61.दस लक्षण पूजा(उत्तम छिमा मरदाव आरजव )

उत्तम छिमा मरदाव आरजव भाव है,
सत्य शौच संयम तप त्याग उपाव हैं |
आकिंचन ब्रह्मचर्य धरम दश सार हैं,
चहुँगति दुखते काढि मुक्ति करतार हैं ||

ॐ ह्रीं उत्तम-क्षमा-मार्दव-आर्जव-शौच-सत्य-संयम-तप-त्याग-आकिंचन-ब्रह्मचर्य-आदि-दशलक्षण-धर्माय ! अत्र अवतर अवतर संवौषट ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट !
 
हेमाचलकी धार,मुनि-चित सम शीतल सुरभि |
भव-आतप निवार, दश-लच्चन पूजो सदा ||

ॐ ह्रीं उत्तम-क्षमा-मार्दव-आर्जव-शौच-सत्य-संयम-तप-त्याग-आकिंचन-ब्रह्मचर्य-आदि-दशलक्षण-धर्माय जन्म-जरा-मृत्यु-विनाशनाये जलं निर्वपामिति स्वाहा |
 
चन्दन केशर गार, होय सुवास दशों दिशा |
भव-आतप निवार, दश-लच्चन पूजो सदा ||

ॐ ह्रीं उत्तम-क्षमा-मार्दव-आर्जव-शौच-सत्य-संयम-तप-त्याग-आकिंचन-ब्रह्मचर्य-आदि-दशलक्षण-धर्माय संसारताप-विनाशनाये चन्दनं निर्वपामिति स्वाहा |
 
अमल अखंडित सार, तंदुल चन्द्र समान शुभ |
भव-आतप निवार, दश-लच्चन पूजो सदा ||

ॐ ह्रीं उत्तम-क्षमा-मार्दव-आर्जव-शौच-सत्य-संयम-तप-त्याग-आकिंचन-ब्रह्मचर्य-आदि-दशलक्षण-धर्माय अक्षय-पद प्राप्ताये अक्षतं निर्वपामिति स्वाहा |
 
फुल अनेक प्रकार, महके उरध-लोकलों |
भव-आतप निवार, दश-लच्चन पूजो सदा ||

ॐ ह्रीं उत्तम-क्षमा-मार्दव-आर्जव-शौच-सत्य-संयम-तप-त्याग-आकिंचन-ब्रह्मचर्य-आदि-दशलक्षण-धर्माय काम-बाण विध्वंसनाये पुष्पं निर्वपामिति स्वाहा |
 
नेवज विविध निहार, उत्तम षट-रस संजुगत |
भव-आतप निवार, दश-लच्चन पूजो सदा ||

ॐ ह्रीं उत्तम-क्षमा-मार्दव-आर्जव-शौच-सत्य-संयम-तप-त्याग-आकिंचन-ब्रह्मचर्य-आदि-दशलक्षण-धर्माय क्षुधा-रोग विनाशनाये नैवेद्यं निर्वपामिति स्वाहा |
 
बाती कपूर सुधार, दीपक-जोती सुहावनी |
भव-आतप निवार, दश-लच्चन पूजो सदा ||

ॐ ह्रीं उत्तम-क्षमा-मार्दव-आर्जव-शौच-सत्य-संयम-तप-त्याग-आकिंचन-ब्रह्मचर्य-आदि-दशलक्षण-धर्माय मोहान्धकार-विनाशनाये दीपं निर्वपामिति स्वाहा |
 
अगर धुप विस्तार, फैले सर्व सुगन्धता |
भव-आतप निवार, दश-लच्चन पूजो सदा ||

ॐ ह्रीं उत्तम-क्षमा-मार्दव-आर्जव-शौच-सत्य-संयम-तप-त्याग-आकिंचन-ब्रह्मचर्य-आदि-दशलक्षण-धर्माय अष्ट-कर्म-दह्नाये धूपं निर्वपामिति स्वाहा |
 
फल की जाति अपार, घ्राण-नयन-मन-मोहने |
भव-आतप निवार, दश-लच्चन पूजो सदा ||

ॐ ह्रीं उत्तम-क्षमा-मार्दव-आर्जव-शौच-सत्य-संयम-तप-त्याग-आकिंचन-ब्रह्मचर्य-आदि-दशलक्षण-धर्माय महामोक्ष-फल प्राप्ताये निर्वपामिति स्वाहा |
 
आठो दरब संवार, धानत अधिक उछाहसौ |
भव-आतप निवार, दश-लच्चन पूजो सदा ||

ॐ ह्रीं उत्तम-क्षमा-मार्दव-आर्जव-शौच-सत्य-संयम-तप-त्याग-आकिंचन-ब्रह्मचर्य-आदि-दशलक्षण-धर्माय अनर्घ-पद-प्राप्तये अर्घं निर्वपामिति स्वाहा |
 
सोरठा:-
पीडे दुष्ट अनेक, बांध मार बहुविधि करें |
धरिये छिमा विवेक, कोप न कीजे पीतमा ||
 
उत्तम छिमा गहो रे भाई, इह-भव जस पर-भव सुखदाई |
गाली सुनि मन खेद न आनो, गुन को औगुन कहे अयानो ||

कहि हैं अयानो वस्तु छीने, बांध मार बहुविधि करे |
घर ते निकारे तन विदारे, बैर जो न तहां धरे ||

तै करें पूरब किये खोटे, सहे क्यों नहीं जियारा |
अति क्रोध अग्नि बुझाय प्रानी, साम्य-जल ले सीयारा ||१||

ॐ ह्रीं उत्तम-क्षमा धर्मागाय अर्घं निर्वपामिति स्वाहा |
 
मान महाविषरूप, करहि नीच-गति जगत में |
कोमल सुधा अनूप, सुख पावे प्राणी सदा ||

उत्तम मार्दव गुन मनमाना, मान करन को कोण ठिकाना |
वस्यो निगोद माहि तै आया, दमरी रुकन भाग बिकाया ||

रुकन बिकाया भाग वशतै, देव एक-इंद्री भया |
उत्तम मुआ चांडाल हुवा, भूप कीड़ो में गया ||

जीतव्य जोवन धन गुमान, कहा करे जल-बुदबुदा |
करी विनय बहु-गुन बड़े जनकी, ज्ञान का पावे उदा ||२||

ॐ ह्रीं उत्तम-मार्दव धर्मागाय अर्घं निर्वपामिति स्वाहा |
 
कपट न कीजे कोई, चोरन के पूर ना बसे |
सरल सुभावी होय, टेक घर बहु सम्पदा ||

उत्तम आर्जव रीती बखानी, रंचक दगा बहुत दुःख दानी |
मन में हो सो वचन उचरिये, वचन होय सो तन से करिये ||

करिये सरल तिहु जोग अपने, देख निर्मल आरसी |
मुख करे जैसा लाखे तेसा, कपट-प्रीति अंगारसी ||

नहिं लहे लछमी अधिक छल करि, कर्म-बांध विशेषता |
भय त्यागी दूध बिलाव पीवे, आपदा नहीं देखता ||३||

ॐ ह्रीं उत्तम-आर्जव धर्मागाय अर्घं निर्वपामिति स्वाहा |
 
धरी हिरिदे संतोष, करहु तपस्या देह सों |
शौच सदा निरदोष, धरम बड़ो संसार में ||

उत्तम शौच सर्व जग जाना, लोभ पाप को बाप बखाना |
आसा-पास महा दुःख दानी, सुख पावे संतोषी प्रानी ||

प्रानी सदा शुची शीत जप तप, ज्ञान ध्यान प्रभाव तै |
नित गंग जमुन समुंद्र नहाये, अशुचि-दोष स्वाभाव तै ||

ऊपर अमल मल भरयो भीतर, कौन विधि घट सूचि कहे |
बहु देह मली सुगुन-थैली, शौच-गन साधू लहे ||४||

ॐ ह्रीं उत्तम-शौच धर्मागाय अर्घं निर्वपामिति स्वाहा |
 
कठिन वचन मत बोल, पर निंदा अरु झूठ तज |
सांचे जवाहर खोल, सतवादी जग में सुखी ||

उत्तम-सत्य-वरत पा लीजे, पर-विश्वातघात नहीं कीजे |
साचे-झूठे मानुष देखो, आपण पूत स्वपास न पेखो ||

पेखो तिहायत पुरुष साचे, को दरब सब दीजिये |
मुनिराज-श्रावक की प्रतिष्ठा, साँच गुण लिख लीजिये ||

ऊँचे सिंहासन बैठे वसु नृप, धरं का भूपति भया |
वच झूठ नरक पंहुचा, सुरग में नारद गया ||५||

ॐ ह्रीं उत्तम-सत्य धर्मागाय अर्घं निर्वपामिति स्वाहा |

काय छहों प्रतिपाल, पंचेन्द्रिय मन वश करो |
संजम-रतन संभाल, विषय-चोर बहु फिरत हैं ||

उत्तम संयम गहू मन मेरे भव-भव के भाजे अध तेरे |
सुरगनरक पशुगति में नाही, आलस हरन करन सुख ठाही ||

ठाही पृथ्वी जल आग मारुत, रख त्रस करुना धरो |
सपरसन रसना घ्रान नैना, कान मन सब वश करो ||

जिस बिना नहीं जिनराज सीजे, तू रुल्यो जग कीच में |
इक धरी मत विसरो करी नित, आव जम मुख बीच में ||६||

ॐ ह्रीं उत्तम-संयम धर्मागाय अर्घं निर्वपामिति स्वाहा |

 तप चाहे सुरराय, करम शिखर को वज्र हैं |
द्वादश विधि सुखदाय, क्यों न करे निज शक्ति सम ||

उत्तम तप सब माहि बखाना, करम-शैल को वज्र समाना |
वस्यो अनादी निगोद मंझारा, भू विकलत्रय पशु तन धारा ||

धरा मनुष तन महादुर्लभ, सुकुल आयु निरोगता |
श्रीजैनवाणी तत्वज्ञानी, भई विषय-पयोगता ||

अति महा दुरलभ त्याग विषय, कषाय जो तप आदरै |
नर-भव अनुपम कनक घर पर, मणिमय कलसा धरै ||७||

ॐ ह्रीं उत्तम-तप धर्मागाय अर्घं निर्वपामिति स्वाहा |

 दान चार परकार, चार संघ को दीजिये |
धन बिजुली उनहार, नर-भव लाहो लीजिये ||

उत्तम त्याग कह्यो जग सारा, औषध शाष्त्र अभय सहारा |
निहचे राग द्वेष निरवारे, ज्ञाता दोनों दान संभारे ||

दोनों संभारे कूप-जल सम, दरब घर में परिनया |
निज हाथ दीजे साथ लीजे, खाय खोया बह गया ||

धनि साध शास्त्र अभय दिवैया, त्याग राग विरोध को |
बिन दान श्रावक साधू दोनों, लाहे नहीं बोध को ||८||

ॐ ह्रीं उत्तम-त्याग धर्मागाय अर्घं निर्वपामिति स्वाहा |

 परिग्रह चौबीस भेद, त्याग करे मुनिराज जी |
तिसना भाव उछेद, घटती जान घटाइये ||

उत्तम अकिंचन गुण जानो, परिग्रह चिन्ता दुःख ही मानो |
फाक तनस सी तन में साले, चाह लंगोटी की दुःख भाले ||

भाले न समता सुख कभी नर, बिन मुनि मुद्रा धरें 
धनि नगन पर तन-नगन ठाई, सुर-असुर पायानी परै ||

घरमाहीं तिसना जो घटावे, रूचि नहीं संसार सौ |
बहु धन बुरा हु भला कहिये, लीं पर उपगार-सौ ||

ॐ ह्रीं उत्तम-आकिंचन धर्मागाय अर्घं निर्वपामिति स्वाहा |

 शील-बढ़ नौ राख, ब्रह्मा भाव अंतर लखो |
करी दोनों अभिलाख, करहु सफल नरभव सदा ||

उत्तम ब्रह्मचर्य मन आनो, माता बहिन सुता पहिचानो |
सहे बान-वरषा बहु सुरे, टिके न नैन-बान लखि कुरे ||

कुरे तिया के अशुचि तन में, काम-रोगी रति करें |
बहु मृतक सडहिं मसान माहीं, त्काग ज्यो चोच भरे ||

संसार में विष वेली नारी, तजि गए जोगिश्वरा |
धानत धरं दश पैडी चढ़ीके, शिव-महल में पग धरा ||

ॐ ह्रीं उत्तम-ब्रह्मचर्य धर्मागाय अर्घं निर्वपामिति स्वाहा |

जयमाला

दश लच्चन वंदो सदा, मनवांछित फलदाय |
कहो आरती भारती, हम पर होहु सहाय ||

उत्तम क्षिमा जहाँ मन होई, अंतर-बाहिर शत्रु न कोई |
उत्तम मार्दव विनय प्रकाशे , नाना भेद ज्ञान सन भासे ||

उत्तम आर्जव कपट मिटावे, दुरगति त्यागी सुगति उपजावे |
उत्तम सत्य वचन मुख बोले, सो प्राणी संसार न डोले ||

उत्तम शौच लोभ-परिहारी, संतोषी गुण-रतन भण्डारी |
उत्तम संयम पाले ज्ञाता, नर-भव सकल करे ले साता ||

उत्तम तप निर्वांछित पाले, सो नर करम-शत्रु को टाले |
उत्तम त्याग करे जो कोई, भोगभूमि-सुर-शिवसुख होई ||

उत्तम आकिंचन व्रत धारै, परम समाधी दशा विस्तारे |
उत्तम ब्रह्मचर्य मन लावे, नर-सुर सहित मुकती-फल पावे ||

ॐ ह्रीं उत्तम-क्षमा-मार्दव-आर्जव-शौच-सत्य-संयम-तप-त्याग-आकिंचन-ब्रह्मचर्य-आदि-दशलक्षण-धर्माय जयमाला पूर्णार्घम निर्वपामिति स्वाहा |

दोहा:-
करे करम की निरजरा, भव पिंजरा विनाश |
अजर अमर पद को लहे, धानत सुख की राश ||

||इत्याशिर्वाद||
||पुष्पांजलि क्षिपित||