28.श्री संभवनाथ जी जिन पूजा

जय संभव जिनचन्द्र सदा हरिगनचकोरनुत |

जयसेना जसु मातु जैति राजा जितारिसुत ||

तजि ग्रीवक लिय जन्म नगर श्रावस्ती आई |

सो भव भंजन हेत भगत पर होहु सहाई |1|

ॐ ह्रीं श्रीसंभवनाथ जिनेन्द्र!अत्र अवतर अवतर संवौषट्|

ॐ ह्रीं श्रीसंभवनाथ जिनेन्द्र!अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः|

ॐ ह्रीं श्रीसंभवनाथ जिनेन्द्र!अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् |

अष्टक
छन्द चौबोला तथा अनेक रागों में गाया जाता है |

मुनि मन सम उज्ज्वल जल लेकर,कनक कटोरी में धार |

जनम जरा मृतु नाश करन कों,तुम पदतर ढारों धारा ||

संभव जिन के चरन चरचतें,सब आकुलता मिट जावे |

निज निधि ज्ञान दरश सुख वीरज, निराबाध भविजन पावे ||

ॐ ह्रीं श्रीसंभवनाथ जिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं नि0स्वाहा |1

तपत दाह को कन्दन चंदन मलयागिरि को घसि लायो|

जगवंदन भौफंदन खंदन समरथ लखि शरनै आयो||

संभव जिन के चरन चरचतें,सब आकुलता मिट जावे|

निज निधि ज्ञान दरश सुख वीरज,निराबाध भविजन पावे||

ॐ ह्रीं श्रीसंभवनाथ जिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनं नि0स्वाहा |2|

देवजीर सुखदास कमलवासित,सित सुन्दर अनियारे|

पुंज धरौं जिन चरनन आगे,लहौं अखयपद कों प्यारे ||

ॐ ह्रीं श्रीसंभवनाथ जिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् नि0स्वाहा |3|

कमल केतकी बेल चमेली,चंपा जूही सुमन वरा|

ता सों पूजत श्रीपति तुम पद,मदन बान विध्वंस करा ||

ॐ ह्रीं श्रीसंभवनाथ जिनेन्द्राय ॐ ह्रीं श्रीअजितनाथ जिनेन्द्राय

कामबाण विध्वंसनाय पुष्पं नि0स्वाहा |4

घेवर बावर मोदन मोदक, खाजा ताजा सरस बना |

ता सों पद श्रीपति को पूजत, क्षुधा रोग ततकाल हना ||

ॐ ह्रीं श्रीसंभवनाथ जिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नेवैद्यं नि0स्वाहा |5

घटपट परकाशक भ्रमतम नाशक, तुमढिग ऐसो दीप धरौं |

केवल जोत उदोत होहु मोहि, यही सदा अरदास करौं ||

ॐ ह्रीं श्रीसंभवनाथ जिनेन्द्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीपं नि0स्वाहा |

अगर तगर कृष्नागर श्रीखंडादिक चूर हुतासन में |

खेवत हौं तुम चरन जलज ढिग,कर्म छार जरिह्रै छन में ||

ॐ ह्रीं श्रीसंभवनाथ जिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं नि0स्वाहा |

श्रीफल लौंग बदाम छुहारा, एला पिस्ता दाख रमैं |

लै फल प्रासुक पूजौं तुम पद देहु अखयपद नाथ हमैं ||सं0

ॐ ह्रीं श्रीसंभवनाथ जिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्तये फलं नि0स्वाहा |8|

जल चंदन तंदुल प्रसून चरु,दीप धूप फल अर्घ किया|

तुमको अरपौं भाव भगतिधरजै जै जै शिव रमनि पियाp||

संभव जिन के चरन चरचतें, सब आकुलता मिट जावे |

निज निधि ज्ञान दरश सुख वीरज, निराबाध भविजन पावे l

ॐ ह्रीं श्रीसंभवनाथ जिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं नि0स्वाहा |9|

  पंच कल्याणक अर्घ्यावली
माता गर्भ विषै जिन आय, फागुन सित आठैं सुखदाय |

सेयो सुर-तिय छप्पन वृन्द, नाना विधि मैं जजौं जिनन्द ||

ॐ ह्रीं फाल्गुन शुक्लाष्टम्यां गर्भकल्याणक प्राप्ताय श्रीसंभव0 अर्घ्यं नि0 |1|

कार्तिक सित पूनम तिथि जान, तीन ज्ञान जुत जनम प्रमाण |

धरि गिरि राज जजे सुरराज, तिन्हें जजौं मैं निज हित काज ||

ॐ ह्रीं कार्तिक शुक्ला पूर्णिमायां जन्मकल्याणक प्राप्ताय श्रीसंभव0 अर्घ्यं नि0 |2l

मंगसिर सित पून्यों तप धार, सकल संग तजि जिन अनगार |
ध्यानादिक बल जीते कर्म, चचौं चरन देहु शिवशर्म |

ॐ ह्रीं मार्गशीर्षपूर्णिमायां तपकल्याणक प्राप्ताय श्रीसंभव0 अर्घ्यं नि0 |3|

कार्तिक कलि तिथि चौथ महान घाति घात लिय केवल ज्ञान |

समवशरनमहँ  तिष्ठे  देव, तुरिय चिह्न चचौं वसुभेव||

ॐ ह्रीं कार्तिककृष्णाचतुर्थी ज्ञानकल्याणक प्राप्ताय श्रीसंभव0 अर्घ्यं नि0 |4|

चैतशुक्ल तिथि षष्ठी चोख,गिरिसम्मेदतें लीनों मोख|

चार शतक धनु अवगाहना,जजौं तास पद थुति कर घना||

ॐ ह्रीं चैत्र शुक्ला षष्ठीदिने मोक्षकल्याणक प्राप्ताय श्रीसंभव0 अर्घ्यं नि0 |5|
                             
 जयमाला
दोहाः- श्री संभव के गुन अगम, कहि न सकत सुरराज |

मैं वश भक्ति सु धीठ ह्वै, विनवौं निजहित काज |1|
           
जिनेश महेश गुणेश गरिष्ट, सुरासुर सेवित इष्ट वरिष्ट |

धरे वृषचक्र करे अघ चूर, अतत्व छपातम मर्द्दन सूर |2|

सुतत्त्व प्रकाशन शासन शुद्ध, विवेक विराग बढ़ावन बुद्ध |

दया तरु तर्पन मेघ महान, कुनय गिरि गंजन वज्र समान |3|

सुगर्भरु जन्म महोत्सव मांहि, जगज्जन आनन्दकन्द लहाहिं |

सुपूरब साठहि लच्छ जु आय, कुमार चतुर्थम अंश रमाय |4|

चवालिस लाख सुपूरब एव, निकंटक राज कियो जिनदेव |

तजे कछु कारन पाय सु राज, धरे व्रत संजम आतम काज |5|

सुरेन्द्र नरेन्द्र दियो पयदान, धरे वन में निज आतम ध्यान |

किया चव घातिय कर्म विनाश, लयो तब केवलज्ञान प्रकाश |6|

भई समवसृति ठाट अपार, खिरै धुनि झेलहिं श्री गणधार |

भने षट्-द्रव्य तने विसतार, चहूँ अनुयोग अनेक प्रकार |7|

कहें पुनि त्रेपन भाव विशेष, उभै विधि हैं उपशम्य जुभेष |

सुसम्यकचारित्र भेद-स्वरुप, भये इमि छायक नौ सु अनूप |8|

दृगौ बुधि सम्यक चारितदान, सुलाभ रु भोगुपभोगप्रमाण |

सुवीरज संजुत ए नव जान, अठार छयोपशम इम प्रमान |9|

मति श्रुत औधि उभै विधि जान, मनःपरजै चखु और प्रमान |

अचक्खु तथा विधि दान रु लाभ, सुभोगुपभोग रु वीरजसाभ |10|

व्रताव्रत संजम और सु धार, धरे गुन सम्यक चारित भार |

भए वसु एक समापत येह, इक्कीस उदीक सुनो अब जेह |11|

चहुँ गति चारि कषाय तिवेद, छह लेश्या और अज्ञान विभेद |

असंजम भाव लखो इस माहिं, असिद्धित और अतत्त कहाहिं |12|

भये इकबीस सुनो अब और, सुभेदत्रियं पारिनामिक ठौर |

सुजीवित भव्यत और अभव्व, तरेपन एम भने जिन सव्व |13|

तिन्हो मँह केतक त्यागन जोग, कितेक गहे तें मिटे भव रोग |

कह्यो इन आदि लह्यो फिर मोख, अनन्त गुनातम मंडित चोख |14|

जजौं तुम पाय जपौं गुनसार, प्रभु हमको भवसागर तार |

गही शरनागत दीनदयाल, विलम्ब करो मति हे गुनमाल |15|

घताः- जै जै भव भंजन जन मन रंजन, दया धुरंधर कुमतिहरा |

वृन्दावन वंदत मन आनन्दित, दीजै आतम ज्ञान वरा ||

ॐ ह्रीं श्रीसंभवनाथ जिनेन्द्राय महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा |16|
         
जो बांचे यह पाठ सरस संभव तनो |

सो पावे धनधान्य सरस सम्पति घनो ||

सकल पाप छय जाय सुजस जग में बढ़े |

पूजत सुर पद होय अनुक्रम शिव चढ़े |17|

 इत्याशीर्वादः (पुष्पांजलिं क्षिपेत्)