रीति कबहूं नहिं धारो|
अति उदास बेचाह चित्त जिनराज तिहांरो|
तदपि आन जग बहै बैर तुम निकट न लहिये|
यह प्रभुता जगतिलका कहां तुम बिन सरदहिये|22
सुरतिय गावें सुजश सर्व गति ज्ञान स्वरुपी|
जो तुमको थिर होहिं नमैं भवि आनंद रुपी|
ताहि छेमपुर चलन वाट बाकी नहिं हो हैं|
श्रुत के सुमरन माहिं सो न कबहूं नर मोहै|23
अतुल चतुष्टय रूप तुम्हें जो चित में धारे|
आदर सों तिहुं काल माहिं जग थुति विस्तारे|
सो सुकृत शिव पंथ भक्ति रचना कर पूरे|
पंच कल्यानक ऋद्धि पाय निहचै दुःख चूरे|24
अहो जगत पति पूज्य अवधि ज्ञानी मुनि हारे|
तुम गुन कीर्तन माहिं कौन हम मंद विचारे|
थुति छल सों तुम विषै देव आदर विस्तारे|
शिव सुख-पूरनहार कलपतरु यही हमारे|25
वादिराज मुनि तें अनु, वैयाकरणी सारे|
वादिराज मुनि तें अनु, तार्किक विद्यावारे|
वादिराज मुनि तें अनु, हैं काव्यन के ज्ञाता|
वादिराज मुनि तें अनु, हैं भविजन के त्राता|26
दोहा: मूल अर्थ बहु विधि कुसुम,भाषा सूत्र मँझार|
भक्ति माल ‘भूधर’ करी, करो कंठ सुखकार||