13. श्री विमलनाथ चालीसा
सिद्ध अनन्तानन्त नमन कर,
सरस्वती को मन में ध्याय ।
विमलप्रभु क्री विमल भक्ति
कर,चरण कमल में शीश नवाय ।।
जय श्री विमलनाथ विमलेश,
आठों कर्म किए नि:शेष ।
कृतवर्मा के राजदुलारे,
रानी जयश्यामा के प्यारे ।।
मंगलीक शुभ सपने सारे,
जगजननी ने देखे न्यारे ।
शुक्ल चतुर्थी माघ मास की,
जन्म जयन्ती विमलनाथ की ।।
जन्योत्सव देवों ने मनाया,
विमलप्रभु शुभ नाम धराया ।
मेरु पर अभिषेक कराया,
गन्धोंदक श्रद्धा से लगाया ।।
वस्त्राभूषण दिव्य पहनाकर,
मात-पिता को सौंपा आकर ।
साठ लाख वर्षायु प्रभु की,
अवगाहना थी साठ धनुष की ।।
कंचन जैसी छवि प्रभु-तन की,
महिमा कैसे गाऊँ मैं उनकी ।
बचपन बीता, यौवन आया,
पिता ने राजतिलक करवाया ।।
चयन किया सुन्दर वधुओं का,
आयोजन किया शुभ विवाह का ।
एक दिन देखी ओस घास पर,
हिमकण देखें नयन प्रीतिभर ।।
हुआ संसर्ग सूर्य रश्मि से,
लुप्त हुए सब मोती जैसे ।
हो विश्वास प्रभु को कैसे,
खड़े रहे वे चित्रलिखित से ।।
“क्षणभंगुर है ये संसार,
एक धर्म ही है बस सार ।
वैराग्य हृदय में समाया,
छोडे क्रोध -मान और माया ।।
घर पहुँचे अनमने से होकर,
राजपाट निज सुत को देकर ।
देवीमई शिविका पर चढ़कर,
गए सहेतुक वन में जिनवर ।।
माघ मास-चतुर्थी कारी,
“नम: सिद्ध” कह दीक्षाधारी ।
रचना समोशरण हितकार,
दिव्य देशना हुई सुरवकार ।।
उपशम करके मिथ्यात्व का,
अनुभव करलो निज आत्म का ।
मिथ्यात्व का होय निवारण,
मिटे संसार भ्रमण का कारणा ।।
बिन सम्यक्तव के जप-तप-पूजन,
विष्फल हैँ सारे व्रत- अर्चन ।
विषफल हैं ये विषयभोग सब,
इनको त्यागो हेय जान अब ।।
द्रव्य- भाव्-नो कमोदि से,
भिन्न हैं आत्म देव सभी से ।
निश्चय करके हे निज आतम का,
ध्यान करो तुम परमात्म का ।।
ऐसी प्यारी हित की वाणी,
सुनकर सुखी हुए सब प्राणी ।
दूर-दूर तक हुआ विहार,
किया सभी ने आत्मोद्धारा ।।
‘मन्दर’ आदि पचपन गणधर,
अड़सठ सहस दिगम्बर मुनिवर ।
उम्र रही जब तीस दिनों क,
जा पहुँचे सम्मेद शिखर जी ।।
हुआ बाह्य वैभव परिहार,
शेष कर्म बन्धन निरवार ।
आवागमन का कर संहार,
प्रभु ने पाया मोक्षागारा ।।
षष्ठी कृष्णा मास आसाढ़,
देव करें जिनभवित प्रगाढ़ ।
सुबीर कूट पूजें मन लाय,
निर्वाणोत्सव को’ हर्षाय ।।
जो भवि विमलप्रभु को ध्यावें।
वे सब मन वांछित फल पावें ।
‘अरुणा’ करती विमल-स्तवन,
ढीले हो जावें भव-बन्धन ।।
जाप: – ॐ ह्रीं अर्हं श्री विमलप्रभु नमः