11. श्री श्रेयान्सनाथ चालीसा

निज मन में करके स्थापित,
 पंच परम परमेष्ठि को ।
लिखूँ श्रेयान्सनाथ -चालीसा, 
मन में बहुत ही हर्षित हो ।।1

जय श्रेयान्सनाथ श्रुतज्ञायक हो,
 जय उत्तम आश्रय दायक हो ।
माँ वेणु पिता विष्णु प्यारे,
 तुम सिहंपुरी में अवतारे ।।2

जय ज्येष्ठ कृष्ण षष्ठी प्यारी,
 शुभ रत्नवृष्टि होती भारी ।
जय गर्भकत्याणोत्सव अपार,
 सब देव करें नाना प्रकार ।।3

जय जन्म जयन्ती प्रभु महान,
 फाल्गुन एकादशी कृष्ण जान ।
जय जिनवर का जन्माभिषेक, 
शत अष्ट कलश से करें नेक ।।4

शुभ नाम मिला श्रेयान्सनाथ,
 जय सत्यपरायण सद्यजात ।
निश्रेयस मार्ग के दर्शायक,
 जन्मे मति- श्रुत- अवधि धारक ।।5

आयु चौरासी लक्ष प्रमाण, 
तनतुंग धनुष अस्सी मंहान ।
प्रभु वर्ण सुवर्ण समान पीत, 
गए पूरब इवकीस लक्ष बीत ।।6

हुआ ब्याह महा मंगलकारी, 
सब सुख भोगों आनन्दकारी ।
जब हुआ ऋतु का परिवर्तन,
 वैराग्य हुआ प्रभु को उत्पन्न ।।7

दिया राजपाट सुत ‘श्रेयस्कर’, 
सब तजा मोह त्रिभुवन भास्कर ।
सुर लाए “विमलप्रभा’ शिविका, 
उद्यान ‘मनोहर’ नगरी का ।।8

वहाँ जा कर केश लौंच कीने,
परिग्रह बाह्मान्तर तज दीने ।
गए शुद्ध शिला तल पर विराज, 
ऊपर रहा “तुम्बुर वृक्ष’ साज ।।9

किया ध्यान वहाँ स्थिर होकर,
 हुआ जान मन:पर्यय सत्वर ।
हुए धन्य सिद्धार्थ नगर भूप,
 दिया पात्रदान जिनने अनूपा ।।10

महिमा अचिन्त्य है पात्र दान, 
सुर करते पंच अचरज महान ।
वन को तत्काल ही लोट गए,
 पूरे दो साल वे मौन रहे ।।11

आई जब अमावस माघ मास, 
हुआ केवलज्ञान का सुप्रकाश ।
रचना शुभ समवशरण सुजान, 
करते धनदेव-तुरन्त आन ।।12

प्रभु दिव्यध्वनि होती विकीर्ण,
 होता कर्मों का बन्ध क्षीण ।
“उत्सर्पिणी–अवसर्पिणी विशाल,
 ऐसे दो भेद बताये काल ।।13

एकसौ अड़तालिस बीत जायें, 
तब हुण्डा- अवसर्पिणी कहाय ।
सुरवमा- सुरवमा है प्रथम काल, 
जिसमें सब जीव रहें खुशहाल ।।14

दूजा दिखलाते ‘सुखमा’ काल, 
तीजा “सुखमा दुरवमा’ सुकाल ।
चौथा ‘दुखमा-सुखमा’ सुजान, 
‘दूखमा’ है पंचमकाल मान ।।15

‘दुखमा- दुखमा’ छट्टम महान, 
छट्टम-छट्टा एक ही समान ।
यह काल परिणति ऐसी ही,
 होती भरत- ऐरावत में ही ।।16

रहे क्षेत्र विदेह में विद्यमान,
 बस काल चतुर्थ ही वर्तमान ।
सुन काल स्वरुप को जान 
लिया, भवि जीवों का कल्याण हुआ ।।17

हुआ दूर- दूर प्रभु का विहार, 
वहाँ दूर हुआ सब शिथिलाचार ।
फिर गए प्रभु गिरिवर सम्मेद, 
धारें सुयोग विभु बिना खेद ।।18

हुई पूर्णमासी श्रावण शुक्ला,
 प्रभु को शाश्वत निजरूप मिला ।
पूजें सुर “संकुल कूट’ आन, 
निर्वाणोत्सव करते महान ।।19

प्रभुवर के चरणों का शरणा,
 जो भविजन लेते सुखदाय ।
उन पर होती प्रभु की करुणा,
 ‘अरुणा’ मनवाछिंत फल पाय ।।20

जाप: – ॐ ह्रीं अर्हं श्रेयान्सनाथाय नभः