34.श्री चंद्रप्रभु जी पूजा - देहरा
शुभ पुण्य उदय से ही प्रभुवर,
दर्शन तेरा कर पाते हैं।
केवल दर्शन से ही प्रभु,
सारे पाप मेरे कट जाते हैं।।
देहरे के चन्द्रप्रभु स्वामी,
आह्वानन करने आया हूँ।
मम हृदय कमल में आ तिष्ठो
तेरे चरणों में आया हूँ।।
ॐ हृीं श्री चन्द्रप्रभु जिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्नाननं।
ॐ हृीं श्री चन्द्रप्रभु जिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनं।
ॐ हृीं श्री चन्द्रप्रभु जिनेन्द्र ! अत्र मम सन्हिहितो भव भव वषट् सन्हिध्किरणं।
।। अथाष्टक ।।
भोगों में फंसकर हे प्रभुवर,
जीवन को वृथा गँवाया है।
इस जन्म-मरण से मुझे नहीं,
छुटकारा मिलने पाया है।।
मन में कुछ भाव उठे मेरे,
जल झारी में भर लाया हूँ।
मन के मिथ्यामल धोने को,
चरणों में तेरे आया हूँ।।
ॐ हृीं श्री चन्द्रप्रभु जिनेन्द्राय जन्मजरामृत्यु विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
निज अन्तर शीतल करने को,
चन्दन घिसकर ले आया हूँ।
मन शान्त हुआ न इससे भी,
तेरे चरणों में आया हूँ।।
क्रोधदि कषायों के कारण,
संतप्त हृदय प्रभु मेरा है।
शीतलता मुझको मिल जाये,
हे नाथ सहारा तेरा है।।
ॐ हृीं श्री चन्द्रप्रभु जिनेन्द्राय संसारताप विनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा।
पूजा में ध्यान लगाने को,
अक्षत धोकर ले आया हूँ।
चरणों में पुंज चढ़ाकर के,
अक्षय पद पाने आया हूँ।।
निर्मल आत्मा होवे मेरी,
सार्थक पूजा तब तेरी है।
निज शाश्वत अक्षयपद पाऊं,
ऐसी प्रभु विनती मेरी है।।
ॐ हृीं श्री चन्द्रप्रभु जिनेन्द्राय अक्षयपद प्राप्ताये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
पर-गंध् मिटाने को प्रभुवर,
यह पुष्प सुगंधी लाया हूँ।
तेरे चरणों में अर्पित कर,
तुमसा ही होने आया हूँ।।
श्री चंद्रप्रभु यह अरज मेरी,
भवसागर पार लगा देना।
यह काम अग्नि का रोग बड़ा,
छुटकारा नाथ दिला देना।।
ॐ हृीं श्री चन्द्रप्रभु जिनेन्द्राय कामबाण विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
दुःख देती है तृष्णा मुझको,
कैसे छुटकारा पाऊं मैं।
हे नाथ बता दो आज मुझे,
चरणों में शीश झुकाऊं मैं।।
यह क्षुध मिटाने को प्रभुवर,
नैवेद्य बनाकर लाया हूँ।
हे नाथ मिटादो क्षुध मेरी,
भव भव में फिरता आया हूँ।।
ॐ हृीं श्री चन्द्रप्रभु जिनेन्द्राय क्षुधरोग विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
यह दीपक की ज्योति प्यारी,
अंधियारा दूर भगाती है।
पर यह भी नश्वर है प्रभुवर,
झंझा इसको धमकाती है।।
हे चन्द्रप्रभु दे दो ऐसा,
दीपक अज्ञान मिटा डाले।
मोहान्धकार हो नष्ट मेरा,
यह ज्योति नई मन में बाले।।
ॐ हृीं श्री चन्द्रप्रभु जिनेन्द्राय मोहांध्कार विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
शुभ धूप दशांग बनाकर के,
पावक में खेऊं हे प्रभुवर।
क्षय कर्मों का प्रभु हो जावे,
जग का झंझट सारा नश्वर।।
हे चन्द्रप्रभु अन्तर्यामी,
कैसे छुटकारा अब पाऊं।
हे नाथ बतादो मार्ग मुझे,
चरणों पर बलिहारी जाऊं।।
ॐ हृीं श्री चन्द्रप्रभु जिनेन्द्राय अष्टकर्म दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
पिस्ता बादाम लवंगादिक,
भर थाली प्रभु मैं लाया हूँ।
चरणों में नाथ चढ़ाकरके,
अमृतरस पीने आया हूँ।।
करूणा के सागर दया करो,
मुक्ति का मार्ग अब पाऊं।
दे दो वरदान प्रभु ऐसा,
शिवपुर को हे प्रभुवर जाऊं।।
ॐ हृीं श्री चन्द्रप्रभु जिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्ताये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल चन्दन अक्षत पुष्प चरू,
दीपक घृत से भर लाया हूँ।
दस गंध् धूप फल मिला अर्घ ले,
स्वामी अति हर्षाया हूँ।।
हे नाथ अनर्घ पद पाने को,
तेरे चरणों में आया हूँ।
भव भव के बंध् कटें प्रभुवर,
यह अरज सुनाने आया हूँ।।
ॐ हृीं श्री चन्द्रप्रभु जिनेन्द्राय अनर्घपद प्राप्ताये अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
।। पंचकल्याणक ।।
जब गर्भ में प्रभुजी आये थे,
इन्द्रों ने नगर सजाया था।
छः मास प्रथम ही आकरके,
रत्नों का मेह बरसाया था।।
तिथि चैत्र वदी पंचम प्यारी,
जब गर्भ में प्रभुजी आये थे।
लक्ष्मणामाता को पहले ही,
सोलह सपने दिखलाये थे।।
ॐ हृीं चैत्र कृष्ण पंचम्यां गर्भ मंगल मंडिताय श्री चन्द्रप्रभु जिनेन्द्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
शुभ बेला में प्रभु जन्म हुआ,
वदि पौष एकादशि थी प्यारी।
श्रीमहासेन नृप के घर में,
हुई जयजयकार बड़ी भारी।।
पांडुकशिल पर अभिषेक कियो,
सब देव मिले थे चतुरसप्तम
सो जिन चन्द्र जयो जगमाहिं,
विघ्नहरण और मंगलदाय।।
ॐ हृीं पौष कृष्ण एकादश्यां जन्म मंगल मंडिताय श्री चन्द्रप्रभु जिनेन्द्राय अर्घं निर्वपामीति स्वा
जग के झंझट से मन उफबा,
तप की ली श्रीजिनने ठहराय।
पौष बदी ग्यारस को इन्द्र ने,
तप कल्याण कियो हर्षाय।।
सर्वर्तुक वन में जाय विराजे,
केशलोंच जिन कियो हर्षाय।
देहरे के श्री चन्द्रप्रभु को,
अर्घ चढ़ाऊं नित्य बनाय।।
ॐ हृीं पौष कृष्ण एकादश्यां तपो मंगल मंडिताय श्री चन्द्रप्रभु जिनेन्द्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
फाल्गुन वदी सप्तमी के दिन,
चार घातिया घात महान।
समवशरण रचना हरि कीनी,
ता दिन पायो केवलज्ञान।।
साढे़ आठ योजन परमित था,
समवशरण श्रीजिन भगवान।
ऐसे श्री जिन चन्द्रप्रभु को,
अर्घचढ़ाय करूँ नित ध्यान।।
ॐ हृीं फाल्गुन कृष्ण सप्तम्यां केवलज्ञान मंगल मंडिताय श्री चन्द्रप्रभु जिनेन्द्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
शुक्ला फाल्गुन सप्तमी के दिन,
ललितकूट शुभ उत्तम थान।
श्रीजिन चन्द्रप्रभु जगनामी,
पायो आतम शिव कल्याण।।
वसु कर्म जिनचन्द्र ने जीते
पहुँचे स्वामी मोक्ष मंझार।
निर्वाण महोत्सव कियो इन्द्र ने
देव करें सब जयजयकार।।
ॐ हृीं फाल्गुन शुक्ला सप्तम्यां मोक्ष मंगल मंडिताय श्री चन्द्रप्रभु जिनेन्द्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
श्रावण सुदी दसमी को प्रभु जी
प्रकट भये देहरे में आन।
संवत तेरह दो सहस्त्र उपर,
शुभ बृहस्पतिवार तादिन जान।।
जयजयकार हुई देहरे में,
प्रकट हुए जब श्री भगवान।
चरणों में आ अर्घ चढ़ाऊं
प्रभु के दर्शन सुख की खान।।
ॐ हृीं श्रावण शुक्ला दशम्यां देहरा स्थान प्रकट रूपाय श्री चन्द्रप्रभु जिनेन्द्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
।। जयमाला ।।
हे चन्द्रप्रभु तुम जगतपिता जगदीश्वर तुम परमात्मा हो।
तुमही हो नाथ अनाथों के जग को निज आनन्द दाता हो।।१
इन्द्रियों को जीत लिया तुमने जितेन्द्रनाथ कहाये हह
तुमही हो परम हितैषी प्रभु गुरू तुम ही नाथ कहाये हो।।२
इस नगर तिजारा में स्वामी देहरा स्थान निराला है।
दुख दुखियों का हरने वाला श्रीचन्द्रनाम अति प्यारा है।।३
जो भाव सहित पूजा करते मनवांछित फल पा जाते हैं।
दर्शन से रोग नसें सारे गुनगान तेरा सब गाते हैं।।४
मैं भी हूँ नाथ शरण आया कर्मों ने मुझको रोंदा है।
यह कर्म बहुत दुख देते हैं प्रभु एक सहारा तेरा है।।५
कभी जन्म हुआ कभी मरण हुआ हे नाथ बहुत दुख पाया है।
कभी नरक गया कभी स्वर्ग गया भ्रमता भ्रमता ही आया है।।६
तिर्यंच गति के दुःख सहे ये जीवन बहुत अकुलाया है।
पशुगति में मार सही भारी बोझा रख खूब भगाया है।।७
अंजन से चोर अध्म तारे भव सिन्धु से पार लगाया है।
सोमा की सुनकर टेर प्रभु नाग को हार बनाया है।।८
इसमुनिसमन्तभद्र को हे स्वामी आ चमत्कार दिखलाया है
कर चमत्कार को नमस्कार चरणों में शीश झुकाया है।।९
इस पंचमकाल में हे स्वामी क्या अद्भुत महिमा दिखलाई।
दुख दुखियों का हरने वाली देहरे में प्रतिमा प्रकटाई।।१०
शुभ पुण्य उदय से हे स्वामी दर्शन तेरा करने आया हूँ।
इस मोह जाल से हे स्वामी छुटकारा पाने आया हूँ।।११
श्रीचन्द्रप्रभु मोरी अर्ज सुनो चरणों में तेरे आया हूँ।
भवसागर पार करो स्वामी यह अर्ज सुनाने आया हूँ।।१२
ॐ हृीं श्री चन्द्रप्रभु जिनेन्द्राय जयमाला पूर्णार्घं निर्वपामीति स्वाहा।
दोहा-
देहरे के श्री चन्द्र को भाव सहित जो ध्याय।
मुंशी पावे सम्पदा मनवांछित फल पाय।।
इत्याशीर्वाद पुष्पांजलिम् क्षिपेत्