18.प्रतिमा प्रक्षाल विधि पाठ

(दोहा)
परिणामों की स्वच्छता, के निमित्त जिनबिम्ब |

इसीलिए मैं निरखता, इनमें निज-प्रतिबिम्ब ||

पंच-प्रभू के चरण में, वंदन करूँ त्रिकाल |

निर्मल-जल से कर रहा, प्रतिमा का प्रक्षाल ||

अथ पौर्वाह्रिक देववंदनायां पूर्वाचार्यानुक्रमेण सकलकर्मक्षयार्थं भावपूजा-

स्तवन वंदनासमेतं श्री पंचमहागुरुभक्तिपूर्वकं कायोत्सर्गं करोम्यहम् ।

(नौ बार णमोकार मंत्र पढ़ें)


(छप्पय)
तीन लोक के कृत्रिम औ अकृत्रिम सारे |

जिनबिम्बों को नित प्रति अगणित नमन हमारे ||

श्रीजिनवर की अन्तर्मुख छवि उर में धारूँ |

जिन में निज का, निज में जिन-प्रतिबिम्ब निहारूँ ||

मैं करूँ आज संकल्प शुभ, जिन-प्रतिमा प्रक्षाल का |

यह भाव-सुमन अर्पण करूँ, फल चाहूँ गुणमाल का ||

ओं ह्रीं प्रक्षाल-प्रतिज्ञायै पुष्पांजलिं क्षिपामि।

(प्रक्षाल की प्रतिज्ञा हेतु पुष्प क्षेपण करें)

(रोला)
अंतरंग बहिरंग सुलक्ष्मी से जो शोभित |

जिनकी मंगलवाणी पर है त्रिभुवन मोहित ||

श्रीजिनवर सेवा से क्षय मोहादि-विपत्ति |

हे जिन! ‘श्री’ लिख, पाऊँगा निज-गुण सम्पत्ति ||

(अभिषेक-थाल की चौकी पर केशर से ‘श्री’ लिखें)

(दोहा)
अंतर्मुख मुद्रा सहित, शोभित श्री जिनराज |

प्रतिमा प्रक्षालन करूँ, धरूँ पीठ यह आज ||

ओं ह्रीं श्री स्नपन-पीठ स्थापनं करोमि।

(प्रक्षाल हेतु थाल स्थापित करें)

(रोला)
भक्ति-रत्न से जड़ित आज मंगल सिंहासन |

भेद-ज्ञान जल से क्षालित भावों का आसन ||

स्वागत है जिनराज तुम्हारा सिंहासन पर |

हे जिनदेव! पधारो श्रद्धा के आसन पर ||

ओं ह्रीं श्री धर्मतीर्थाधिनाथ भगवन्निह सिंहासने तिष्ठ! तिष्ठ!

(प्रदक्षिणा देकर अभिषेक-थाल में जिनबिम्ब विराजमान करें)

क्षीरोदधि के जल से भरे कलश ले आया |

दृग-सुख वीरज ज्ञान स्वरूपी आतम पाया ||

मंगल-कलश विराजित करता हूँ जिनराजा |

परिणामों के प्रक्षालन से सुधरें काजा ||

ओं ह्रीं अर्हं कलश-स्थापनं करोमि।

(चारों कोनों में निर्मल जल से भरे कलश स्थापित करें, व स्नपन-पीठ स्थित जिन-प्रतिमा को अर्घ्य चढ़ायें)

जल-फल आठों द्रव्य मिलाकर अर्घ्य बनाया |

अष्ट-अंग-युत मानो सम्यग्दर्शन पाया ||

श्रीजिनवर के चरणों में यह अर्घ्य समर्पित |

करूँ आज रागादि विकारी-भाव विसर्जित ||

ओं ह्रीं श्री स्नपनपीठस्थिताय जिनाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।

(चारों कोनों के इंद्र विनय सहित दोनों हाथों में जल कलश ले प्रतिमाजी के शिर पर धारा करते हुए गावें)

मैं रागादि विभावों से कलुषित हे जिनवर |

और आप परिपूर्ण वीतरागी हो प्रभुवर ||

कैसे हो प्रक्षाल जगत के अघ-क्षालक का |

क्या दरिद्र होगा पालक! त्रिभुवन-पालक का ||

भक्ति-भाव के निर्मल जल से अघ-मल धोता |

है किसका अभिषेक! भ्रान्त-चित खाता गोता ||

नाथ! भक्तिवश जिन-बिम्बों का करूँ न्हवन मैं |

आज करूँ साक्षात् जिनेश्वर का पृच्छन मैं ||

(दोहा)
क्षीरोदधि-सम नीर से करूँ बिम्ब प्रक्षाल |

श्री जिनवर की भक्ति से जानूँ निज-पर चाल ||

तीर्थंकर का न्हवन शुभ सुरपति करें महान् |

पंचमेरु भी हो गए महातीर्थ सुखदान ||

करता हूँ शुभ-भाव से प्रतिमा का अभिषेक |

बचूँ शुभाशुभ भाव से यही कामना एक ||


ओं ह्रीं श्रीमन्तं भगवन्तं कृपालसन्तं वृषभादिमहावीरपर्यन्तं चतुर्विंशति-तीर्थंकर-परमदेवम् आद्यानामाद्ये जम्बूद्वीपे भरतक्षेत्रे आर्यखण्डे <….शुभे....> नाम्निनगरे मासानामुत्तमे <….शुभे....> मासे <….शुभे....> पक्षे <….शुभे....> दिने मुन्यार्यिकाश्रावकश्राविकाणां सकलकर्म – क्षयार्थं पवित्रतर-जलेन जिनमभिषेचयामि ।

(मास, पक्ष, दिन की जानकारी ना होने पर “शुभे” का प्रयोग करें)

(चारों कलशों से अभिषेक करें, वादित्र-नाद करावें एवं जय-जय शब्दोच्चारण करें)

(दोहा)
जिन-संस्पर्शित नीर यह, गन्धोदक गुणखान |

मस्तक पर धारूँ सदा, बनूँ स्वयं भगवान् ||

(गंधोदक केवल मस्तक पर लगायें, अन्य किसी अंग में लगाना आस्रव का कारण होने से वर्जित है)

जल-फलादि वसु द्रव्य ले, मैं पूजूँ जिनराज |

हुआ बिम्ब-अभिषेक अब, पाऊँ निज-पद-राज ||

ओं ह्रीं श्री अभिषेकांन्ते वृषभादिवीरान्तेभ्यो अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।

श्री जिनवर का धवल-यश, त्रिभुवन में है व्याप्त |

शांति करें मम चित्त में, हे! परमेश्वर आप्त ||

(पुष्पांजलि क्षेपण करें)

(रोला)
जिन-प्रतिमा पर अमृत सम जल-कण अतिशोभित |

आत्म-गगन में गुण अनंत तारे भवि मोहित ||

हो अभेद का लक्ष्य भेद का करता वर्जन |

शुद्ध वस्त्र से जल कण का करता परिमार्जन ||

(प्रतिमा को शुद्ध-वस्त्र से पोंछें)

(दोहा)
श्रीजिनवर की भक्ति से, दूर होय भव-भार |

उर-सिंहासन थापिये, प्रिय चैतन्य-कुमार ||

(वेदिका-स्थित सिंहासन पर नया स्वस्तिक बना प्रतिमाजी को विराजित करें व निम्न पद गाकर अर्घ्य चढ़ायें)

जल गन्धादिक द्रव्य से, पूजूँ श्री जिनराज |

पूर्ण अर्घ्य अर्पित करूँ, पाऊँ चेतनराज ||

ओं ह्रीं श्री वेदिका-पीठस्थितजिनाय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।