29.श्री अभिनन्दन नाथ जी जिन पूजा 

छन्द अभिनन्दन   आनन्दकंद,    सिद्धारथनन्दन |
संवर पिता दिनन्द चन्द, जिहिं आवत वन्दन ||
नगर अयोध्या जनम इन्द, नागिंद जु ध्यावें |
तिन्हें जजन के हेत थापि, हम मंगल गावें |1|

ॐ ह्रीं श्रीअभिनन्दन जिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् |

ॐ ह्रीं श्रीअभिनन्दन जिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः |

ॐ ह्रीं श्रीअभिनन्दन जिनेन्द्र ! अत्र मम सभिहितो भव भव वषट् |
 
छन्द गीता, हरिगीता तथा रुपमाला
पदमद्रहगत गंगचंग, अंभग-धार सु धार है |
कनकमणि नगजड़ित झारी, द्वार धार निकार है ||
कलुषताप निकंद श्रीअभिनन्द, अनुपम चन्द हैं |
पद वंद वृन्द जजें प्रभू, भवदंद फंद निकंद हैं ||

ॐ ह्रीं श्रीअभिनन्दन जिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं नि0स्वाहा |1|
 

शीतल चन्दन कदलि नन्दन,जल सु संग घसाय के |
होय सुगंध दशों दिशा में,भ्रमें मधुकर आय के ||क0

ॐ ह्रीं श्रीअभिनन्दन जिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनं नि0स्वाहा |2|
 
हीर हिम शशि फेन मुक्ता सरिस तंदुल सेत हैं |
तास को ढिग पुञ्ज धारौं अक्षयपद के हेत हैं ||क0

ॐ ह्रीं श्रीअभिनन्दन जिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् नि0स्वाहा |3|
 
समर सुभट निघटन कारन सुमन सु मन समान |
सुरभि तें जा पे करें झंकार मधुकर आन हैं ||क0

ॐ ह्रीं श्रीअभिनन्दन जिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं नि0स्वाहा |4|
 
सरस ताजे नव्य गव्य मनोज्ञ चितहर लेय जी |
छुधाछेदन छिमा छितिपति के चरन चरचेय जी ||क0

ॐ ह्रीं श्रीअभिनन्दन जिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नेवैद्यं नि0स्वाहा |5|
 
अतत तम-मर्दन किरनवर, बोधभानु-विकाश है |
तुम चरनढिग दीपक धरौं, मो कों स्वपर प्रकाश है |क0

ॐ ह्रीं श्रीअभिनन्दन जिनेन्द्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीपं नि0स्वाहा |6|
 
भुर अगर कपूर चुर सुगंध, अगिनि जराय है |
सब करमकाष्ठ सु काटने मिस, धूम धूम उड़ाय है |क0

ॐ ह्रीं श्रीअभिनन्दन जिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं नि0स्वाहा |7|
 
आम निंबु सदा फलादिक, पक्व पावन आन जी |
मोक्षफल के हेत पूजौं, जोरि के जुग पान जी ||क0

ॐ ह्रीं श्रीअभिनन्दन जिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्तये फलं नि0स्वाहा |8|
 

अष्ट द्रव्य संवारि सुन्दर सुजस गाय रसाल ही |
नचत रजत जजौं चरन जुग, नाय नाय सुभाल ही ||क0

ॐ ह्रीं श्रीअभिनन्दन जिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं नि0स्वाहा |9|
 
 पंच कल्याणक अर्घ्यावली
शुकल छट्ट वैशाख विषै तजि, आये श्री जिनदेव |
सिद्धारथा माता के उर में, करे सची शुचि सेव ||
रतन वृष्टि आदिक वर मंगल, होत अनेक प्रकार |
ऐसे गुननिधि को मैं पूजौं, ध्यावौं बारम्बार ||

ॐ ह्री वैशाखशुक्ला षष्ठीदिने गर्भमंगलप्राप्ताय श्रीअभि0 अर्घ्यं नि0 |1|
 
माघ शुकल तिथि द्वादशि के दिन, तीन लोक हितकार |
अभिनन्दन आनन्दकंद तुम, लिनो जग अवतार ||
एक महूरत नरकमांहि हू, पायो सब जिय चैन |
कनकवरन कपि-चिह्न-धरन पद जजौं तुम्हें दिन रैन ||

ॐ ह्रीं माघशुक्ला द्वादश्यां जन्ममंगलप्राप्ताय श्रीअभि0 अर्घ्यं नि0 |2|
 
साढ़े छत्तिस लाख सुपूरब, राज भोग वर भोग |
कछु कारन लखि माघ शुकल,द्वादशि को धार् यो जोग||
षष्टम नियम समापत करि, लिय इंद्रदत्त घर छीर|
जय धुनि पुष्प रतन गंधोदक, वृष्टि सुगंध समीर ||

ॐ ह्रीं माघशुक्ला द्वादश्यां तपोमंगलप्राप्ताय श्रीअभि0 अर्घ्यं नि0 |3|
 
पौष शुक्ल चौदशि को घाते, घाति करम दुखदाय |
उपजायो वर बोध जास को, केवल नाम कहाय ||
समवसन लहि बोधि धरम कहि,भव्य जीव सुखकन्द|
मो कों भवसागर तें तारो,जय जय जय अभिनन्द ||

ॐ ह्रीं पौषशुक्ला चतुर्दश्यां केवलज्ञानप्राप्ताय श्रीअभि0 अर्घ्यं नि0 |4|
 
जोग निरोग अघातिघाति लहि, गिर समेद तें मोख |
मास सकल सुखरास कहे, बैशाख शुकल छठ चोख ||
चतुरनिकाय आय तित कीनी, भगति भाव उमगाय |
हम पूजत इत अरघ लेय जिमि, विघन सघन मिट जाय ||

ॐ ह्रीं वैशाखशुक्ला षष्ठीदिने मोक्षमंगलप्राप्ताय श्रीअभि0 अर्घ्यं नि0 |5|
 
  जयमाला
दोहाः- तुंग सु तन धनु तीन सौ, औ पचास सुख धाम |
कनक वरन अवलौकि के, पुनि पुनि करुं प्रणाम |1|
         
सच्चिदानन्द सद्ज्ञान सद्दर्शनी, सत्स्वरुपा लई सत्सुधा सर्सनी |
सर्वाआनन्दाकंदा महादेवा, जास पादाब्ज सेवैं सबै देवता |2|

गर्भ औ जन्म निःकर्म कल्यान में, सत्व को शर्म पूरे सबै थान में |
वंश इक्ष्वाकु में आप ऐसे भये, ज्यों निशा शर्द में इन्दु स्वेच्छै ठये |3|
 
होत वैराग लौकांतुर बोधियो, फेरि शिविकासु चढ़ि गहन निज सोधियो |
घाति चौघातिया ज्ञान केवल भयो, समवसरनादि धनदेव तब निरमयो |4|

एक है इन्द्र नीली शिला रत्न की, गोल साढ़ेदशै जोजने रत्न की |
चारदिश पैड़िका बीस हज्जार है, रत्न के चूर का कोट निरधार है |5|

कोट चहुंओर चहुंद्वार तोरन खँचे, तास आगे चहूं मानथंभा रचे |
मान मानी तजैं जास ढिग जाय के, नम्रता धार सेवें तुम्हें आय के |6|
 
बिंब सिंहासनों पै जहां सोहहीं, इन्द्रनागेन्द्र केते मने मोहहीं |
वापिका वारिसों जत्र सोहे भरी, जास में न्हात ही पाप जावै टरी |7|

तास आगे भरी खातिका वारि सों, हंस सूआदि पंखी रमैं प्यार सों |
पुष्प की वाटिका बाग वृक्षें जहां, फूल औ श्री फले सर्व ही हैं तहां |8|

कोट सौवर्ण का तास आगे खड़ा, चार दर्वाज चौ ओर रत्नों जड़ा |
चार उद्यान चारों दिशा में गना, है धुजापंक्ति और नाट्यशाला बना |9|

तासु आगें त्रिती कोट रुपामयी, तूप नौ जास चारों दिशा में ठयी |
धाम सिद्धान्त धारीनके हैं जहां, औ सभाभूमि है भव्य तिष्ठें तहां |10|

तास आगे रची गन्धकूटी महा, तीन है कट्टिनी चारु शोभा लहा |
एक पै तौ निधैं ही धरी ख्यात हैं, भव्य प्रानी तहां लो सबै जात हैं |11|

दूसरी पीठ पै चक्रधारी गमै, तीसरे प्रातिहारज लशै भाग में |
तास पै वेदिका चार थंभान की, है बनी सर्व कल्यान के खान की |12|

तासु पै हैं सुसिंघासनं भासनं, जासु पै पद्म प्राफुल्ल है आसनं |
तासु पै अन्तरीक्षं विराजै सही, तीन छत्रे फिरें शीस रत्ने यही |13|

वृक्ष शोकापहारी अशोकं लसै, दुन्दुभी नाद औ पुष्प खंते खसै |
देह की ज्योतिसों मण्डलाकार है, सात सौ भव्य ता में लखेंसार है |14|

दिव्य वानी खिरे सर्व शंका हरे, श्री गनाधीश झेलें सु शक्ति धरे |
धर्मचक्री तुही कर्मचक्री हने, सर्वशक्री नमें मोद धारे घने |15|

भव्य को बोधि सम्मेदतें शिव गये, तत्र इन्द्रादि पूजै सु भक्तिमये |
हे कृपासिंधु मो पै कृपा धारिये, घोर संसार सों शीघ्र मो तारिये |16|

छन्दः- जय जय अभिनन्दा आनंदकंदा, भव समुन्द्र वर पोत इवा |
भ्रम तम शतखंडा, भानुप्रचंडा, तारि तारि जग रैन दिवा |17|

ॐ ह्रीं श्रीअभिनन्दन जिनेन्द्राय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा |
 
श्रीअभिनन्दन पाप निकन्दन तिन पद जो भवि जजै सु धहर |
ता के पुन्य भानु वर उग्गे दुरित तिमिर फाटै दुखकार ||
पुत्र मित्र धन धान्य कमल यह विकसै सुखद जगतहित प्यार |
कछुक काल में सो शिव पावै, पढ़ै सुने जिन जजै निहार |18|
इत्याशीर्वादः (पुष्पांजलिं क्षिपेत्)