42.श्री कुंथुनाथ जी जिन पूजा
अज अंक अजै पद राजै निशंक,
हरे भवशंक निशंकित दाता |
मदमत्त मतंग के माथे गँथे,
मतवाले तिन्हें हने ज्यों अरिहाता ||
गजनागपुरै लियो जन्म जिन्हौं,
रवि के प्रभु नंदन श्रीमति-माता |
सो कुंथु सुकंथुनि के प्रतिपालक,
थापौं तिन्हें जुतभक्ति विख्याता |
ॐ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्र | अत्र अवतर अवतर संवौषट् |
ॐ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्र | अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः |
ॐ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्र | अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् |
कुंथु सुन अरज दास केरी,नाथ सुन अरज दासकेरी|
भवसिन्धु पर्यो हौं नाथ,निकारो बांह पकर मेरी||
प्रभु सुन अरज दासकेरी,नाथ सुन अरज दासकेरी|
जगजाल पर्यो हौं वेगि निकारो बांह पकर मेरी |टेक|
सुरसरिता को उज्ज्वल जल भरि,कनकभृंग भेरी |
मिथ्यातृषा निवारन कारन, धरौं धार नेरी ||कुंथु0
ॐ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं नि0स्वाहा |1|
बावन चंदन कदलीनंदन, घसिकर गुन टेरी |
तपत मोह नाशन के कारन, धरौं चरन नेरी ||कुंथु0
ॐ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय भवातापविनाशनाय चन्दनं नि0स्वाहा |2|
मुक्ताफलसम उज्ज्वल अक्षत, सहित मलय लेरी |
पुंज धरौं तुम चरनन आगे अखय सुपद देरी ||कुंथु0
ॐ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् नि0स्वाहा |3|
कमल केतकी बेला दौना, सुमन सुमनसेरी |
समरशूल निरमूल हेत प्रभु, भेंट करौं तेरी ||कुंथु0
ॐ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं नि0स्वाहा |4|
घेवर बावर मोदन मोदक, मृदु उत्तम पेरी |
ता सों चरन जजौं करुनानिधि, हरो छुधा मेरी ||कुंथु0
ॐ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय क्षुधारोगविनाशनाय नेवैद्यं नि0स्वाहा |5|
कंचन दीपमई वर दीपक, ललित जोति घेरी |
सो ले चरन जजौं भ्रम तम रवि, निज सुबोध देरी ||कुंथु0
ॐ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीपं नि0स्वाहा |6|
देवदारु हरि अगर तगर करि चूर अगनि खेरी |
अष्ट करम ततकाल जरे ज्यों,धूम धनंजेरी ||कुंथु0
ॐ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं नि0स्वाहा |7|
लोंग लायची पिस्ता केला, कमरख शुचि लेरी |
मोक्ष महाफल चाखन कारन,जजौं सुकरि ढेरी||कुंथु0
ॐ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय मोक्षफल प्राप्तये फलं नि0स्वाहा |8|
जल चंदन तंदुल प्रसून चरु, दीप धूप लेरी |
फलजुत जनन करौं मन सुख धरि,हरो जगत फेरी ||कुंथु0
ॐ ह्रीं श्रीकुंथुनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं नि0स्वाहा |9|
पंच कल्याणक अर्घ्यावली
सुसावन की दशमी कलि जान,
तज्यो सरवारथसिद्ध विमान |
भयो गरभागम मंगल सार,
जजें हम श्री पद अष्ट प्रकार ||
ॐ ह्रीं श्रावणकृष्णादशम्यां गर्भमंगलमंडिताय श्रीकुंथु0अर्घ्यं नि0 |1|
महा बैशाख सु एकम शुद्ध,
भयो तब जनम तिज्ञान समृद्ध |
कियो हरि मंगल मंदिर शीस,
जजें हम अत्र तुम्हें नुतशीश ||
ॐ ह्री वैशाकशुक्लाप्रतिपदायां जन्ममंगलप्राप्ताय श्रीकुंथु0अर्घ्यं नि0 |2|
तज्यो षटखंड विभौ जिनचंद,
विमोहित चित्त चितार सुछद |
धरे तप एकम शुद्ध विशाख,
सुमग्न भये निज आनंद चाख ||
ॐ ह्री वैशाकशुक्लाप्रतिपदायां तपोमंगलप्राप्ताय श्रीकुंथु0अर्घ्यं नि0 |3|
सुदी तिय चैत सु चेतन शक्त,
चहूं अरि छयकरि तादिन व्यक्त |
भई समवसृत भाखि सुधर्म,
जजौं पद ज्यों पद पाइय पर्म ||
ॐ ह्रीं चैत्रशुक्लातृतीयायां केवलज्ञानप्राप्ताय श्रीकुंथु0अर्घ्यं नि0 |4|
सुदी वैशाख सु एकम नाम,
लियो तिहि द्यौस अभय शिवधाम |
जजे हरि हर्षित मंगल गाय,
समर्चतु हौं तुहि मन-वच-काय ||
ॐ ह्री वैशाकशुक्लाप्रतिपदायां मोक्षमंगलप्राप्ताय श्रीकुंथु0अर्घ्यं नि0 |5|
जयमाला
षट खंडन के शत्रु राजपद में हने |
धरि दीक्षा षटखंडन पाप तिन्हें दने ||
त्यागि सुदरशन चक्र धरम चक्री भये |
करमचक्र चकचूर सिद्ध दिढ़ गढ़ लये |1|
ऐसे कुंथु जिनेश तने पद पद्म को |
गुन अनंत भंडार महा सुख सद्म को ||
पूजौं अरघ चढ़ाय पुरणानंद हो |
चिदानंद अभिनंद इन्द्र-गन-वंद हो |2|
जय जय जय जय श्रीकुंथुदेव,
तुम ही ब्रह्मा हरि त्रिंबुकेव |
जय बुद्धि विदाँवर विष्णु ईश,
जय रमाकांत शिवलोक शीश |3|
जय दया धुरंधर सृष्टिपाल,
जय जय जगबंधु सुगनमाल |
सरवारथसिद्धि विमान छार,
उपजे गजपुर में गुन अपार |4|
सुरराज कियो गिर न्हौन जाय,
आंनद-सहित जुत-भगति भाय |
पुनि पिता सौंपि करमुदितअंग,
हरितांडव-निरत कियो अभंग |5|
पुनि स्वर्ग गयो तुम इत दयाल,
वय पाय मनोहर प्रजापाल |
षटखंड विभौ भोग्यो समस्त,
फिर त्याग जोग धार्यो निरस्त |6|
तब घाति केवल उपाय,
उपदेश दियो सब हित जिनाय |
जा के जानत भ्रम-तम विलाय,
सम्यक् दर्शन निर्मल लहाय |7|
तुम धन्य देव किरपा-निधान,
अज्ञान-क्षमा-तमहरन भान |
जय स्वच्छ गुनाकर शुक्त सुक्त,
जयस्वच्छ सुखामृत भुक्तिमुक्त |8|
जय भौभयभंजन कृत्यकृत्य,
मैं तुमरो हौं निज भृत्य भृत्य |
प्रभु असरन शरन अधार धार,
मम विघ्न-तूलगिरि जारजार |9|
जय कुनय यामिनी सूर सूर,
जय मन वाँछित सुख पूर पूर |
मम करमबंध दिढ़ चूर चूर,
निजसम आनंद दे भूर भूर |10|
अथवा जब लों शिव लहौं नाहिं,
तब लों ये तो नित ही लहाहिं |
भव भव श्रावक-कुल जनमसार,
भवभव सतमति सतसंग धार |11|
भव भव निजआम-तत्व ज्ञान,
भव-भव तपसंयमशील दान |
भव-भव अनुभव नित चिदानंद, भव-भव तुमआगम हे जिनंद |12|
भव-भव समाधिजुत मरन सार, भव-भव व्रत चाहौं अनागार |
यह मो कों हे करुणा निधान,
सब जोग मिले आगम प्रमान |13|
जब लों शिव सम्पति लहौं नाहिं,
तबलों मैं इनको लहाँहि |
यह अरज हिये अवधारि नाथ,
भवसंकट हरि कीजे सनाथ |14|
जय दीनदयाला, वरगुनमाला,
विरदविशाला सुख आला |
मैं पूजौं ध्यावौं शीश नमावौं,
देहु अचल पद की चाला |15|
ॐ ह्रीं श्रीकुंथुनाथ जिनेन्द्राय पूर्णार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा |
कुंथु जिनेसुर पाद पदम जो प्रानी ध्यावें |
अलिसम कर अनुराग,सहज सो निज निधि पावें |
जो बांचे सरधहें, करें अनुमोदन पूजा |
वृन्दावन तिंह पुरुष सदृश,सुखिया नहिं दूजा||
इत्याशीर्वादः (पुष्पांजलिं क्षिपेत्)