26. दर्शन पाठ, तुम निरखत मुझको मिली

तुम निरखत मुझको मिली, मेरी सम्पति आज।
कहाँ चक्रवर्ति-संपदा कहाँ स्वर्ग-साम्राज॥1
 
तुम वन्दत जिनदेव जी, नित नवमंगल होय।
विघ्न कोटि ततछिन टरैं,लहहिं सुजस सब लोय॥2
 
तुम जाने बिननाथ जी, एक स्वाँस के माँहिं।
जन्म-मरण अठदस किये, साता पाई नाहिं॥3
 
आप बिना पूजत लहे, दु:ख नरक के बीच।
भूख प्यास पशुगति सही, कर्यो निरादर नीच॥4
 
नाम उचारत सुख लहै, दर्शनसों अघ जाय।
पूजत पावै देव पद, ऐसे हैं जिनराय॥5
 
वंदत हूँ जिनराज मैं, धर उर समताभाव।
तन-धन-जन जगजाल तैं धर विरागताभाव॥6
 
सुनो अरज हे नाथ जी, त्रिभुवन के आधार।
दुष्ट कर्म का नाश कर,वेगि करो उद्धार ॥7
 
जाचत हूँ मैं आपसों, मेरे जियके माँहिं।
रागद्वेषकी कल्पना, कबहूँ उपजै नाहिं ॥8
 
अति अद्भुत प्रभुता लखी, वीतरागतामाँहिं।
विमुख होहिं ते दु:ख लहैं,सन्मुख सुखी लखाहिं ॥9
 
कलमल कोटिकनहिं रहैं, निरखत ही जिनदेव।
ज्यों रवि ऊगत जगत् में, हरै तिमिर स्वयमेव ॥10
 
परमाणू पुद्गलतणी, परमातम संजोग ।
भई पूज्य सब लोक में, हरे जन्म का रोग ॥11
 
कोटि जन्म में कर्म जो, बाँधे हुते अनन्त ।
ते तुम छवी विलोकते, छिनमें हो हैं अन्त ॥12
 
आन नृपति किरपा करै, तब कछु दे धन धान ।
तुमप्रभु अपने भक्त को, करल्यो आप समान॥13
 
यंत्र मंत्र मणि औषधी, विषहरराखत प्रान ।
त्यों जिनछवि सब भ्रम हरै, करै सर्व परधान ॥14
 
त्रिभुवनपति हो ताहि तैं, छत्र विराजैं तीन ।
सुरपति नाग नरेशपद, रहैं चरन आधीन॥15
 
भवि निरखत भव आपने, तुम भामण्डल बीच ।
भ्रम मेटैं समता गहै,नाहिं सहै गति नीच ॥16
 
दोई ओर ढोरत अमर, चौंसठ चमर सफेद ।
निरखतभविजन का हरैं,भव अनेक का खेद॥17

तरु अशोक तुम हरत है, भवि-जीवन का शोक ।
आकुलता कुल मेटि कें, करैं निराकुल लोक॥18
 
अन्तर बाहिर परिगहन, त्यागासकल समाज ।
सिंहासन पर रहत हैं, अन्तरीक्ष जिनराज॥19
 
जीत भई रिपुमोहतैं, यश सूचत है तास ।
देव दुन्दुभिन के सदा, बाजे बजैं आकाश॥20
 
बिन अक्षर इच्छा रहित, रुचिर दिव्यध्वनि होय।
सुर नर पशु समझैं सबै, संशय रहै नकोय ॥21
 
बरसत सुरतरु के कुसुम, गुंजत अलि चहुँ ओर ।
फैलत सुजससुवासना, हरषत भवि सब ठौर॥22
 
समुद्र बाध अरु रोग अहि, अर्गल बंध संग्राम।
विघ्न विषम सब ही टरैं, सुमरत ही जिन नाम ॥23
 
सिरीपाल, चंडाल पुनि,अञ्जन भीलकुमार ।
हाथी हरि अरि सब तरे, आज हमारी बार ॥24
 
‘बुधजन’ यहविनती करै, हाथ जोड़ शिर नाय।
जबलौं शिव नहिं होय तुमभक्ति हृदय अधिकाय॥25