17.कल्याण मंदिर स्तोत्र-हिन्दी-बनारसीदास

दोहा
ज्योति परमात्मा, परम-ज्ञान परवीन |

वंदूँ परमानंदमय घट-घट-अंतर-लीन ||१||

(चौपार्इ)

निर्भयकरन परम-परधान, 
भव-समुद्र-जल-तारन-यान |

शिव-मंदिर अघ-हरन अनिंद,
वंदूं पार्श्व-चरण-अरविंद ||२||

 
कमठ-मान-भंजन वर-वीर, 
गरिमा-सागर गुण-गंभीर |

सुर-गुरु पार लहें नहिं जास,
 मैं अजान जापूँ जस तास ||३||

 
प्रभु-स्वरूप अति-अगम अथाह, 
क्यों हम-सेती होय निवाह |

ज्यों दिन अंध उल्लू को होत,
 कहि न सके रवि-किरण-उद्योत ||४||

 
मोह-हीन जाने मनमाँहिं, 
तो हु न तुम गुन वरने जाहिं |

प्रलय-पयोधि करे जल गौन, 
प्रगटहिं रतन गिने तिहिं कौन ||५||

 
तुम असंख्य निर्मल गुणखान, 
मैं मतिहीन कहूँ निज बान|

ज्यों बालक निज बाँह पसार, 
सागर परमित कहे विचार ||६||

 
जे जोगीन्द्र करहिं तप-खेद,
 तेऊ न जानहिं तुम गुनभेद |

भक्तिभाव मुझ मन अभिलाष,
 ज्यों पंछी बोले निज भाष ||७||

 
तुम जस-महिमा अगम अपार, 
नाम एक त्रिभुवन-आधार |

आवे पवन पदमसर होय,
 ग्रीषम-तपन निवारे सोय ||८||

 
तुम आवत भवि-जन मनमाँहिं,
 कर्मनि-बन्ध शिथिल ह्वे जाहिं |

ज्यों चंदन-तरु बोलहिं मोर, 
डरहिं भुजंग भगें चहुँ ओर ||९||

 
तुम निरखत जन दीनदयाल,
 संकट तें छूटें तत्काल |

ज्यों पशु घेर लेहिं निशि चोर, 
ते तज भागहिं देखत भोर ||१०||

 
तुम भविजन-तारक इमि होहि, 
जे चित धारें तिरहिं ले तोहि |

यह ऐसे करि जान स्वभाव, 
तिरहिं मसक ज्यों गर्भित बाव ||११||

 
जिहँ सब देव किये वश वाम, 
तैं छिन में जीत्यो सो काम |

ज्यों जल करे अगनि-कुल हान, 
बडवानल पीवे सो पान ||१२||

 
तुम अनंत गुरुवा गुन लिए, 
क्यों कर भक्ति धरूं निज हिये |

ह्वै लघुरूप तिरहिं संसार, 
प्रभु तुम महिमा अगम अपार ||१३||

 
क्रोध-निवार कियो मन शांत,
 कर्म-सुभट जीते किहिं भाँत |

यह पटुतर देखहु संसार, 
नील वृक्ष ज्यों दहै तुषार ||१४||
 

मुनिजन हिये कमल निज टोहि,
 सिद्धरूप सम ध्यावहिं तोहि |

कमल-कर्णिका बिन-नहिं और,
 कमल बीज उपजन की ठौर ||१५||

 
जब तुव ध्यान धरे मुनि कोय, 
तब विदेह परमातम होय |

जैसे धातु शिला-तनु त्याग,
 कनक-स्वरूप धवे जब आग ||१६||

 
जाके मन तुम करहु निवास, 
विनशि जाय सब विग्रह तास |

ज्यों महंत ढिंग आवे कोय, 
विग्रहमूल निवारे सोय ||१७||

 
करहिं विबुध जे आतमध्यान,
 तुम प्रभाव तें होय निदान |

जैसे नीर सुधा अनुमान, 
पीवत विष विकार की हान ||१८||

 
तुम भगवंत विमल गुणलीन,
 समल रूप मानहिं मतिहीन |

ज्यों पीलिया रोग दृग गहे, 
वर्ण विवर्ण शंख सों कहे ||१९||
 

(दोहा)

निकट रहत उपदेश सुन,तरुवर भयो 'अशोक' |

ज्यों रवि ऊगत जीव सब,प्रगट होत भुविलोक ||२०

 
'सुमन वृष्टि' ज्यों सुर करहिं,हेठ बीठमुख सोहिं |

त्यों तुम सेवत सुमन जन,बंध अधोमुख होहिं ||२१

 
उपजी तुम हिय उदधि तें,'वाणी' सुधा समान |

जिहँ पीवत भविजन लहहिं,अजर अमर-पदथान ||२२

 
कहहिं सार तिहुँ-लोक को, ये 'सुर-चामर' दोय |

भावसहित जो जिन नमहिं,तिहँ गति ऊरध होय ||२३

 
'सिंहासन' गिरि मेरु सम, प्रभु धुनि गरजत घोर |

श्याम सुतनु घनरूप लखि,नाचत भविजन मोर ||२४

 
छवि-हत होत अशोक-दल, तुम 'भामंडल' देख |

वीतराग के निकट रह,रहत न राग विशेष ||२५

 
सीख कहे तिहुँ-लोक को, ये 'सुर-दुंदुभि' नाद |

शिवपथ-सारथ-वाह जिन,भजहु तजहु परमाद ||२६

 
'तीन छत्र' त्रिभुवन उदित, मुक्तागण छवि देत |

त्रिविध-रूप धर मनहु शशि,सेवत नखत-समेत ||२७

 
(पद्धरि छन्द)

प्रभु तुम शरीर दुति रतन जेम,
परताप पुंज जिम शुद्ध-हेम |

अतिधवल सुजस रूपा समान, 
तिनके गुण तीन विराजमान ||२८||

 
सेवहिं सुरेन्द्र कर नमत भाल, 
तिन सीस मुकुट तज देहिं माल |

तुम चरण लगत लहलहे प्रीति, 
नहिं रमहिं और जन सुमन रीति ||२९||

 
प्रभु भोग-विमुख तन करम-दाह, 
जन पार करत भवजल निवाह |

ज्यों माटी-कलश सुपक्व होय,
 ले भार अधोमुख तिरहिं तोय ||३०||

 
तुम महाराज निरधन निराश,
तज तुम विभव सब जगप्रकाश |

अक्षर स्वभाव-सु लिखे न कोय, 
महिमा भगवंत अनंत सोय ||३१||
 

कोपियो कमठ निज बैर देख,
 तिन करी धूलि वरषा विशेष |

प्रभु तुम छाया नहिं भर्इ हीन, 
सो भयो पापी लंपट मलीन ||३२||

 
गरजंत घोर घन अंधकार, 
चमकंत-विज्जु जल मूसल-धार |

वरषंत कमठ धर ध्यान रुद्र, 
दुस्तर करंत निज भव-समुद्र ||३३||

 
(वास्तु छन्द)

मेघमाली मेघमाली आप बल फोरि |

भेजे तुरत पिशाच-गण, नाथ-पास उपसर्ग कारण |

अग्नि-जाल झलकंत मुख,धुनिकरत जिमि मत्त वारण |

कालरूप विकराल-तन, मुंडमाल-हित कंठ |

ह्वे निशंक वह रंक निज, करे कर्म दृढ़-गंठ ||३४||

 
(चौपार्इ छन्द)

जे तुम चरण-कमल तिहुँकाल,
सेवहिं तजि माया जंजाल |

भाव-भगति मन हरष-अपार,
 धन्य-धन्य जग तिन अवतार ||३५||

 
भवसागर में फिरत अजान, 
मैं तुव सुजस सुन्यो नहिं कान |

जो प्रभु-नाम-मंत्र मन धरे, 
ता सों विपति भुजंगम डरे ||३६||

 
मनवाँछित-फल जिनपद माहिं,
 मैं पूरब-भव पूजे नाहिं |

माया-मगन फिर्यो अज्ञान, 
करहिं रंक-जन मुझ अपमान ||३७||

 

मोहतिमिर छायो दृग मोहि, 
जन्मान्तर देख्यो नहिं तोहि |

जो दुर्जन मुझ संगति गहें, 
मरम छेद के कुवचन कहें ||३८||

 
सुन्यो कान जस पूजे पायँ, 
नैनन देख्यो रूप अघाय |

भक्ति हेतु न भयो चित चाव, 
दु:खदायक किरिया बिनभाव ||३९||

 
महाराज शरणागत पाल, 
पतित-उधारण दीनदयाल |

सुमिरन करहूँ नाय निज-शीश, 
मुझ दु:ख दूर करहु जगदीश ||40||

 
कर्म-निकंदन-महिमा सार, 
अशरण-शरण सुजस विस्तार |

नहिं सेये प्रभु तुमरे पाय,
 तो मुझ जन्म अकारथ जाय ||४१||

 
सुर-गन-वंदित दया-निधान, 
जग-तारण जगपति अनजान |

दु:ख-सागर तें मोहि निकासि, 
निर्भय-थान देहु सुख-रासि ||४२||

 

मैं तुम चरण कमल गुणगाय,
 बहु-विधि-भक्ति करी मनलाय |

जनम-जनम प्रभु पाऊँ तोहि,
 यह सेवाफल दीजे मोय ||४३||

 
(बेसरी छंद – षड्पद)

इहविधि श्री भगवंत, सुजस जे भविजन भाषहिं |

ते निज पुण्यभंडार, संचि चिर-पाप प्रणासहिं ||

रोम-रोम हुलसंति अंग प्रभु-गुण मन ध्यावहिं |

स्वर्ग संपदा भुंज वेगि पंचमगति पावहिं ||

यह कल्याणमंदिर कियो, कुमुदचंद्र की बुद्धि |

भाषा कहत 'बनारसी', कारण समकित-शुद्धि ||४४||