20. शांतिधारा - वृहद
ओं ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं वं मं हं सं तं पं वंवं
मंमं हंहं संसं तंतं पंपं झंझं
झ्वीं झ्वीं क्ष्वीं क्ष्वीं द्रां द्रां द्रीं द्रीं द्रावय-द्रावय
नमोऽर्हते भगवते श्रीमते ओं ह्रीं क्रों अस्माकं पापं खण्डय खण्डय
जहि-जहि दह-दह पच-पच पाचय पाचय
ओं नमो अर्हन् झं झ्वीं क्ष्वीं हं सं झं वं ह्व: प: ह:
क्षां क्षीं क्षूं क्षें क्षैं क्षों क्षौं क्षं क्ष: क्ष्वीं
ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रें ह्रैं ह्रों ह्रौं ह्रं ह्र:
द्रां द्रीं द्रावय द्रावय नमोऽर्हते भगवते श्रीमते ठ: ठ:
अस्माकं -----------
श्रीरस्तु वृद्धिरस्तु तुष्टिरस्तु पुष्टिरस्तु शान्तिरस्तु कान्तिरस्तु कल्याणमस्तु स्वाहा।
एवं अस्माकं ------------ कार्यसिद्ध्यर्थं सर्वविघ्न-निवारणार्थं
श्रीमद्भगवदर्हत्सर्वज्ञपरमेष्ठि-परमपवित्राय नमो नम:।
अस्माकं ----------------- श्री तीर्थंकरभक्ति- प्रसादात्
सद्धर्म-श्रीबलायुरारोग्यैश्वर्याभिवृद्धिरस्तु, स्वशिष्य-परशिष्यवर्गा: प्रसीदन्तु न: |
ओं वृषभादय: श्रीवर्द्धमानपर्यन्ताश्चतुर्विंशत्यर्हन्तो भगवन्त:
सर्वज्ञा: परममंगल (धारागत तीर्थंकर का नाम) नामधेया:
अस्माकं इहामुत्र च सिद्धिं तन्वन्तु,
सद्धर्म कार्येषु च इहामुत्र च सिद्धिं प्रयच्छन्तु न: |
ओं नमोऽर्हते भगवते श्रीमते श्रीमत्पार्श्वतीर्थंकराय
श्रीमद्रत्नत्रयरूपाय दिव्यतेजोमूर्त्तये प्रभामण्डलमण्डिताय
द्वादशगणसहिताय अनन्तचतुष्टयसहिताय समवसरण- केवलज्ञान-लक्ष्मीशोभिताय
अष्टादश-दोषरहिताय षट्-चत्वारिंशद्-गुणसंयुक्ताय
परम-पवित्राय सम्यग्ज्ञानाय स्वयंभुवे सिद्धाय बुद्धाय परमात्मने
परमसुखाय त्रैलोक्यमहिताय अनंत-संसार-चक्रप्रमर्दनाय
अनन्तज्ञान-दर्शन-वीर्य-सुखास्पदाय त्रैलोक्य वशं कराय
सत्यज्ञानाय सत्यब्रह्मणे उपसर्ग-विनाशनाय
घातिकर्म क्षयं कराय अजराय अभवाय -----------------
नामधेयानां व्याधिं घ्नन्तु।
श्री-जिनाभिषेकपूजन-प्रसादात् ----------------- सेवकानां
सर्वदोष-रोग-शोक-भय-पीड़ा-विनाशनं भवतु |
ओं नमोऽर्हते भगवते प्रक्षीणाशेष-दोष-कल्मषाय दिव्य-तेजोमूर्तये
श्रीशान्तिनाथाय शान्तिकराय सर्व-विघ्न-प्रणाशनाय
सर्वरोगापमृत्यु-विनाशनाय सर्वपरकृत क्षुद्रोपद्रव-विनाशनाय सर्वारिष्ट-शान्ति-कराय
ओं ह्रां ह्रीं ह्रूं ह्रौं ह्र: अ सि आ उ सा नम:
मम सर्वविघ्न-शान्तिं कुरु कुरु तुष्टिं-पुष्टिं कुरु-कुरु स्वाहा।
मम कामं छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि!
रतिकामं छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि!
बलिकामं छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि!
क्रोधं पापं बैरं च छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि!
अग्नि-वायुभयं छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि!
सर्वशत्रु-विघ्नं छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि!
सर्वोपसर्गं छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि!
सर्व- विघ्नं छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि!
सर्व राज्य-भयं छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि!
सर्वचौर-दुष्टभयं छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि!
सर्व-सर्प-वृश्चिक-सिंहादिभयंछिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि!
सर्व ग्रह -भयं छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि!
सर्वदोषं व्याधिं डामरं च छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि!
सर्वपरमंत्रं छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि!
सर्वात्मघातं परघातं च छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि!
सर्व शूलरोगं कुक्षिरोगं अक्षिरोगं शिरोरोगं ज्वररोगं च छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि!
सर्वनरमारिं छिन्धि छिन्धि भिन्धि-भिन्धि!
सर्वगजाश्व-गो-महिष-अज-मारिं छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि!
सर्व शस्य-धान्य-वृक्ष-लता-गुल्म-पत्र-पुष्प-फलमारिं छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि!
सर्वराष्ट्रमारिं छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि!
सर्वक्रूर-वेताल-शाकिनी-डाकिनी-भयानि छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि!
सर्व वेदनीयं छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि!
सर्वमोहनीयं छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि!
सर्वापस्मारिं छिन्धि -छिन्धि भिन्धि भिन्धि!
अस्माकम् अशुभकर्म-जनित-दु:खानि छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि!
दुष्टजन-कृतान् मंत्र-तंत्र-दृष्टि-मुष्टि-छल-छिद्रदोषान् छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि!
सर्वदुष्ट-देव-दानव-वीर-नर-नाहर-सिंह-योगिनी-कृत-दोषान् छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि!
सर्व अष्टकुली-नागजनित-विषभयानि छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि!
सर्वस्थावर-जंगम-वृश्चिक-सर्पादिकृत-दोषान् छिन्धि-छिन्धि भिन्धि-भिन्धि!
सर्वसिंह-अष्टापदादि कृतदोषान् छिन्धि छिन्धिभिन्धि भिन्धि!
परशत्रुकृत-मारणोच्चाटन-विद्वेषण -मोहन-वशीकरणादि दोषान् छिन्धि–छिन्धि भिन्धि-भिन्धि!
ओं ह्रीं अस्मभ्यं चक्र-विक्रम-सत्त्व-तेजो-बल -शौर्य-शान्ती: पूरय पूरय!
सर्वजीवानंदनं जनानंदनं भव्यानंदनंगोकुलानंदनं च कुरु कुरु!
सर्व राजानंदनं कुरु कुरु!
सर्वग्राम-नगर खेडा-कर्वट-मटंब-द्रोणमुख-संवाहनानंदनं कुरु-कुरु!
सर्वानंदनं कुरु-कुरु स्वाहा!
यत्सुखं त्रिषु लोकेषु व्याधि-व्यसन-वर्जितम् |
अभयं क्षेममारोग्यं स्वस्तिरस्तु विधीयते ||
श्रीशान्तिरस्तु ! <तथास्तु!> शिवमस्तु ! <तथास्तु!> जयोस्तु! <तथास्तु!>
नित्यमारोग्यमस्तु! <तथास्तु!> अस्माकं पुष्टिरस्तु ! <तथास्तु!>
समृद्धिरस्तु ! < तथास्तु!>कल्याणमस्तु ! <तथास्तु!> सुखमस्तु ! <तथास्तु!>
अभिवृद्धिरस्तु ! <तथास्तु!> दीर्घायुरस्तु ! <तथास्तु!>
कुलगोत्र धनानि सदा सन्तु ! <तथास्तु!>
सद्धर्म-श्री-बल-आयु:- आरोग्य-ऐश्वर्य-अभिवृद्धिरस्तु |
ओं ह्रीं श्रीं क्लीं ऐं अर्हं अ सि आ उ सा अनाहतविद्यायै णमो अरिहंताणं ह्रौं सर्व शान्तिं कुरु कुरु स्वाहा |
आयुर्वल्ली विलासं सकलसुखफलैर्द्राघयित्वाऽऽश्वनल्पम् |
धीरं वीरं शरीरं निरुपमुप-नयत्वातनोत्वच्छकीर्तिम्।।
सिद्धिं वृद्धिं समृद्धिं प्रथयतु तरणि: स्फूर्यदुच्चै: प्रतापं।
कान्तिं शान्तिं समाधिं वितरतु भवतामुत्तमा शान्तिधारा।।
सम्पूजकानां प्रतिपालकानां, यतीन्द्र-सामान्य-तपोधनानाम्।
देशस्य राष्ट्रस्य पुरस्य राज्ञ:, करोतु शान्तिं भगवान् जिनेन्द्र!!
|| इति वृहत्-शांतिधारा ||