19.पंचकल्याणक मंगल पाठ
पणविवि पंच परमगुरु, गुरुजिन शासनो |
सकल-सिद्धि-दातार सु विघन-विनाशनो ||
सारद अरु गुरु गौतम सुमति प्रकाशनो |
मंगल कर चउ संघहि पाप-पणासनो ||
पापहिं पणासन,गुणहिं गरुवा, दोष अष्टादश-रहिउ |
धरि ध्यान कर्म विनाश केवलज्ञान अविचल जिन लहिउ ||
प्रभु पञ्चकल्याणक विराजित,सकल सुर नर ध्यावहीं |
त्रैलोक्यनाथ सुदेव जिनवर, जगत मंगल गावहीं |1
(1) गर्भ कल्याणक
जाके गर्भ कल्याणक धनपति आइयो |
अवधिज्ञान-परवान सु इंद्र पठाइयो ||
रचि नव बारह योजन, नयरि सुहावनी |
कनक-रयण-मणि-मंडित,मन्दिर अति बानी||
अति बनी पौरि पगारि परिखा,भुवन उपवन सोहये|
नरनारि सुन्दर चतुर भेख सु,देख जनमन मोहये||
तहं जनकगृह छहमास प्रथमहिं,रतन-धारा बरसियो|
पुनि रुचिकवासिनि जननि-सेवा करहिं सबविधि हरसियो|2
सुरकुंजर-सम कुंजर, धवल धुरंधरो |
केहरि-केशर-शोभित, नख-शिख सुन्दरो ||
कमला-कलश-न्हवन, दुइ दाम सुहावनी |
रवि-शशि-मंडल मधुर, मीन जुग पावनी ||
पावनि कनक-घट-जुगम पूरण,कमल-कलित सरोवरो|
कल्लोल माला कुलित सागर,सिंहपीठ मनोहरो||
रमणिक अमरविमान फणिपति-भवन भुवि छवि छाजई |
रुचि रतनराशि दिपंत-दहन सु तेजपुंज विराजई |3
ये सखि सोलह सुपने सूती सयनही|
देखे माय मनोहर,पश्चिम रयनही ||
उठि प्रभात पिय पूछियो,अवधि प्रकाशियो|
त्रिभुवनपति सुत होसी,फल तिहँ भासियो ||
भासियो फल तिहिं चिंत दम्पति परम आनन्दित भये|
छहमास,परि नवमास पुनि तहं,रयन दिन सुखसों गये||
गर्भावतार महंत महिमा,सुनत सब सुख पावहीं |
भणि रुपचन्द सुदेव जिनवर जगत मंगल गावहीं |4|
(2) जन्म कल्याणक
मति-श्रुत-अवधि-विराजित,जिन जब जनमियो|
तिहुंलोक भयो छोभित,सुरगन भरमियो ||
कल्पवासि घर घंट अनाहद वज्जियो |
ज्योतिष-घर हरिनाद सहज गलगज्जियो ||
गज्जियो सहजहिं संख भावन,भुवन शब्द सुहावने|
व्यंतर-निलय पटु पटहिं बज्जिय,कहत महिमा क्यों बने||
कंपित सुरासन अवधिबल जिन-जनम निहचै जानियो|
धनराज तब गजराज मायामयी निरमय आनियो |5
योजन लाख गयंद, वदन सौ निरमये |
वदन वदन वसुदंत, दंत सर संठये ||
सर-सर सौ-पनवीस, कमलिनी छाजहीं |
कमलिनि कमलिनि कमल पचीस विराजहीं ||
राजहीं कमलिनि कमलऽठोतर सौ मनोहर दल बने|
दल दलहिं अपछर नटहिं नवरस,हाव भाव सुहावने||
मणि कनक-किंकणि वर विचित्र सु अमर-मण्डप सोहये|
घन घंट चँवर ध्वजा पताका, देखि त्रिभुवन मोहये |6
तिहिं करि हरि चढ़ि आयउ सुर-परिवारियो|
पुरहिं प्रदच्छन दे त्रय, जिन जयकारियो||
गुप्त जाय जिन-जननिहिं, सुखनिद्रा रची|
मायामई शिशु राखि तौ, जिन आन्यो शची||
आन्यो शची जिनरुप निरखत,नयन तृपति न हूजिये |
तब परम हरषित ह्रदय हरिने सहस-लोचन पूजिये||
पुनि करि प्रणाम जु प्रथम इन्द्र,उछंग धरि प्रभु लीनऊ|
ईशान इन्द्र सुचंद्र छवि सिर, छत्र प्रभु के दीनऊ |7
सनतकुमार महेन्द्र चमर दुइ ढारहीं |
शेष शक्र जयकार शबद उच्चारहीं ||
उच्छव-सहित चतुरविधि हरषित भये |
योजन सहस निन्यानवै गगन उलंघि गये||
लंघि गये सुरगिरि जहां पांडुक वन विचित्र विराजहीं|
पांडुक-शिला तहँ अर्द्धचन्द्र समान,मणि छवि छाजहीं||
जोजन पचास विशाल दुगुणायाम,वसु ऊंची घना|
वर अष्ट-मंगल कनक कलशनि सिंहपीठ सुहावनी |8
रचि मणिमंडप शोभित, मध्य सिंहासनो |
थाप्यो पूरब मुख तहँ प्रभु कमलासनो ||
बाजहिं ताल मृदंग, वेणु वीणा घने |
दुंदुभि प्रमुख मधुर धुनि, अवर जु बाजने ||
बाजने बाजहिं शची सब मिलि,धवल मंगल गावहीं|
पुनि करहिं नृत्य सुरांगना,सब देव कौतुक ध्यावहीं||
भरि क्षीरसागर जल जु हाथहिं हाथ सुरगन ल्यावहीं |
सौधर्म अरु ईशान इन्द्र सुकलश ले प्रभु न्हावहीं |9
वदन उदर अवगाह, कलशगत जानिये |
एक चार वसु जोजन, मान प्रमानिये ||
सहस-अठोतर कलसा, प्रभु के सिर ढरे |
पुनि सिंगार प्रमुख, आचार सबै करे ||
करि प्रगट प्रभु महिमा महोच्छव,आनि पुनि मातहिं दयो|
धनपतिहिं सेवा राखि सुरपति,आप सुरलोकहिं गय||
जन्माभिषेक महंत महिमा,सुनत सब सुख पावहीं|
भणि रुपचन्द सुदेव जिनवर जगत मंगल गावहीं |10
(3) तप कल्याणक
श्रम-जल-रहित शरीर, सदा सब मल-रहिउ |
छीर वरन वर रुधिर, प्रथम आकृति लहिउ ||
प्रथम सार संहनन, सरुप विराजहिं |
सहज सुगंध सुलच्छन, मंडित छाजहीं ||
छाजहीं अतुल बल परम प्रिय हित,मधुर वचन सुहावने|
दस सहज अतिशय सुभग मूरति,बाललील कहावने||
आबाल काल त्रिलोकपति मन-रुचिर उचित जु नित नये|
अमरोपनीत पुनीत अनुपम सकल भोग विभोगये |11
भव-तन-भोग-विअनित्ताचित चिंतए|
धन-यौवन पिय पुत्त, कलित्त अनित्तए||
कोउ न सरन मरन दिन, दुख चहुंगति भरयो |
सुखदुख एकहि भोगत,जिय विधि-वसि परयो ||
परयो विधि-वस आन चेतन,आन जड़ जु कलेवरो|
तन असुचि परतैं होय आस्रव परिहरे तैं संवरो ||
निरजरा तपबल होय समकित बिन सदा त्रिभुवन भ्रम्यो |
दुर्लभ विवेक बिना न कबहू, परम धरम विषैं रम्यो |12
ये प्रभु बारह पावन भावन भाइया |
लौकांकित वर देव नियोगी आइया ||
कुसुमांजलि दे चरन कमल सिर नाइया |
स्वयंबुद्ध प्रभु थुतिकर तिन समुझाइया ||
समुझाय प्रभु को गये निजपुर,पुनि महोच्छव हरि कियो|
रुचि रुचिर चित्र विचित्र सिविका कर सुनन्दन वन लियो||
तहँ पंचमुट्ठी लोंच कीनो,प्रथम सिद्धनि नुति करी|
मंडिय महाव्रत पंच दुद्धर सकल परिग्रह परिहरी|13
मणि-मय-भाजन केश परिट्ठिय सुरपती |
छीर-समुद्र-जल खिप करि गयो अमरावती ||
तप-संयम-बल प्रभु को मनपरजय भयो |
मौन सहित तप करत काल कछु तहं गयो ||
गयो कुछ तहँ काल तपबल,रिद्धि वसुविधि सिद्धिया|
जसु धर्म ध्यान-बलेन खयगय,सप्त प्रकृति प्रसिद्धिया||
खिपि सातवें गुण जतन बिन तहँ,तीन प्रकृति जु बुधिबढ़िउ|
करि करण तीन प्रथम सुकल-बल,खिपक-सेनी प्रभु चढ़िउ |14
प्रकृति छतीस नवें गुण-थान विनासिया |
दसवें सूक्षम लोभ प्रकृति तहँ नासिया ||
सुकल ध्यानपद दुजो पुनि प्रभु पूरियो |
बारहवें-गुण सोरह प्रकृति जु चूरियो ||
चूरियो त्रेसठ प्रकृति इह विधि,घातिया-करमनि तणी|
तप कियो ध्यान-पर्यन्त बारह-विधि त्रिलोक-सिरोमणी ||
निःक्रमण-कल्याणक सु महिमा,सुनत सब सुख पामोहय
भणि रुपचन्द सुदेव जिनवर,जगत मंगल गावहीं|15
(4) ज्ञान कल्याणक
तेरहवें गुणथान सयोगि जिनेसुरो |
अनंत-चतुष्टय-मंडित, भयो परमेसुरो ||
समवसरन तब धनपति बहु-विधि निरमयो |
आगम-जुगति प्रमान, गगन-तल परि ठयो ||
परि ठयो चित्र विचित्र मणिमय,सभा-मण्डप सोहये|
तिहि मध्य बारह बनेलखावहीनक सुरनर मोहये||
मुनि कलप-वासिनि अरजिका, पुन ज्योति-भौमि-व्यन्तर-तिया |
पुनि भवन-व्यंतर नभग सुर नर पशुनि कोठे बैठिया|16
मध्य प्रदेशहिं तीन मणिपीठ तहां बने |
गंधकुटी सिंहासन कमल सुहावने ||
तीन छत्र सिर सोहत त्रिभुवन मोहए |
अन्तरीच्छ कमलासन प्रभुतन सोहए ||
सोहये चौंसठ चमर ढुरत, अशोक-तरु-तल छाजए |
पुनि दिव्यधुनि प्रति-सबद-जुत तहँ, देव दुंदुभि बाजए ||
सुर-पुहुपवृष्टि सुप्रभा-मण्डल, कोटि रवि छवि छाजए |
इमि अष्ट अनुपम प्रातिहारज,वर विभुति विराजये|17
दुइसौ जोजनमान सुभिच्छ चहूँ दिसी |
गगन-गमन अरु प्राणी-वध नहिं अह-निसी |
निरुपसर्ग निराहार, सदा जगदीश ए |
आनन चार चहुंदिसि सोभित दीसए ||
दीसय असेस विसेस विद्या, विभव वर ईसुरपना |
छाया-विवर्जित शुद्ध स्फटिक समान तन प्रभु का बना ||
नहिं नयन-पलक-पतन कदाचित् केश नख सम छाजहीं |
ये घातिया छय-जनित अतिशय,दस विचित्र विराजहीं|18
सकल अरथमय मागधि-भाषा जानिए |
सकल जीवगत मैत्री-भाव बखानिए ||
सकल रितुज फलफूल वनस्पति मन हरे |
दरपन-सम मनि अवनि पवन-गति अनुसरे ||
अनुसरे, परमानंद सबको, नारि नर जे सेवता |
जोजन प्रमान धरा सुमार्जहिं, जहां मारुत देवता ||
पुन करहिं मेघकुमार गंधोदक सुवृष्टि सुहावनी |
पद-कमल-तर सुर खिपहिं कमलसु धरणि ससि-सोभा बनी |19|
अमल-गगन-तल अरु दिसि तहँ अनुहारहीं |
चतुर-निकाय देवगण जय जयकारहीं ||
धर्मचक्र चलै आगैं रवि जहँ लाजहीं |
पुनि भृंगारप्रमुख, वसु मंगल राजहीं ||
राजहीं चौदह चारु अतिशय, देव रचित सुहावने |
जिनराज केवलज्ञान महिमा, अवर कहत कहा बने |
तब इन्द्र आय कियो महोच्छव, सभा सोभा अति बनी ||
धर्मोपदेश दियो तहां, उच्चरिय वानी जिनतनी |20
क्षुधा तृषा अरु राग रोष असुहावने |
जन्म जरा अरु मरण त्रिदोष भयावने ||
रोग सोग भय विस्मय अरु निन्द्रा घनी |
खेद स्वेद मद मोह अरति चिंता गनी ||
गनिए अठारह दोष तिनकारि रहित देव निरंजनो |
नव परम केवललब्धि मंडिय सिव-रमनि-मनरंजनो ||
श्री ज्ञानकल्याणक सुमहिमा, सुनत सब सुख पावहीं |
भणि रुपचन्द सुदेव जिनवर जगत मंगल गावहीं |21
(5) निर्वाण कल्याणक
केवल दृष्टि चराचर, देख्यो जारिसो | (जारिसो जैसा)
भव्यनि प्रति उपदेश्यो, जिनवर तारिसो || (तारिसो तैसा)
भव-भय-भीत भविकजन, सरणै आइया |
रत्नत्रय-लच्छन सिवपंथ लगाइया ||
लगाइया पंथ जु भव्य पुनि प्रभु तृतिय सुकल जु पूरियो |
तजि तेरवों गुणथान जोग अजोगपथ पग धारियो ||
पुनि चौदहें चौथे सुकल बल बहत्तर तेरह हती |
इमि घाति वसुविध कर्म पहुंच्यो, समय में पंचम गती |22|
लोकशिखर तनुवात, वलयमहं संठियो |
धर्मद्रव्य बिन गमन न, जिहिं आगे कियो ||
मयन-रहित मूषोदर, अंबर जारिसो |
किमपि हीन निज तनुतैं, भयो प्रभु तारिसो ||
तारिसो पर्जय नित्य अविचल, अर्थपर्जय छनछयी |
निश्चयनयेन,विवहार नय वसु-गुणमयी ||
वस्तुस्वभाव विभावविरहित,सुद्ध परिणति परिणयो |
चिद् रुप परमानंद मंदिर,सिद्ध परमातम भयो |23
तनु-परमाणु दामिनि-वत, सब खिर गए |
रहे शेष नखकेश-रुप, जे परिणए ||
तब हरिप्रमुख चतुरविधि, सुरगण शुभ सच्यो |
मायामयि नखकेश-रहित, जिनतनु रच्यो ||
रचि अगर चंदन प्रमुख परिमल, द्रव्य जिन जयकारियो |
पदपतित अगनिकुमार मुकुटानल, सुविध संस्कारियो ||
निर्वाण कल्याणक सु महिमा, सुनत सब सुख पावहीं |
भणि रुपचन्द सुदेव जिनवर जगत मंगल गावहीं |24|
मैं मतिहीन भगतिवस, भावन भाइया |
मंगल गीतप्रबंध, सु जिनगुण गाइया ||
जो नर सुनहिं बखानहिं सुर धरि गावहीं |
मनवांछित फल सो नर, निहचै पावहीं ||
पावहीं आठों सिद्धि नवनिध, मन प्रतीत जो लावहीं |
भ्रम भाव छूटैं सकल मनके निज स्वरुप लखावहीं ||
पुनि हरहिं पातक टरहिं विघन सु होंहिं मंगल नित नये|
भणि रुपचन्द त्रिलोकपतिभयनदेव चउ-संघहिं जये |25