16.गोमटेश अष्टक स्त्रोत
नीलकमल के दल सम जिन के,
युगल सुलोचित विकसित हैं
शशि सम मनहर सुखकर जिनका,
मुख मंडल मृदु प्रमुदित है |
चम्पक छवि शोभा जिनकी,नम्र नसिका ने जीती
गोमटेश जिन पाद पद्म की,पराग नित मम मति पीती|
गोल गोल दो कपोल जिनके उजल सलिल सम छवि धारे
ऐरावत गज की सूंडासम बाहुदण्ड उज्ज्वल प्यारे |
कंधों पर आ,कर्ण पाश वे नर्तन करते नंदन हैं
निरालम्ब वे नभ सम शुचि मम गोमटेश को वन्दन है|
दर्शनीय टीवी मध्य भाग है,गिरि सम निश्चल अचल रहा
दिव्य शंख भी आप कंठ से, हार गया वह विफल रहा |
उन्नत विस्तृत हिमगिरी सम है,स्कन्ध आपका विलस रहा
गोमटेश प्रभु तभी सदा मम तुम पद में मन निवस रहा |
विन्ध्याचल पर चढ़कर खरतर,तप में तत्पर हो बसते
सकल विश्व के मुमुक्ष जन के शिखामणि तुम हो लसते |
त्रिभुवन के सब भव्य कुमुद ये, खिलते तुम पूरण शशि हो
गोमटेश मम नमन तुम्हें हो, सदा चाह बी मन वशि हो |
मृदुतम बेल लताएँ लिपटीं, पग से उर तक तुम तन में
कल्पवृक्ष हो अनल्प फल दो, भवि जन को तुम त्रिभुवन में |
तुम पद पंकज में अलि बन सुरपति गण करता गुन गुण है
गोमटेश प्रभु के प्रति, प्रतिपल वन्दन अर्पित तन-मन है |
अम्बर तज अम्बर तल थित हो दिग, अम्बर नहिं भीत रहे
अम्बर आदिक विषयन से अति विरत रहें, भव भीत रहें |
सर्पादिक से घिरे हुए पर, अकम्प निश्चल शैल रहे
गोमटेश स्वीकार नमन हो, धुलता मन का मैल रहे |
आशा तुमको छु नाहिं सकती, समदर्शन के शासक हो
जग के विषयन में वाच्छा नहिं, दोष मूल के नाशक हो |
भरत भ्रात में शल्य नहिं, अब विगत राग से रोष जला
गोमटेश तुम में मम, इस विध सतत राग का होत चला |
काम-धाम से, धन कंचन से, सकल संग से दूर हुए
शूर हुए मद मोह मार कर, समता से भरपूर हुए |
एक वर्ष तक एक थान थित, निराहार उपवास किये
इसलिए बस गोमटेश जिन, अब मम मन में वास किये |
नेमिचन्द्र गुरु ने किया, प्राकृत में गुण-गान |
गोमटेश थुति अब किया, भाषा-मय सुख खान |
गोमटेश के चरण में, नत हो बारम्बार |
विद्यासागर फिर बनूं, भवसागर कर पार |aal