52. समुच्चय पूजा (देवशाष्त्र गुरु नमन करि)
देवशाष्त्र गुरु नमन करि,बीस तीर्थङ्करध्याय।
सिद्ध शुद्ध राजत सदा,नमु चित्त हुलसाय॥
ॐ ह्रीं श्रीदेवशाष्त्र गुरव:!श्रीविद्यमानविंशतितीर्थङ्करा:! श्रीअनन्तानन्तसिद्ध परमेष्ठिन:! अत्र अवतरत अवतरत संवौषट्।
ॐह्रीं श्रीदेवशाष्त्र गुरव:! श्रीविद्यमानविंशतितीर्थङ्करा:! श्रीअनन्तानन्त सिद्धपरमेष्ठिन:! अत्र तिष्ठत तिष्ठत ठ: ठ: स्थापनम्।
ॐ ह्रीं श्रीदेवशाष्त्र गुरव: श्रीविद्यमानविंशतितीर्थंकरा: श्रीअनन्तानन्त सिद्धपरमेष्ठिन: अत्र मम सन्निहिता भवत भवत वषट्।
अनादिकाल से जग में स्वामिन्,जल से शुचिता को माना।
शुद्ध निजातम सम्यक् रत्नत्रय-निधि को नहिं पहचाना।
अब निर्मल रत्नत्रय जल ले,श्री देवशाष्त्र गुरु को ध्याऊँ।
विद्यमान श्री बीस तीर्थङ्कर,सिद्ध प्रभु के गुण गाऊँ॥
ॐ ह्रीं श्रीदेवशाष्त्र गुरुभ्य:-श्रीविद्यमानविंशतितीर्थङ्करेभ्य:-श्रीअनन्तानन्त-सिद्ध-परमेष्ठिभ्यो जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
भव आताप मिटावन की,निज में ही क्षमता समता है।
अनजाने अब तक मैंने,पर में की झूठी ममता है॥
चन्दन सम शीतलता पाने, श्री देवशाष्त्र गुरु को ध्याऊँ ।
विद्यमान श्री बीस तीर्थंकर, सिद्ध प्रभु के गुण गाऊँ॥
ॐह्रीं श्रीदेवशाष्त्र गुरुभ्य:-श्रीविद्यमानविंशतितीर्थङ्करेभ्य:-श्रीअनन्तानन्त-सिद्ध-परमेष्ठिभ्यो भवातापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा।
अक्षय पद बिन फिरा,जगत की-लख चौरासी योनी में।
अष्ट कर्म के नाश करन को,अक्षत तुम ढिंग लाया मैं॥
अक्षयनिधि निज की पाने को,श्री देवशाष्त्र गुरु को ध्याऊँ।
विद्यमान श्री बीस तीर्थङ्कर, सिद्ध प्रभु के गुण गाऊँ॥
ॐ ह्रीं श्रीदेवशाष्त्र गुरुभ्य:-श्रीविद्यमानविंशतितीर्थङ्करेभ्य:-श्रीअनन्तानन्त सिद्ध-परमेष्ठिभ्यो अक्षयपदप्राप्तयेऽक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।
पुष्प सुगन्धी से आतम ने,शील स्वभाव नशाया है।
मन्मथ बाणों से बिंध करके,चहुँगति दुख उपजाया है॥
स्थिरता निज में पाने को,श्री देव शा गुरु को ध्याऊँ।
विद्यमान श्री बीस तीर्थङ्कर,सिद्ध प्रभु के गुण गाऊँ॥
ॐ ह्रीं श्रीदेवशाष्त्र गुरु भ्य: श्रीविद्यमानविंशतितीर्थङ्करेभ्य: श्रीअनन्तानन्त-सिद्ध-परमेष्ठिभ्य: कामबाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
षट्रस मिश्रित भोजन से, ये भूख न मेरी शान्त हुयी।
आतमरस अनुपम चखने से,इन्द्रिय मन इच्छा शमन हुयी॥
सर्वथा भूख के मेटन को, श्री देव शा गुरु को ध्याऊँ।Q
विद्यमान श्री बीस तीर्थङ्कर, सिद्ध प्रभु के गुण गाऊँ॥
ॐ ह्रीं श्रीदेवशाष्त्र गुरुभ्य: श्रीविद्यमानविंशतितीर्थङ्करेभ्य:-श्रीअनन्तानन्त-सिद्ध-परमेष्ठिभ्य: क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जड़दीप विनश्वर को अब तक, समझा था मैंने उजियारा।
निज गुण दरशायक ज्ञान दीप से,मिटा मोह का अँधियारा॥
ये दीप समर्पण करके मैं,श्री देव शा गुरु को ध्याऊँ।
विद्यमान श्री बीस तीर्थङ्कर, सिद्ध प्रभु के गुण गाऊँ॥
ॐ ह्रीं श्रीदेवशाष्त्र गुरुभ्य: श्रीविद्यमानविंशतितीर्थङ्करेभ्य:-श्रीअनन्तानन्त-सिद्ध-परमेष्ठिभ्यो मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
ये धूप अनल में खेने से, कर्मों को नहीं जलायेगी।
निज में निज की शक्ति ज्वाला, जो राग द्वेष नशायेगी॥
उस शक्ति दहन प्रकटाने को, श्रीदेवशाष्त्र गुरु को ध्याऊँ।
विद्यमान श्री बीस तीर्थङ्कर, सिद्ध प्रभु के गुण गाऊँ॥
ॐ ह्रीं श्रीदेवशाष्त्र गुरुभ्य: श्रीविद्यमानविंशतितीर्थङ्करेभ्य:-श्री अनन्तानन्त सिद्ध-परमेष्ठिभ्यो अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा ।
पिस्ता बादाम श्रीफल लवंग, चरणन तुम ढिंग मैं ले आया।
आतमरस भीने निज गुण फल, मम मन अब उनमें ललचाया॥
अब मोक्ष महाफल पाने को, श्री देवशाष्त्र गुरु को ध्याऊँ।
विद्यमान श्री बीस तीर्थङ्कर, सिद्ध प्रभु के गुण गाऊँ ॥
ॐ ह्रीं श्रीदेवशाष्त्र गुरुभ्य: श्रीविद्यमानविंशतितीर्थङ्करेभ्य:-श्रीअनन्तानन्त सिद्ध-परमेष्ठिभ्यो मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
अष्टम वसुधा पाने को, कर में ये आठों द्रव्य लिये।
सहज शुद्ध स्वाभाविकता से,निज में निज गुण प्रकट किये ॥
ये अघ्र्य समर्पण करके मैं,श्री देव शा गुरु को ध्याऊँ।
विद्यमान श्री बीस तीर्थङ्कर, सिद्ध प्रभु के गुण गाऊँ॥
ॐ ह्रीं श्रीदेवशाष्त्र गुरुभ्य: श्रीविद्यमानविंशतितीर्थङ्करेभ्य: श्रीअनन्तानन्त सिद्ध-परमेष्ठिभ्योऽनर्घपद प्राप्तयेेऽर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
जयमाला
देव शा गुरु बीस तीर्थंकर, सिद्ध प्रभु भगवान।
अब वरणूँ जयमालिका, करूँ स्तवन गुणगान॥
नसे घातिया कर्म अर्हन्त देवा,
करें सुर-असुर नर-मुनि नित्य सेवा।
दरश ज्ञान सुख बल अनन्त के स्वामी,
छियालीस गुण युक्त महाईश नामी॥
तेरी दिव्य वाणी सदा भव्य मानी,
महा मोह विध्वंसिनी मोक्ष – दानी।
अनेकान्तमय द्वादशांगी बखानी,
नमो लोक माता श्री जैन वाणी॥
विरागी अचारज उवज्झाय साधू,
दरश-ज्ञान भण्डार समता अराधू।
नगन वेशधारी सु एका विहारी,
निजानन्द मण्डित मुकति पथ प्रचारी॥
विदेह क्षेत्र में तीर्थङ्कर बीस राजे,
विहरमान वन्दूँ सभी पाप भाजे।
नमूँ सिद्ध निर्भय निरामय सुधामी,
अनाकुल समाधान सहजाभिरामी॥
देव शा गुरु बीस तीर्थंकर, सिद्ध हृदय बिच धर ले रे।
पूजन ध्यान गान गुण करके, भव सागर जिय तर ले रे॥
ॐ ह्रीं श्री देवशाष्त्र गुरु भ्य:-श्रीविद्यमानविंशतितीर्थङ्करेभ्य:-श्रीअनन्तानन्त-सिद्ध-परमेष्ठिभ्योऽनघ्र्यपदप्राप्तये जयमाला महार्घं निर्वपामीति स्वाहा ।
भूत भविष्यत वर्तमान की तीस चौबीसी मैं ध्याऊँ।
चैत्य-चैत्यालय कृत्रिमाकृत्रिम तीन लोक के मन लाऊँ॥
ॐ ह्रीं त्रिकालसम्बन्धि तीसचौबीसी कृत्रिमाकृत्रिमचैत्यालयेभ्योऽर्घं निर्व. स्वाहा।
चैत्य भक्ति आलोचन चाहूँ ,कायोत्सर्ग अघ नाशन हेत।
कृत्रिमा-कृत्रिम तीन लोक के राजत हैं जिन बिम्ब अनेक॥
चतुर निकाय के देव जजें ले अष्ट द्रव्य निज भक्ति समेत।
निज शक्ति अनुसार जजूं मैं, कर समाधि पाऊँ शिवखेत॥
ॐ ह्रीं कृत्रिमाकृत्रिमचैत्यालयसम्बन्धि जिनबिम्बेभ्योऽर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
पूर्व मध्य अपराह की बेला, पूर्वाचार्यों के अनुसार।
देव वन्दना करूँ भाव से सकल कर्म की नाशन हार॥
पञ्च महागुरु सुमरन करके, कायोत्सर्ग करूं सुखकार।
सहज स्वभाव शुद्ध लख अपना जाऊँगा अब मैं भव पार॥
पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत्