30.श्री सुमतिनाथ जी जिन पूजा
संजम रतन विभूषन भूषित,
दूषन वर्जित श्री जिनचन्द |
सुमति रमा रंजन भवभंजन,
संजययंत तजि मेरु नरिंद ||
मातु मंगला सकल मंगला,
नगर विनीता जये अमंद |
सो प्रभु दया सुधा रस गर्भित ,
आय तिष्ठ इत हरो दुःख दंद |1|
ॐ ह्रीं श्रीसुमतिनाथ जिनेन्द्र!अत्र अवतर अवतर संवौषट्
ॐ ह्रीं श्रीसुमतिनाथ जिनेन्द्र!अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः |
ॐ ह्रीं श्रीसुमतिनाथ जिनेन्द्र!अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् |
पंचम उदधितनों सम उजज्वल,
जल लीनों वरगंध मिलाय |
कनक कटोरी माहिं धारि करि,
धार देहु सुचि मन वच काय ||
हरिहर वंदित पापनिकंदित,
सुमतिनाथ त्रिभुवनके राय |
तुम पद पद्म सद्म शिवदायक,
जजत मुदितमन उदित सुभाय ||
ॐ ह्रीं श्रीसुमतिनाथ जिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं नि0स्वाहा |1|
मलयागर घनसार घसौं वर,
केशर अर करपूर मिलाय |
भवतपहरन चरन पर वारौं,
जनम जरा मृतु ताप पलाय ||हरि0
ॐ ह्रीं श्रीसुमतिनाथ जिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनं नि0स्वाहा |2|
शशिसम उज्ज्वल सहित गंधतल,
दोनों अनी शुद्ध सुखदास |
सौ लै अखय संपदा कारन,
पुञ्ज धरौं तुम चरनन पास |
हरिहर वंदित पापनिकंदित,
सुमतिनाथ त्रिभुवनके राय |
तुम पद पद्म सद्म शिवदायक,
जजत मुदितमन उदित सुभाय ||
ॐ ह्रीं श्रीसुमतिनाथ जिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् नि0स्वाहा |3|
कमल केतकी बेल चमेली,
करना अरु गुलाब महकाय |
सो ले समरशूल छयकारन,
जजौं चरन अति प्रीति लगाय ||हरि0
ॐ ह्रीं श्रीसुमतिनाथ जिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं नि0स्वाहा |4|
नव्य गव्य पकवान बनाऊँ,
सुरस देखि दृग मन ललचाय |
सौ लै छुधारोग,
धरौं चरण ढिग मन हरषाय ||हरि0
ॐ ह्रीं श्रीसुमतिनाथ जिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नेवैद्यं नि0स्वाहा |5|
रतन जड़ित अथवा घृतपूरित,
वा कपूरमय जोति जगाय |
दीप धरौं तुम चरनन आगे
जातें केवलज्ञान लहाय ||हरि0
ॐ ह्रीं श्रीसुमतिनाथ जिनेन्द्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीपं नि0स्वाहा |6|
अगर तगर कृष्णागरु चंदन,
चूरि अगनि में देत जराय |
अष्टकरम ये दुष्ट जरतु हैं,
धूम धूम यह तासु उड़ाय ||हरि0
ॐ ह्रीं श्रीसुमतिनाथ जिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं नि0स्वाहा |7|
श्रीफल मातुलिंग वर दाड़िम,
आम निंबु फल प्रासुक लाय |
मोक्ष महाफल चाखन कारन,
पूजत हौं तुमरे जुग पाय ||हरि0
ॐ ह्रीं श्रीसुमतिनाथ जिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्तये फलं नि0स्वाहा |8|
जल चंदन तंदुल प्रसून चरु दीप
धूप फल सकल मिलाय |
नाचि राचि शिरनाय समरचौं,
जय जय जय 2 जिनराय ||हरि0
ॐ ह्रीं श्रीसुमतिनाथ जिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं नि0स्वाहा |9|
पंच कल्याणक अर्घ्यावली
संजयंत तजि गरभ पधारे,
सावनसेत दुतिय सुखकारे |
रहे अलिप्त मुकुर जिमि छाया,
जजौं चरन जय 2 जिनराया ||
ॐ ह्रीं श्रावणशुक्ला द्वितीयादिने गर्भमंगलप्राप्ताय श्रीसुमतिनाथ
जिनेन्द्राय अर्घ्यं नि0स्वाहा |1|
चैत सुकल ग्यारस कहँ जानो,
जनमे सुमति त्रयज्ञानों |
मानों धर्यो धरम अवतारा,
जजौं चरनजुग अष्ट प्रकासा ||
ॐ ह्रीं चैत्रशुक्लैकादश्यां जन्ममंगलप्राप्ताय श्रीसुमति0 अर्घ्यं नि0स्वाहा |2|
बैशाख सुकल नौमि भाखा,
ता दिन तप धरि निज रस चाखा |
पारन पद्म सद्म पय कीनों,
जजत चरन हम समता भीनों ||
ॐ ह्रीं वैशाखशुक्ला नवम्यां तपोमंगलप्राप्ताय श्रीसुमति0 अर्घ्यं नि0स्वाहा |3|
सुकल चैत एकादश हाने, घाति सकल जे जुगपति जाने |
समवसरनमँह कहि वृष सारं, जजहुं अनंत चतुष्टयधारं ||
ॐ ह्रीं चैत्रशुक्लैकादश्यां ज्ञान कल्याणकप्राप्ताय श्रीसुमति0 अर्घ्यं नि0स्वाहा |4|
चैत सुकल ग्यारस निरवानं,
गिरि समेद तें त्रिभुवन मानं |
गुन अनन्त निज निरमल धारी,
जजौं देव सुधि लेहु हमारी ||
ॐ ह्रीं चैत्रशुक्लैकादश्यां मोक्षमंगलप्राप्ताय श्रीसुमति0 अर्घ्यं नि0स्वाहा |5|
जयमाला
दोहाः सुमति तीन सौ छत्तीसौं,सुमति भेद दरसाय|
सुमति देहु विनती करौं,सु मति विलम्ब कराय |1
दयाबेलि तहँ सुगुननिधि,भविक मोद-गण-चन्द|
सुमतिसतीपति सुमति कों,ध्यावौं धरि आनन्द |2
पचं परावरतन हरन,पंच सुमति सिर देन |
पंच लब्धि दातार के, गुन गाऊँ दिन रैन |3|
पिता मेघराजा सबै सिद्ध काजा,
जपें नाम ता को सबै दुःखभाजा |
महासुर इक्ष्वाकुवंशी विराजे,
गुणग्राम जाकौ सबै ठौर छाजै |4|
तिन्हों के महापुण्य सों आप जाये,
तिहुँलोक में जीव आनन्द पाये |
सुनासीर ताही धरी मेरु धायो,
क्रिया जन्म की सर्व कीनी यथा यों |5|
बहुरि तातकों सौंपि संगीत कीनों,
नमें हाथ जोरी भलीभक्ति भीनों |
बिताई दशै लाख ही पूर्व बालै,
प्रजा उन्तीस ही पूर्व पालै |6|
कछु हेतु तें भावना बारा भाये,
तहाँ ब्रह्मलोकान्त देव आये |
गये बोधि ताही समै इन्द्र आयो,
धरे पालकी में सु उद्यान ल्यायो |7|
नमः सिद्ध कहि केशलोंचे सबै ही,
धर्यो ध्यान शुद्धं जु घाती हने ही |
लह्यो केवलं औ समोसर्न साजं,
गणाधीश जु एक सौ सोल राजं |8|
खिरै शब्द ता में छहौं द्रव्य धारे,
गुनौपर्ज उत्पाद व्यय ध्रौव्य सारे |
तथा कर्म आठों तनी थिति गाजं,
मिले जासु के नाश तें मोच्छराजं |9|
धरें मोहिनी सत्तरं कोड़कोड़ी,
सरित्पत्प्रमाणं थिति दीर्घ जोड़ी |
अवर्ज्ञान दृग्वेदिनी अन्तरायं,
धरें तीस कोड़ाकुड़ि सिन्धुकायं |10|
तथा नाम गोतं कुड़ाकोड़ि बीसं,
समुद्र प्रमाणं धरें सत्तईसं |
सु तैतीस अब्धि धरें आयु अब्धिं,
कहें सर्व कर्मों तनी वृद्धलब्धिं |11|
जघन्यं प्रकारे धरे भेद ये ही,
मुहूर्तं वसू नामं-गोतं गने ही |
तथा ज्ञान दृग्मोह प्रत्यूह आयं,
सुअन्तर्मुहूर्त्तं धरें थित्ति गायं |12|
तथा वेदनी बारहें ही मुहुर्तं,
धरैं थित्ति ऐसे भन्यो न्यायजुत्तं |
इन्हें आदि तत्वार्थ भाख्यो अशेसा,
लह्यो फेरि निर्वाण मांहीं प्रवेसा |13|
अनन्तं महन्तं सुरंतं सुतंतं,
अमन्दं अफन्दं अनन्तं अभन्तं |
अलक्षं विलक्षं सुलक्षं सुदक्षं,
अनक्षं अवक्षं अभक्षं अतक्षं |14|
अवर्णं सुवर्णं अमर्णं अकर्णं,
अभर्णं अतर्णं अशर्णं सुशर्णं |
अनेकं सदेकं चिदेकं विवेकं,
अखण्डं सुमण्डं प्रचण्डं सदेकं |15|
सुपर्मं सुधर्मं सुशर्मं अकर्मं,
अनन्तं गुनाराम जयवन्त धर्मं |
नमें दास वृन्दावनं शर्न आई,
सबै दुःख तें मोहि लीजे छुड़ाई |16|
घत्ता-तुम सुगुन अनन्ता घ्यावत सन्ता,
भ्रमतम भंजन मार्तंडा |
सतमत करचंडा भवि कज मंडा,
कुमति-कुबल-भन गन हंडा ||
ॐ ह्रीं श्रीसुमतिनाथ जिनेन्द्राय महार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ||
सुमति चरन जो जजैं भविक जन मनवचकाई |
तासु सकल दुख दंद फंद ततछिन छय जाई ||
पुत्र मित्र धन धान्य शर्म अनुपम सो पावै |
वृन्दावन निर्वाण लहे निहचै जो ध्यावै ||
इत्याशीर्वादः (पुष्पांजलिं क्षिपेत्)