21. श्री शांतिनाथ जिन पूजा

या भव-कानन में चतुरानन, 
पाप-पनानन घेरि हमेरी।

आतम-जानन मानन ठानन,
 बान न होन दर्इ सठ मेरी।।

तामद भानन आपहि हो,
 यह छान न आन न आनन टेरी।

आन गही शरनागत को,
 अब श्रीपतजी पत राखहु मेरी।।

ॐ ह्रीं श्री शांतिनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतरत अवतरत संवौषट् ! (आह्वाननम्)

ॐ ह्रीं श्री शांतिनाथजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठत तिष्ठत ठ: ठ:! (स्थापनम्)

ॐ ह्रीं श्री शांतिनाथजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भवत भवत वषट्! (सन्निधिकरणम्)

(छन्द त्रिभंगी अनुप्रयासक, मात्रा १२ जगणवर्जित )

हिमगिरि-गत-गंगा,धार अभंगा,प्रासुक संगा भरि भृंगा।

जर-जनम-मृतंगा,नाशि अघंगा,पूजि पदंगा मृदु हिंगा।।

श्री शांति-जिनेशं,नुत-शक्रेशं, वृष-चक्रेशं चक्रेशं।

हनि अरि-चक्रेशं,हे गुनधेशं, दयाऽमृतेशं मक्रेशं।।

ॐ ह्रीं श्रीशांतिनाथजिनेन्द्राय जन्म-जरा-मृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ।१।

वर बावन-चंदन,कदली नंदन,घन-आनंदन-सहित घसूं।

भवताप-निकंदन,ऐरा-नंदन, वंदि अमंदन चरन वसूं।।

श्री शांति-जिनेशं,नुत-शक्रेशं, वृष-चक्रेशं चक्रेशं।

हनि अरि-चक्रेशं,हे गुनधेशं, दयाऽमृतेशं मक्रेशं।।

ॐ ह्रीं श्रीशांतिनाथजिनेन्द्राय भवाताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा ।२।

हिमकर करि लज्जत,मलय सुसज्जत, अच्छत जज्जत भरि थारी।

दु:ख-दारिद गज्जत,सदपद-सज्जत, भव-भय-भज्जत अतिभारी।।

श्री शांति-जिनेशं,नुत-शक्रेशं,वृष-चक्रेशं चक्रेशं।

हनि अरि-चक्रेशं,हे गुनधेशं,दयाऽमृतेशं मक्रेशं।।

ॐ ह्रीं श्रीशांतिनाथजिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ।३।

मंदार सरोजं,कदली जोजं,पुंज भरोजं मलय-भरं।

भरि कंचनथारी,तुम-ढिंग धारी,मदन-विदारी धीरधरं।।

श्री शांति-जिनेशं,नुत-शक्रेशं, वृष-चक्रेशं चक्रेशं।

हनि अरि-चक्रेशं, हे गुनधेशं, दयाऽमृतेशं मक्रेशं।।

ॐ ह्रीं श्रीशान्तिनाथजिनेन्द्राय कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ।४।

पकवान नवीने,पावन कीने,षट्ररस भीने सुखदार्इ।

मन-मोदन हारे,छुधा विदारे,आगे धारे गुनगार्इ।।

श्री शांति-जिनेशं,नुत-शक्रेशं,वृष-चक्रेशं चक्रेशं।

हनि अरि-चक्रेशं, हे गुनधेशं, दयाऽमृतेशं मक्रेशं।।

ॐ ह्रीं श्रीशांतिनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा ।५।

तुम ज्ञान प्रकाशे,भ्रम-तम नाशे,ज्ञेय-विकासे सुख-रासे।

दीपक उजियारा,या तें धारा,मोह-निवारा निज भासे।।

श्री शांति-जिनेशं,नुत-शक्रेशं,वृष-चक्रेशं चक्रेशं।

हनि अरि-चक्रेशं,हे गुनधेशं, दयाऽमृतेशं मक्रेशं।।

ॐ ह्रीं श्रीशांतिनाथजिनेन्द्राय मोहांधकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा ।६।

चंदन करपूरं,करि वर-चूरं,पावक भूरं माहि जुरं।

तसु धूम उड़ावे,नाचत जावे,अलि गुंजावे मधुर सुरं।।

श्री शांति-जिनेशं,नुत-शक्रेशं,वृष-चक्रेशं चक्रेशं।

हनि अरि-चक्रेशं, हे गुनधेशं, दयाऽमृतेशं मक्रेशं।।

ॐ ह्रीं श्रीशांतिनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।७।

बादाम खजूरं,दाड़िम पूरं,निंबुक भूरं ले आयो।

ता सों पद जज्जूं,शिवफल सज्जूं,निजरस रज्जन उमगायो।।

श्री शांति-जिनेशं,नुत-शक्रेशं,वृष-चक्रेशं चक्रेशं।

हनि अरि-चक्रेशं,हे गुनधेशं,दयाऽमृतेशं मक्रेशं।।

ॐ ह्रीं श्रीशांतिनाथजिनेन्द्राय मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा ।८।

वसु-द्रव्य सँवारी,तुम-ढिंग धारी,आनंदकारी, दृग-प्यारी।

तुम हो भवतारी,करुना-धारी,या तें थारी शरना री।।

श्री शांति-जिनेशं, नुत-शक्रेशं, वृष-चक्रेशं चक्रेशं।

हनि अरि-चक्रेशं,हे गुनधेशं, दयाऽमृतेशं मक्रेशं।।

ॐ ह्रीं श्रीशांतिनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।९।

पंचकल्याणक-अर्घ्यावली
(छन्द)

असित-सातयँ-भादव जानिये,गरभ-मंगल ता-दिन मानिये।

सचि कियो जननी-पद-चर्चनं,हम करें इत ये पद-अर्चनं।।

ॐ ह्रीं भाद्रपदकृष्ण-सप्तम्यां गर्भमंगल-मंडिताय श्रीशांतिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।१।

जनम जेठ-चतुर्दशि-श्याम है,सकल-इन्द्र सु आगत धाम है।

गजपुरै गज-साजि सबै तबै,गिरि जजे इत मैं जजिहूँ अबै।।

ॐ ह्रीं ज्येष्ठकृष्ण-चतुर्दश्यां जन्ममंगल-मंडिताय श्रीशांतिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।२।

भव-शरीर-सुभोग असार हैं,इमि विचार तबै तप धार हैं।

भ्रमर-चौदसि-जेठ सुहावनी,धरम हेत जजूं गुन पावनी।।

ॐ ह्रीं ज्येष्ठकृष्ण-चतुर्दश्यां तपोमंगल-मंडिताय श्रीशांतिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।३।

शुकल-पौष-दसैं सुखराश है,परम-केवलज्ञान प्रकाश है।

भव-समुद्र-उधारन देव की,हम करें नित मंगल-सेव ही।।

ॐ ह्रीं पौषशुक्ल-दशम्यां केवलज्ञान-मंडिताय श्रीशांतिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।४।

असित-चौदशि-जेठ हने अरी,गिरि-समेद-थकी शिव-तिय वरी।

सकल-इन्द्र जजें तित आइ के,हम जजें इत मस्तक नाइ के।।

ॐ ह्रीं ज्येष्ठकृष्ण-चतुर्दश्यां मोक्षमंगल-मंडिताय श्रीशांतिनाथजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।५।

जयमाला
(छन्द रथोद्धता, चन्द्रवत्स तथा चन्द्रवर्म)

शांति शांतिगुन-मंडिते सदा,जाहि ध्यावत सुपंडिते सदा।

मैं तिन्हें भगति मंडिते सदा,पूजिहूँ कलुष हंडिते सदा।।

मोच्छ-हेत तुम ही दयाल हो,हे जिनेश गुन-रत्नमाल हो।

मैं अबै सुगुन-दाम ही धरूं,ध्यावते तुरत मुक्ति-तिय वरूं।।

(छन्द पद्धरि, मात्रा १५)

जय शांतिनाथ चिद्रूप-राज,भवसागर में अद्भुत-जहाज।

तुम तजि सरवारथ-सिद्ध थान,सरवारथ-जुत गजपुर महान् ।1

तित जनम लियो आनंद-धार,हरि ततछिन आयो राजद्वार।

इन्द्रानी जाय प्रसूति-थान,तुम को कर में ले हरष-मान ।2

हरि-गोद देय सो मोदधार,सिर चमर अमर ढारत अपार ।

गिरिराज जाय तित शिला-पांडु,ता पे थाप्यो अभिषेक माँडु ।3

तित पंचम-उदधि-तनो सु वार,सुर कर-कर करि ल्याये उदार।

तब इन्द्र सहस-कर करि अनंद,तुम सिर धारा ढारी सुमंद।4

अघ घघ घघ धुनि होत घोर,भभ भभ भभ धध धध कलश शोर।

दृम दृम दृम दृम बाजत मृदंग,झन नन नन नन नन नूपुरंग।5

तन नन नन नन नन तनन तान,घन नन नन घंटा करत ध्वान।

ता-थेइ थेइ थेइ थेइ थेइ सुचाल,जुत नाचत गावत तुमहिं भाल।6

चट चट चट अटपट नटत नाट झट झट झट हट नट थट विराट।

इमि नाचत राचत भगति रंग,सुर लेत जहाँ आनंद-संग।7

इत्यादि अतुल-मंगल सुठाठ,तित बन्यो जहाँ सुर-गिरि विराट।

पुनि करि नियोग पितु-सदन आय,हरि सौंप्यो तुम तित वृद्धि थाय।8

पुनि राजमाँहिं लहि चक्ररत्न,भोग्यो छह-खंड करि धरम-जत्न ।

पुनि तप धरि केवल-रिद्धि पाय,भवि-जीवनि को शिवमग बताय।9

शिवपुर पहुँचे तुम हे जिनेश,गुण-मंडित अतुल अनंत-भेष ।

मैं ध्यावत हूं नित शीश-नाय,हमरी भव-बाधा हर जिनाय।10

सेवक अपनो निज जान-जान,करुणा करि भौ-भय भान-भान।

यह विघन-मूल-तरु खंड-खंड,चितचिंतित आनंद मंड-मंड।11

श्री शांति महंता,शिवतिय-कंता, सुगुन-अनंता भगवंता।

भव-भ्रमन हनंता,सौख्य अनंता, दातारं तारनवंता।।

ॐ ह्रीं श्रीशांतिनाथजिनेन्द्राय जयमाला-पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।

(छन्द रूपक सवैया मात्रा 31)

शांतिनाथ-जिन के पद-पंकज,जो भवि पूजें मन-वच-काय।

जनम-जनम के पातक ता के,तत-छिन तजि के जांय पलाय।।

मनवाँछित सुख पावे सो नर,बाँचे भगति-भाव अति लाय।

ता तें ‘वृन्दावन’ नित वंदे,जा तें शिवपुर-राज कराय।।

।। इत्याशीर्वाद: परिपुष्पांजलिं क्षिपेत् ।।