38. श्री वासुपूज्य जी जिन पूजा
श्रीमत वासुपूज्य जिनवर-पद,
पूजन-हेत हिये उमगाय |
थापूं मन-वच-तन शुचि करके,
जिनकी पाटलदेव्या माय ||
महिष-चिह्न पद-लसे मनोहर,
लाल-वरन-तन-समतादाय |
सो करुनानिधि कृपादृष्टि करि,
तिष्ठहु सुपरितिष्ठ इहँ आय ||
ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्र ! अत्र अवतरत अवतरत संवौषट्! (आह्वाननम्)
ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठत तिष्ठत ठ: ठ:! (स्थापनम्)
ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भवत भवत वषट्! (सन्निधिकरणम्)
(छन्द जोगीरासा, आंचलीबंध)
गंगाजल भरि कनक-कुंभ में,प्रासुक-गंध मिलार्इ|
करम-कलंक विनाशन-कारन,धार देत हरषार्इ |
वासुपूज्य वसुपूज-तनुज-पद,वासव सेवत आर्इ |
बालब्रह्मचारी लखि जिनको,शिव-तिय सनमुख धार्इ||
ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय जन्म-जरा-मृत्यु-विनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा ।1
कृष्णागरु मलयागिर चंदन,केशर-संग घिसार्इ |
भव-आताप विनाशन-कारन,पूजूं पद चित लार्इ ||
वासुपूज्य वसुपूज-तनुज-पद,वासव सेवत आर्इ |
बालब्रह्मचारी लखि जिनको,शिव-तिय सनमुख धार्इ||
ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय संसारताप-विनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा ।2
देवजीर सुखदास शुद्धवर,सुवरन-थार भरार्इ|
पुंज धरत तुम चरनन आगे,तुरित अखय-पद पार्इ|
वासुपूज्य वसुपूज-तनुज-पद,वासव सेवत आर्इ|
बालब्रह्मचारी लखि जिनको,शिव-तिय सनमुख धार्इ
||
ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अक्षयपद-प्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा ।3
पारिजात संतान कल्पतरु-जनित सुमन बहु लार्इ|
मीन-केतु मद-भंजनकारन, तुम पद-पद्म चढ़ार्इ||
वासुपूज्य वसुपूज-तनुज-पद, वासव सेवत आर्इ|
बालब्रह्मचारी लखि जिनको,शिव-तिय सनमुख धार्इ||
ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय कामबाण-विध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा ।4
नव्य-गव्य आदिक रसपूरित,नेवज तुरत उपार्इ|
छुधा-रोग निरवारन-कारन,तुम्हें जजूं सिरनार्इ||
वासुपूज्य वसुपूज-तनुज-पद,वासव सेवत आर्इ|
बालब्रह्मचारी लखि जिनको,शिव-तिय सनमुख धार्इ||
ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय क्षुधारोग-विनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा ।5
दीपक-जोत उदोत होत वर,दश-दिश में छवि छार्इ|
तिमिर-मोहनाशक तुमको लखि,जजूं चरन हरषार्इ|
वासुपूज्य वसुपूज-तनुज-पद,वासव सेवत आर्इ|
बालब्रह्मचारी लखि जिनको,शिव-तिय सनमुख धार्इ||
ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय मोहांधकार-विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा ।6
दशविध-गंध मनोहर लेकर,वातहोत्र में डार्इ |
अष्ट-करम ये दुष्ट जरतु हैं,धूप सु धूम उड़ार्इ ||
वासुपूज्य वसुपूज-तनुज-पद,वासव सेवत आर्इ|
बालब्रह्मचारी लखि जिनको,शिव-तिय सनमुख धार्इ|
ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अष्टकर्म-दहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।7
सुरस सुपक्क सुपावन फल ले,कंचन-थार भरार्इ|
मोक्ष-महाफलदायक लखि प्रभु,भेंट धरूं गुनगार्इ||
वासुपूज्य वसुपूज-तनुज-पद,वासव सेवत आर्इ|
बालब्रह्मचारी लखि जिनको,शिव-तिय सनमुख धार्इ||
ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय मोक्षफल-प्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा ।8
जल-फल दरब मिलाय गाय गुन,आठों अंग नमार्इ|
शिवपद-राज हेत हे श्रीपति!निकट धरूं यह लार्इ||
वासुपूज्य वसुपूज-तनुज-पद, वासव सेवत आर्इ |
बालब्रह्मचारी लखि जिनको,शिव-तिय सनमुख धार्इ||
ॐ ह्रीं श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अनर्घ्यपद-प्राप्तये अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।9
पंचकल्याणक (छन्द पार्इता-मात्रा 14)
कलि-छट्ट-असाढ़ सुहायो,गरभागम-मंगल पायो|
दशमें-दिवि तें इत आये, शत-इन्द्र जजे सिर-नाये|
ॐ ह्रीं आषाढ़कृष्ण-षष्ठ्यां गर्भमंगल-मंडिताय श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।1
कलि-चौदस-फागुन जानो,जनमो जगदीश महानो|
हरि मेरु जजे तब जार्इ,हम पूजत हैं चित-लार्इ|
ॐ ह्रीं फाल्गुनकृष्ण-चतुर्दश्यां जन्ममंगल-मंडिताय श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।2
तिथि चौदस-फागुन-श्यामा,धरियो तप श्री अभिरामा|
नृप-सुन्दर के पय पायो,हम पूजत अति-सुख थायो|
ॐ ह्रीं फाल्गुनकृष्ण-चतुर्दश्यां तपोमंगल-प्राप्ताय श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।3
सुदि-माघ-दोइज सोहे,लहि केवल-आतम जो है|
अनअंत-गुनाकर स्वामी,नित वंदूं त्रिभुवन-नामी|
ॐ ह्रीं माघशुक्ल-द्वितीयायां केवलज्ञान-मंडिताय श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।4
सित-भादव-चौदस लीनो,निरवान-सुथान प्रवीनो|
पुर-चंपा-थानक सेती,हम पूजत निज-हित हेती |
ॐ ह्रीं भाद्रपदशुक्ल-चतुर्दश्यां मोक्षमंगल-मंडिताय श्रीवासुपूज्यजिनेन्द्राय अर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।5
जयमाला
(दोहा)
चंपापुर में पंच वर, कल्याणक तुम पाय |
सत्तर-धनु-तन शोभनो, जै जै जै जिनराय |1
(छन्द मोतियादाम-वर्ण -12)
महासुख-सागर आगर-ज्ञान,
अनंत-सुखामृत मुक्त महान् |
महाबल-मंडित खंडित-काम,
रमा-शिव-संग सदा विसराम |2
सुरिंद फनिंद खगिंद नरिंद,
मुनिंद जजें नित पादारविंद |
प्रभु तुम जब अंतरभाव विराग,
सु बालहि तें व्रत-शील सों राग |3
कियो नहिं राज उदास-सरूप,
सुभावन भावत आतम-रूप |
अनित्य-शरीर प्रपंच-समस्त,
चिदातम नित्य सुखाश्रित वस्त |4
अशर्न नहीं कोउ शर्न सहाय,
जहाँ जिय भोगत कर्म-विपाय |
निजातम को परमेसुर शर्न,
नहीं इनके बिन आपद हर्न |5
जगत्त जथा जल-बुदबुद-येव,
सदा जिय एक लहे फलमेव |
अनेक-प्रकार धरी यह देह,
भ्रमें भव-कानन आन न नेह |6
अपावन सात कुधात भरीय,
चिदातम शुद्ध-सुभाव धरीय |
धरे इन सों जब नेह तबेव,
सु आवत कर्म तबै वसु-भेव |7
जबै तन-भोग-जगत्त-उदास,
धरें तब संवर-निर्जर आस |
करे जब कर्म-कलंक विनाश,
लहे तब मोक्ष महासुख-राश |8
तथा यह लोक नराकृत नित्त,
विलोकियते षट्-द्रव्य विचित्त |
सु आतम-जानन बोध-विहीन,
धरे किन तत्त्व-प्रतीत प्रवीन |9
जिनागम ज्ञान ‘रु संजम-भाव,
सबै निजज्ञान बिना विरसाव |
सुदुर्लभ द्रव्य सुक्षेत्र सुकाल,
सुभाव सबे जिह तैं शिव-हाल |10
लयो सब जोग सुपुन्य-वशाय,
कहो किमि दीजिय ताहि गँवाय |
विचारत यों लौकांतिक आय,
नमें पद-पंकज पुष्प चढ़ाय |11
कहयो प्रभु धन्य कियो सुविचार,
प्रबोधि सुयेम कियो जुविहार |
तबै सौधर्म-तनों हरि आय,
रच्यो शिविका चढ़ि आय जिनाय |12
धरे तप पाय सु केवलबोध,
दियो उपदेश सुभव्य-संबोध |
लियो फिर मोक्ष महासुख राश,
नमें नित भक्त सोर्इ सुख आश |13
(छन्द घत्तानंद)
नित वासव-वंदत, पाप-निकंदत,
वासुपूज्य व्रत-ब्रह्मपती |
भव-संकल-खंडित, आनंद-मंडित,
जै जै जै जैवंत जती |14
ॐ ह्रीं श्री वासुपूज्यजिनेन्द्राय जयमाला-पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(सोरठा छन्द)
वासुपूज-पद सार, जजें दरब-विधि भाव-सों |
सो पावें सुख-सार, भुक्ति-मुक्ति को जो परम ||
।। इत्याशीर्वाद: परिपुष्पांजलिं क्षिपेत् ।