24.अर्घावली

​विध्यमान बीस तीर्थंकर अर्घ

जल फल आठों द्रव्य, अरघ कर प्रीति धरी है,
गणधर इन्द्रनहू तैं, थुति पूरी न करी है ।

द्यानत सेवक जानके (हो), जगतैं लेहु निकार,
सीमंधर जिन आदि दे, बीस विदेह मँझार ।

श्री जिनराज हो, भव तारण तरण जहाज ।।

ॐ ह्रीं विद्यमानविंशतितीर्थंकरेभ्यः अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।1।

कृतिम-अकृतिम चैत्यालय अर्घ

कृत्याकृत्रिम-चारु-चैत्य-निलयान् नित्यं त्रिलोकी-गतान्,
वंदे भावन-व्यंतर-द्युतिवरान् स्वर्गामरावासगान्।
सद्गंधाक्षत-पुष्प-दाम-चरुकैः सद्दीपधूपैः फलैर,
नीराद्यैश्च यजे प्रणम्य शिरसा दुष्कर्मणां शांतये।।

ॐ ह्रीं त्रिलोक सम्बन्धि कृत्रिमाकृत्रिम-चैत्यालयेभ्यः अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।2।

सिद्ध परमेष्ठी अर्घ

गन्धाढ्यं सुपयो मधुव्रत-गणैः संगं वरं चन्दनं, 
पुष्पौघं विमलं सदक्षत-चयं रम्यं चरुं दीपकम्।
धूपं गन्धयुतं ददामि विविधं श्रेष्ठं फलं लब्धये, 
सिद्धानां युगपत्क्रमाय विमलं सेनोत्तरं वाञ्छितम्।।

ॐ ह्रीं श्रीसिद्धचक्राधिपतये सिद्धपरमेष्ठिने अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।3।

तीस चौबीसी का अर्घ

द्रव्य आठो, जू लीना हैं, अर्घ कर में नवीना हैं ।

पुजतां पाप छीना हैं, भानुमल जोड़ किना हैं ॥

दीप अढ़ाई सरस राजै, क्षेत्र दस ताँ विषै छाजै ।

सातशत बीस जिनराजे, पुजतां पाप सब भाजै ॥

ॐह्रींपञ्चभरत-पंचैरावत-सम्बन्धी-दशक्षेत्रान्तर्गत-भुत-भविष्यत्-वर्तमान-सम्बन्धी-तीस-चौबीसी के सात सौ बीस जिनेंद्रेभ्यो-अर्घय्म निर्वपामिति स्वाहा ।4।

श्री आदिनाथ जी अर्घ

शुचि निर्मल नीरं गंध सुअक्षत,पुष्प चरु ले मन हर्षाय,

दीप धुप फल अर्घ सुलेकर,नाचत ताल मृदंग बजाय।

श्री आदिनाथ के चरण कमल पर बलि बलि जाऊ मन वच काय,

हे करुणानिधि भव दुःख मेटो, यातै मैं पूजों प्रभु पाय॥

ॐ ह्रीं श्री आदिनाथजिनेन्द्राय अनर्घपदप्राप्ताये अर्घं निर्वपामिति स्वाहा ।5।

श्री अजितनाथ जी अर्घ

जलफल सब सज्जे,बाजत बज्जै,गुनगनरज्जे मनमज्जे।

तुअ पदजुगमज्जै सज्जन जज्जै,ते भवभज्जै निजकज्जै।। 

श्री अजित जिनेशं नुतनाकेशं, चक्रधरेशं खग्गेशं ।

मनवांछितदाता त्रिभुवनत्राता, पूजौं ख्याता जग्गेशं ।। 

ॐ ह्रीं श्रीअजितनाथ जिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।6।

श्री सम्भवनाथ जी अर्घ

जल चंदन तंदुल प्रसून चरु, दीप धूप फल अर्घ किया ।

तुमको अरपौं भाव भगतिधर, जै जै जै शिव रमनि पिया ।।

संभव जिन के चरन चरचतें, सब आकुलता मिट जावे ।

निज निधि ज्ञान दरश सुख वीरज, निराबाध भविजन पावे ।।

ॐ ह्रीं श्रीसंभवनाथ जिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।7।

श्री अभिनन्दन नाथ जी अर्घ

अष्ट द्रव्य संवारि सुन्दर सुजस गाय रसाल ही।

नचत रजत जजौं चरन जुग, नाय नाय सुभाल ही।। 

कलुषताप निकंद श्रीअभिनन्द, अनुपम चन्द हैं।

पद वंद वृन्द जजें प्रभू, भवदंद फंद निकंद हैं।।

ॐ ह्रीं श्रीअभिनन्दन जिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।8

श्री सुमतिनाथ जी अर्घ

जल चंदन तंदुल प्रसून चरु दीप धूप फल सकल मिलायl

नाचि राचि शिरनाय समरचौं, जय जय जय 2 जिनराय।। 

हरिहर वंदित पापनिकंदित, सुमतिनाथ त्रिभुवनके राय।

तुम पद पद्म सद्म शिवदायक, जजत मुदितमन उदित सुभाय।।

ॐ ह्रीं श्रीसुमतिनाथ जिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।9।

श्री पद्मप्रभु जी अर्घ

जल फल आदि मिलाय गाय गुन,भगति भाव उमगाय।

जजौं तुमहिं शिवतिय वर जिनवर,आवागमन मिटाय । 

मन वचन तन त्रयधार देत ही,जनम-जरा-मृतु जाय।

पूजौं भाव सों,श्री पदमनाथ पद-सार,पूजौं भाव सों।।

ॐ ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये-अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।10।