41.श्री धर्मनाथ जी जिन पूजा


तजि के सरवारथसिद्धि विमान, 
सुभान के आनि आनन्द बढ़ाये |

जगमात सुव्रति के नन्दन होय, 
भवोदधि डूबत जंतु कढ़ाये ||

जिनके गुन नामहिं प्रकाश है, 
दासनि को शिवस्वर्ग मँढ़ाये |

तिनके पद पूजन हेत त्रिबार, 
सुथापतु हौं इहं फूल चढ़ाये ||

ॐ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिनेन्द्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् |

ॐ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिनेन्द्र ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः |

ॐ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिनेन्द्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् |

 मुनि मन सम शुचि शीर नीर अति,मलय मेलि भरि झारी|

जनमजरामृत ताप हरन को,चरचौं चरन तुम्हारी||

परमधरम-शम-रमन धरम-जिन,अशरन शरन निहारी|

पूजौं पाय गाय गुन सुन्दर नाचौं दे दे तारी ||

ॐ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं नि0स्वाहा |1|

केशर चन्दन कसली नन्दन, दाहनिकन्दन लीनि|

जलसंग घस लसि शसिसम शमकर, भव आताप हरी |परम0

ॐ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनं नि0स्वाहा |2|

हजलज जीर सुखदास हीर हिम, नीर किरनसम लायो |

पुंज धरत आनन्द भरत भव, दंद हरत हरषायो ||परम0

ॐ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् नि0स्वाहा |3|

 सुमन सुमन सम सुमणि थाल भर, सुमनवृन्द विहंसाई |

सुमन्मथ-मद-मंथन के कारन, अरचौं चरन चढ़ाई ||परम0

ॐ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं नि0स्वाहा |4|

घेवर बावर अर्द्ध चन्द्र सम, छिद्र सहज विराजे |

सुरस मधुर ता सों पद पूजत, रोग असाता भाजै ||परम0

ॐ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नेवैद्यं नि0स्वाहा |5|

सुन्दर नेह सहित वर दीपक, तिमिर हरन धरि आगे |

नेह सहित गाऊँ गुन श्रीधर, ज्यों सुबोध उर जागे ||परम0

ॐ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीपं नि0स्वाहा |6|

 अगर तगर कृष्णागर तव दिव हरिचन्दन करपूरं |

चूर खेय ज्वलन मांहि जिमि, करम जरें वसु कूरं ||परम0

ॐ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं नि0स्वाहा |7|

आम्र काम्रक अनार सारफल, भार मिष्ट सुखदाई |

सो ले तुम ढिग धरहुँ कृपानिधि, देहु मोच्छ ठकुराई ||परम0

ॐ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्तये फलं नि0स्वाहा |8|

आठों दरब साज शुचि चितहर, हरषि हरषि गुनगाई |

बाजत दृमदृम दृम मृदंग गत, नाचत ता थेई थाई ||परम0

ॐ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं नि0स्वाहा |9|

पंच कल्याणक अर्घ्यावली

पूजौं हो अबार, धरम जिनेसुर पूजौं ||टेक

आठैं सित बैशाख की हो, गरभ दिवस अधिकार |

जगजन वांछित पूर को, पूजौं हो अबार ||धरम0

ॐ ह्रीं वैशाखशुक्ला अष्टम्यां गर्भमंगलप्राप्ताय श्रीधर्म0जि0अर्घ्यं निर्व0 |1|

 शुकल माघ तेरसि लयो हो, धरम धरम अवतार |

सुरपति सुरगिर पूजियो, पूजौं हो अबार ||धरम0

  ॐ ह्रींमाघशुक्ला त्रयोदश्यां जन्ममंगलप्राप्ताय श्रीधर्म0जि0अर्घ्यं निर्व0 |2|


ुक्ल तेरस लयो हो, दुर्द्धर तप अविष्कार |

सुरऋषि सुमनन तें पूजें, पूजौं हो अबार ||धरम0

ॐ ह्रीं माघशुक्ला त्रयोदश्यां तपोमंगलप्राप्ताय श्रीधर्म0जि0अर्घ्यं निर्व0 |3|

 पौषशुक्ल पूनम हने अरि, केवल लहि भवितार |

गण-सुर-नरपति पूजिया, पूजौं हो अबार ||धरम0

ॐ ह्रीं पौषशुक्ला पूर्णिमायां केवलज्ञानप्राप्ताय श्रीधर्म0जि0अर्घ्यं निर्व0 |4|

जेठशुकल तिथि चौथ की हो, शिव समेद तें पाय |

जगतपूज्यपद पूजहूँ, पूजौं हो अबार ||धरम0

ॐ ह्रीं ज्येष्ठशुक्ला चतुर्थ्यां मोक्षमंगलप्राप्ताय श्रीधर्म0जि0अर्घ्यं निर्व0 |5|

जयमाला

दोहाः-घनाकार करि लोक पट, सकल उदधि मसि तंत |

लिखै शारदा कलम गहि, तदपि न तुव गुन अंत |1|

 जय धरमनाथ जिन गुनमहान, 
तुम पद को मैं नित धरौं ध्यान |

जय गरभ जनम तप ज्ञानयुक्त, 
वर 
ुमंगल शर्म-भुक्त |2|

जय चिदानन्द आनन्दकंद, 
गुनवृन्द सु ध्यावत मुनि अमन्द |

तुम जीवनि के बिनु हेतु मित्त, 
तुम ही हो जग में जिन पवित्त |3|

तुम समवसरण में तत्वसार, 
उपदेश दियो है अति उदार |

ता को जे भवि निजहेत चित्त, 
धारें ते पावें मोच्छवित्त |4|

मैं तुम मुख देखत आज पर्म, 
पायो निज आतमरुप धर्म |

मो कों अब भवदधि तें निकार, 
निरभयपद दीजे परमसार |5|

तुम सम मेरो जग में न कोय, 
तुमही ते सब विधि काज होय |

तुम दया धुरन्धर धीर वीर, 
मेटो जगजन की सकल पीर |6|

तुम नीतिनिपुन विन रागरोष, 
शिवमग दरसावतु हो अदोष |

तुम्हरे ही नामतने प्रभातं जगजीव लहें शिव-दिव-सुराव |7|

ता तें मैं तुमरी शरण आय, 
यह अरज करतु हौं शीश नाय |

भवबाधा मेरी मेट मेट,
शिवराधा सों करौं भेंट भेंट |8|

जंजाल जगत को चूर चूर, 
आनन्द अनूपम पूर पूर |

मति देर करो सुनि अरज एव, 
हे दीनदयाल जिनेश देव |9|

मो कों शरना नहिं और ठौर, 
यह निहचै जानो सुगुन मौर |

वृन्दावन वंदत प्रीति लाय, 
सब विघन मेट हे धरम-राय |10|

जय श्रीजिनधर्मं,शिवहितपर्मं,श्रीजिनधर्मं उपदेशा |
तुम दयाधुरंधर विनतपुरन्दर, 
कर उरमन्दर परवेशा |11|

ॐ ह्रीं श्रीधर्मनाथजिनेन्द्राय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा |

 जो श्रीपतिपद जुगल, उगल मिथ्यात जजे भव |
ता के दुख सब मिटहिं, लहे आनन्द समाज सब |
सुर-नर-पति-पद भोग, अनुक्रम तें शिव जावे |
ता तें वृन्दावन यह जानि, धरम-जिन के गुन ध्यावे ||

इत्याशीर्वादः (पुष्पांजलिं क्षिपेत्)