32.श्री पदम प्रभु जी जिन पूजा - बाड़ा
श्रीधर-नंदन पद्मप्रभ, वीतराग जिननाथ |
विघ्नहरण मंगलकरन, नमौं जोरि जुग-हाथ ||
जन्म-महोत्सव के लिए, मिलकर सब सुरराज |
आये कौशाम्बी नगर, पद-पूजा के काज ||
पद्मपुरी में पद्मप्रभ, प्रकटे प्रतिमा-रूप |
परम दिगम्बर शांतिमय, छवि साकार अनूप ||
हम सब मिल करके यहाँ, प्रभु-पूजा के काज |
आह्वानन करते सुखद, कृपा करो महाराज ||
ओं ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्र! अत्र अवतर! अवतर! संवौषट (आहवानानम्)।
ओं ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्र! अत्र तिष्ठ! तिष्ठ! ठ:! ठ:! (स्थापनम्)
ओं ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट्! (सन्निधिकरणं)।
(अष्टक)
क्षीरोदधि उज्ज्वल नीर,प्रासुक-गंध भरा |
कंचन-झारी में लेय, दीनी धार धरा ||
बाड़ा के पद्म-जिनेश, मंगलरूप सही |
काटो सब क्लेश महेश, मेरी अर्ज यही ||
ओं ह्रीं श्रीपद्मप्रभ जिनेन्द्राय जन्म-जरा-मृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ।१।
चंदन केशर कर्पूर, मिश्रित गंध धरौं |
शीतलता के हित देव, भव-आताप हरौं |
बाड़ा के पद्म-जिनेश, मंगलरूप सही |
काटो सब क्लेश महेश, मेरी अर्ज यही ||
ओं ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा ।२।
ले तंदुल अमल अखंड, थाली पूर्ण भरौं |
अक्षय-पद पावन-हेतु, हे प्रभु! पाप हरौं ||
बाड़ा के पद्म-जिनेश, मंगलरूप सही |
काटो सब क्लेश महेश, मेरी अर्ज यही ||
ओं ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।३।
ले कमल केतकी बेल, पुष्प धरूँ आगे |
प्रभु सुनिये हमरी टेर, काम-व्यथा भागे ||
बाड़ा के पद्म-जिनेश, मंगलरूप सही |
काटो सब क्लेश महेश, मेरी अर्ज यही ||
ओं ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।४।
नैवेद्य तुरत बनवाय, सुन्दर थाल सजा |
मम क्षुधारोग नश जाय, गाऊँ वाद्य बजा ||
बाड़ा के पद्म-जिनेश, मंगलरूप सही |
काटो सब क्लेश महेश, मेरी अर्ज यही ||
ओं ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।५।
हो जगमग-जगमग ज्योति, सुन्दर अनियारी |
ले दीपक श्री जिनचन्द्र, मोह नशे भारी ||
बाड़ा के पद्म-जिनेश, मंगलरूप सही |
काटो सब क्लेश महेश, मेरी अर्ज यही ||
ओं ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय मोहांधकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।६।
ले अगर कपूर सुगन्ध, चंदन गंध महा |
खेवत हौं प्रभु-ढिंग आज, आठों कर्म दहा ||
बाड़ा के पद्म-जिनेश, मंगलरूप सही |
काटो सब क्लेश महेश, मेरी अर्ज यही ||
ओं ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।७।
श्रीफल बादाम सुलेय, केला आदि हरे |
फल पाऊँ शिवपद नाथ, अरपूँ मोद भरे ||
बाड़ा के पद्म-जिनेश, मंगलरूप सही |
काटो सब क्लेश महेश, मेरी अर्ज यही ||
ओं ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।८।
जल चंदन अक्षत पुष्प, नेवज आदि मिला |
मैं अष्ट – द्रव्य से पूज, पाऊँ सिद्धशिला ||
बाड़ा के पद्म-जिनेश, मंगलरूप सही |
काटो सब क्लेश महेश, मेरी अर्ज यही ||
ओं ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।९।
चरणों का अर्घ्य
(दोहा)
चरण-कमल श्री पद्म के,वंदौं मन-वच-काय|
अर्घ्य चढ़ाऊँ भाव से,कर्म नष्ट हो जाय ||
ओं ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्रस्य चरणाभ्यां अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(प्रतिमाजी की अप्रकट-अवस्था का अर्घ्य)
पृथ्वी में श्री पद्म की, पद्मासन आकार,
परम दिगम्बर शांतिमय, प्रतिमा भव्य अपार |
सौम्य शांत अति कांतिमय, निर्विकार साकार,
अष्ट-द्रव्य का अर्घ्य ले, पूजूँ विविध प्रकार ||
बाड़ा के पद्म-जिनेश, मंगलरूप सही |
काटो सब क्लेश महेश, मेरी अर्ज यही ||
ओं ह्रीं भूमि-स्थित-अप्रकट श्रीपद्मप्रभ-जिनबिम्बाय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
पंचकल्याणक-अर्घ्यावली
(राग टप्पा)
श्री पद्मप्रभ जिनराज जी!मोहे राखो हो शरना।
माघ-कृष्ण-छठ में प्रभो,आये गर्भ-मँझार।
मात सुसीमा का जनम,किया सफल करतार।।
मोहे राखो हो शरना।
श्री पद्मप्रभ जिनराज जी! मोहे राखो हो शरना।I
ओं ह्रीं श्रीं माघ कृष्ण-षष्ठ्यां गर्भमंगल-प्राप्ताय श्रीपद्मप्रभ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।१।
कार्तिक-वदी-तेरह तिथी,प्रभू लियो अवतार|
देवों ने पूजा करी, हुआ मंगलाचार |
मोहे राखो हो शरना।I श्री पद्मप्रभ जिनराज जी! मोहे राखो हो शरना |
ओं ह्रीं श्रीं कार्तिक कृष्ण-त्रयोदश्यां जन्ममंगल-प्राप्ताय श्रीपद्मप्रभ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।२।
कार्तिक-कृष्ण-त्रयोदशी, तृणवत् बन्धन तोड़ |
तप धार्यो भगवान ने, मोहकर्म को मोड़ ||
मोहे राखो हो शरना |
श्री पद्मप्रभ जिनराज जी! मोहे राखो हो शरना ||
ओं ह्रीं श्रीं कार्तिककृष्ण-त्रयोदश्यां तपोमंगल-प्राप्ताय श्रीपद्मप्रभ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।३।
चैत्र-शुक्ल की पूर्णिमा उपज्यो केवलज्ञान |
भवसागर से पार हो, दियो भव्यजन ज्ञान ||
मोहे राखो हो शरना |
श्री पद्मप्रभ जिनराज जी! मोहे राखो हो शरनाII
ओं ह्रीं श्रीं चैत्रशुक्ल-पूर्णिमायां केवलज्ञान-प्राप्ताय श्रीपद्मप्रभ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।४।
फागुन-वदी-चतुर्थी को, मोक्ष गये भगवान् |
इन्द्र आय पूजा करी, मैं पूजौं धर ध्यानII
मोहे राखो हो शरना |
श्री पद्मप्रभ जिनराज जी! मोहे राखो हो शरना |
ओं ह्रीं श्रीं फाल्गुनकृष्ण-चतुर्थ्यां मोक्षमंगल-प्राप्ताय श्रीपद्मप्रभ जिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।५।
जयमाला
(दोहा)
चौतीसों अतिशय-सहित, बाड़ा के भगवान् |
जयमाला श्री-पद्म की, गाऊँ सुखद महान |१|
(पद्धरि छन्द)
जय पद्मनाथ परमात्मदेव,
सुर जिनकी करते चरन-सेव |
जय पद्म पद्मप्रभु तन रसाल,
जय-जय करते मुनि-मन-विशाल |२|
कौशाम्बी में तुम जन्म लीन,
बाड़ा में बहु-अतिशय करीन |
इक जाट-पुत्र ने जमीं खोद,
पाया तुमको होकर समोद |३|
सुनकर हर्षित हो भविक-वृंद,
पूजा आकर की दु:ख-निकंद |
करते दु:खियों का दु:ख दूर,
हो नष्ट प्रेतबाधा जरूर |४|
डाकिन शाकिन सब होय चूर्ण,
अंधे हो जाते नेत्र-पूर्ण |
श्रीपाल सेठ अंजन सुचोर,
तारे तुमने उनको विभोर |५|
अरु नकुल सर्प सीता समेत,
तारे तुमने निजभक्त-हेत |
हे संकटमोचन भक्तपाल,
हमको भी तारो गुणविशाल |६|
विनती करता हूँ बार-बार,
होवे मेरा दु:ख क्षार-क्षार |
सब मीणा गूजर जाट जैन,
आकर पूजें कर तृप्त नैन |७|
मन-वच-तन से पूजें जो कोय,
पावें वे नर शिवसुख जु सोय |
ऐसी महिमा तेरी दयाल,
अब हम पर भी होओ कृपाल ||८||
ओं ह्रीं श्रीपद्मप्रभजिनेन्द्राय जयमाला-पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मेढ़ी में श्रीपद्म की, पूजा रची विशाल |
हुआ रोग तब नष्ट सब, बिनवे ‘छोटेलाल’ ||
पूजा-विधि जानूँ नहीं, नहिं जानूँ आह्वान |
भूल-चूक सब माफ कर, दया करो भगवान ||
|। इत्याशीर्वाद: पुष्पांजलिं क्षिपेत् ।।