6.दीपावली पूजन पार्ट
पूजा करने वाले को पूर्व या उत्तर दिशा में मुख कर के पूजा करना चाहिये। जो परिवार में बडा हो या दुकान का मालिक हो वह चित्त एकाग्र कर पूजा करे और उपस्थित सभी लिग पूजा बोलें तथा शांति से सुनें। पूजा प्रारम्भ करने से पहले उपस्थित सब सज्जनों को तिलक लगाना चाहिये तथा दाहिने हाथ में कंकण बाँधना चाहिये। तिलक करते समय नीचे लिखा श्लोक पढे।
मंगलम भगवान वीरो, मंगलम गौतमो गणी।
मंगलम कुन्द कुन्दार्यो, जैन धर्मोस्तु मंगलम्।।
तिलक करने के बाद नित्य-नियम-पूजा करके श्री महावीर स्वामी श्री गौतम गणधर स्वामी तथा श्री सरस्वती देवी की पूजा करनी चाहिये।
नई बही मुहूर्त की सामग्री
अष्ट द्रव्य धुले हुए, धूपदान 1, दीपक 2, लालचोल 1 मीटर, सरसों 50 ग्राम, थाली 1, श्रीफल1, लोटा जल का1, लच्छा, शाख 1, धूप 50ग्राम, अगरबत्ती, पाटे 2, चौकी 1, कुंकुम 50ग्राम, केसर पिसी हुई, कोरे पान, दवात, कलम (या लीड) 2सिन्दूर घी मिलाकर (श्री महावीरायनमः और लाभ शुभ दुकान की दीवाल पर लिखने को) फूलमालायें, नई बहियाँ, माचिस, कपूर देशी सुपारी आदि।
नवीन बही मुहूर्त
पूजा के पश्चात हर बही में केशर से साथिय मांड कर निम्न प्रकार लिखें तथा एक- एक कोरा पान रखे।
श्री
श्री श्री
श्री श्री श्री
श्री श्री श्री श्री
श्री श्री श्री श्री श्री
श्री ऋषभ देवाय नमः।श्री महावीराय नमः।।
श्री गौतम-गणधरायनमः।केवलज्ञान लक्ष्म्यै।।
श्री जिन सरस्वत्यै नमः।।
श्री शुभ मिति कार्तिक बदी3।।
………वार्।। दिनांक …/…/19ई. को शुभ बेला में दुकान श्री
की बही का मुहूर्त किया
यह विधि हो जाने के बाद विधि करनेवाले, दुकान के मुख्य सजन को बही में लच्छ बान्ध कर हाथ में बही देवें और पुश्प क्षेपे।
इसके बाद घर के प्रमुख महाशय नीचे लिखा हुआ पद्य व मंत्र पढकर शुभकामना करें और फूलमाला पहिनाकर पुष्प क्षेपण करें।
पद्य
आरोग्य बुद्धि धन धान्य समृद्धि पावें।
भय रोग शोक परिताप सुदुर जावें।
सद्धर्म शास्त्र गुरु भक्ति सुशांति होवे।
व्यापार लाभ कुल वृद्धि सुकीर्ती होवे।।
श्री वर्द्धमान भगवान सुबुद्धि देवें।
सन्मान सत्यगुण संयम शील देवें।।
नव वर्ष हो यह सद सुख शांति दाई।
कल्याण हो शुभ तथा अति लाभ होवे।।
पूजा प्रारम्भ
अर्हंतो भग्वंत इन्द्रमहिताः सिद्धीश्वराः।
आचार्या जिन शासनोन्नतिकराःपूज्या उपाध्यायकाः।।
श्रीसिद्धांतसुपाठ का मुनिवरा रत्नत्रयाराधकाः।
पंचैते परमेष्ठि नः प्रतिदिनं कुर्वंतु नः मंगलम्।।
ओं जय जय जय नमोस्तु नमोस्तु नमोस्तु।
णमो अरहंताणं, ण्मो सिद्धाणं,
णमो आइरियणं, णमो उवज्झायाणं,
णमो लोए सव्वसाहूणं।
चतत्तारि मंगलम,अरिहंता मंगलम,
सिद्धा मंगलम, साहू मंगलम्।
केवलि पण्णत्तोधम्मो मंगलम्।
चत्तारि लोगुत्तम, अरिहंतालोगुत्तमा
सिद्धा लोगुत्तमा,साहू लोगुत्तम।
केवलिपण्णत्तो धम्मोलोगुत्तमा,
चत्तारिसरणं पव्वज्जामि, सहूशरणं पव्वज्जामि केवलिपण्णत्तं धम्मं सरणंपव्वज्जामि।
ऊँअनादिमूलमंत्रेभ्यो नमः
(यह पढ कर पुष्पांजलि क्षेपित करें)
बिनायक यंत्र पूजा अर्ध्य
अच्छाम्भः शुचि चन्दनाक्षत सुमै-नैर्वेद्य कैश्चारुभिः।
दीपैर्धूप फलोत्तमैः समुदितैरेभिः सुपात्रस्थितैः।।
अर्हत्सिद्ध सुसूरिपाठक मुनीन लोकोत्तमान मंगलान्।
प्रत्यूहौधनिवृत्तये शुभकृतः, सेवे शरण्यानहम्।।
ऊँ ह्रीं श्री शरणभूतेभ्यः पंचपरमेष्ठिभ्यः अर्ध्यम निर्वपामीति स्वाहा।
देव शास्त्र-गुरु पूजा का अर्ध्य
जल परम उज्जवल गन्ध अक्षत- पुष्प चरु धरुँ।
वर धूप निर्मल फल विविध बहु जनम के पातक हरुँ।।A
इह भाँति अर्ध्य चढाय नित भवि करत शिव पंकति मचूँ।
अरहंत श्रुत सिद्धांत गुरु निर्ग्रंथ नित पूजा रचूँ।।
वसुविधि अर्ध्य संजोय कै, अति उछाहमन कीन्।
जासों पूजों परम पद, देवशास्त्र-गुरु तीन्।।
ऊँ श्री देवशास्त्र गुरुभ्यो अनर्ध्यपद प्राप्तये अर्ध्यम निर्पामीति स्वाहा।
बीस महाराज का अर्ध्य
जल फल आठों द्रव्य संभार, रत्न जवाहर भर भर थार्।
नमूँ कर जोड, नित प्रति ध्याऊँ भोरहिं भोर।।
पाँचों मेरु विदेह सुथान, तीर्थंकर जिन बीस महान।
नमूँ कर जोड नित प्रति ध्याऊँ भोरहिं भोर।।
ऊँ ह्रीं श्री विदेहक्षेत्रस्य सीमन्धरादि विद्यमांर्विर्शति तीर्थंकरेभ्यो अर्ध्यम निर्वपामीति स्वाहा ।।
सिद्ध पर्मेष्ठी का अर्ध्य
जल फल वसु वृन्दा, अरघ अमन्दा, जजत अनन्दा के कन्दा।
मेटे भवफन्दा, सब दु:ख दन्दा, हीराचन्दा तुम बन्दा।।
त्रिभुवन के स्वामी, त्रिभुवन, नामी, अंतरजामी अभिरामी।
शिवपुर विश्रामी, निज निधिपामी सिद्धजजामी सिरनामी।।
ऊँ ह्रीं श्री अनाहत परक्रमाय सर्वकर्म विनिर्मुक्ताय सिद्धपरमेष्ठिने अर्घ्यम निर्वपामीति स्वाहा।
चौबीस महाराज का अर्ध्य
फलफल आठों शुचिसार, ताको अर्घ करों।
तुमको अरपों भवतार, भवतरि मोक्ष वरों।।
चौबीसों श्री जिनचन्द, आनन्द कन्द सही।
पदजजत हरत भव फन्द, पावक मोक्षमही।।
अंतरायकर्म नाशार्थ अर्ध्य
लाभ की अंतराय के वस जीवसु न लहै।
जो करै कष्ट उत्पात सगरे कर्मवस विरथा रहै।।
नहीं जोर वाको चले इक छिन दीन सौ जग में फिरै।
अरिहंत सिद्ध अधर धरिकै लाभ यौ कर्म कौ हरै।।
ऊँ ह्रीं लाभांतरायकर्म रहिताभ्याम अहर्तसिद्ध परमेष्ठिभ्याम अर्घ्यम निर्वपामीति स्वाहा।
पुष्पांजलिं क्षिपेत
[9]
श्री महावीर जिनपूजा
(कविवर वृन्दावन कृत)
श्रीमतवीर हरै भवपीर सुखसीर अनाकुलताई।
के हरि अंक अरीकर दंक नये हरि पंकति मौलिसुहाई।।
मैं तुमको इत थापत हों प्रभु भक्ति समेत हिये हरखाई।
हे करुणाधन धारक देव, इहां अब तिष्ठहु शीघ्रहिं आई।।
ऊँ ह्रीं श्री वर्द्धमान जिनेन्द्राय पुष्पांजलिः।
क्षीरोदधि सम शुचि नीर, कंचन भृग भरों।
प्रभुवेग हरो भव्पीर, यातैंधार करों।
श्रीवीर महा अतिवीर, सन्मति नायक हो।
जय वर्द्धमान गुणधीर, सन्मतिदायक हो।।
ऊँ ह्रीं श्री महावीर जिनेन्द्राय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
मलयागिर चन्दन सार, केसर संग धसों।
प्रभु भव आताप निवार, पूजत हिय हुलसों।।
श्रीवीर महा अतिवीर, सन्मति नायक हो।
जय वर्द्धमान गुणधीर, सन्मतिदायक हो।।
ऊँ ह्रीं श्री महावीर जिनेन्द्राय चन्दनम निर्वपामीति स्वाहा।
तन्दुलसित शशिसम शुद्ध लीनों थार भरी।
तसु पुंज धरों अविरुद्ध, पावों शिव नगरी।।
श्रीवीर महा अतिवीर, सन्मति नायक हो।
जय वर्द्धमान गुणधीर, सन्मतिदायक हो।।
ऊँ ह्रीं श्री महावीर जिनेन्द्राय अक्षतान निर्वपामीति स्वाहा।
सुरतरु के सुमन समेत, सुमन सुमन प्यारे।
सो मंथन भंजन हेत, पूजों पद थारे।।
श्रीवीर महा अतिवीर, सन्मति नायक हो।
जय वर्द्धमान गुणधीर, सन्मतिदायक हो।।
ऊँ ह्रीं श्री महावीर जिनेन्द्राय पुष्पम निर्वपामीति स्वाहा।
रस रज्जत सज्जत सद्य, मज्जत थार भरी।
पद जज्जत रज्जत अद्य, भज्जत भूख अरी।।
श्रीवीर महा अतिवीर, सन्मति नायक हो।
जय वर्द्धमान गुणधीर, सन्मतिदायक हो।।
ऊँ ह्रीं श्री महावीर जिनेन्द्राय नैवेद्यम निर्वपामीति स्वाहा।
तम खन्डित मन्डित नेह, दीपक जोवत हों।
तुम पदतर हे सुख गेह, भ्रमतम खोवत हों।।
श्रीवीर महा अतिवीर, सन्मति नायक हो।
जय वर्द्धमान गुणधीर, सन्मतिदायक हो।।
ऊँ ह्रीं श्री महावीर जिनेन्द्राय दीपम निर्वपामीति स्वाहा।
हरि चन्दन अगर कपूर चूर सुगन्ध करा।
तुम पदतर खेवत भूरि, आठों कर्म जरा।।
श्रीवीर महा अतिवीर, सन्मति नायक हो।
जय वर्द्धमान गुणधीर, सन्मतिदायक हो।।
ऊँ ह्रीं श्री महावीर जिनेन्द्राय धूपम निर्वपामीति स्वाहा।
रितुफल कल वर्जित लाय, कंचन थार भरों।
शिवफलहित हे जिनराय, तुम ढिग भेंट धरों।।
श्रीवीर महा अतिवीर, सन्मति नायक हो।
जय वर्द्धमान गुणधीर, सन्मतिदायक हो।।
ऊँ ह्रीं श्री महावीर जिनेन्द्राय फलम निर्वपामीति स्वाहा।
जल फल वसु सजि हिम थार, तनमन मोद धरों।
गुण गाऊँ भवदधितार, पूजत पाप हरों।।
श्रीवीर महा अतिवीर, सन्मति नायक हो।
जय वर्द्धमान गुणधीर, सन्मतिदायक हो।।
ऊँ ह्रीं श्री महावीर जिनेन्द्राय अर्ध्यम निर्वपामीति स्वाहा।
पंच कल्याणक
मोहि रखो हो सरना श्रीवर्द्धमान जिनराय जी मोहि रखो हो सरना।
गरम साढ सित छट्ठ लिओ तिथि, त्रिशला उर अघहरना।
सुर सुरपति तित सेव करीनित, मैं पूजौं भव तरना।।
मोहि रखो हो सरना श्रीवर्द्धमान जिनराय जी मोहि ..
ऊँ ह्रीं श्री महावीर जिनेन्द्राय आषाढ शुक्लषष्ठ्यां गर्म मन्गल मण्डिताय अर्ध्यम निर्वपामीति स्वाहा।
जनम चैतसित तेरस के दिन कुन्डलपुर कनवरना।
सुरगिर सुर गुरु पूज रचायो मैं पूजों भवहारना।।
मोहि रखो हो सरना श्रीवर्द्धमान जिनराय जी मोहि ..
ऊँ ह्रीं जैव शुक्ल त्रयोदश्यां जन्ममंगल प्राप्ताय श्री महावीर जिनेन्द्राय अर्ध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
मगसिर असित मनोहर दश्मी, ता दिन तप आचरना।
नृप कुमार घर पारन कीनो, मैं पूजो तुम चरना।।
मोहि रखो हो सरना श्रीवर्द्धमान जिनराय जी मोहि ..
ऊँ ह्रीं मार्गशीर्षकृष्ण[2]दशम्यां तपो मंगल मंडिताय श्री महावीर जिनेन्द्राय अर्ध्यम निर्वपामीति स्वाहा।
शुक्ल दशै बैशाख दिवस अरि घाति चतुक छय करना।
केवल लहि भवि भवसरतारेम जजों चरन सुख भरना।।
मोहि रखो हो सरना श्रीवर्द्धमान जिनराय जी मोहि ..
ऊँ ह्रीं बैसाख शुक्ल दश्म्याम ज्ञान कल्याण प्राप्ताय श्री महावीर जिनेन्द्राय अर्ध्यम निर्वपामीति स्वाहा।
कातिक श्याम अमावस शिवतिय, पावापुर तें बरना।
गनफनिवृन्द जजें तित बहुविधि, मैं पूजौं भवहरना।।
मोहि रखो हो सरना श्रीवर्द्धमान जिनराय जी मोहि ..
ऊँ ह्रीं कार्तिक कृष्णामावस्यायां मोक्षमंगलमंडिताय श्री महावीर जिनेन्द्राय अर्ध्यम निर्वपामीति स्वाहा।
जयमाला
गनधर, असनिधर, चक्रधर,
हरधर गदाधर वरवदा।
अरु चापधर विद्यासुधर ,
तिरसूलधर सेवहिं सदा।।
दुख हरन आनन्द भरन तारन
तरन चरन रसाल है।
सुकुमाल गुनमनिमाल उन्नत,
भाल की जयमाल है।।
जय त्रिशला नन्दन, हरिकृत वन्दन,
जगदानन्द, चन्दवरं।
भव तापनिकन्दन तन कन मन्दन
रहितसपन्दन, नयनधरं।।
जय केवल भानु कला सदनं।
भविकोक विकाशन कंजवनं।
जगजीत महारिपु मोहहरं।
रजज्ञान दृगांबर चूरकरं।।
गर्वादिक मंगल मंडित हो।
दुख दारिद्र को नित खन्डित हो।
जगमांहि तुम्ही सत्पंडित हो।
दुख दारिद्र को नित खंडित हो।
हरिवंश सरोजन को रवि हो।
बल्वन्त महंत तुम्हीं कवि हो।।
लहि केवल धर्म प्रकाश कियो।
अबलों सोई मारगराजतियो।
पुनि आपतने गुनमांहि सही।
सुर मग्न रहै जितने सबहीं।।
तिनकी बनिता गुणगावत हैं।
लय माननि सों मन भवत हैं।
पुनि नाचत रंग उमंग भरी।
तुम भक्ति विषै पग एम धरी।।
झननं झननं झननं झननं।
सुर लेत तहां तननं तननं।
घननं घननं घन घंट बजै।
दृमदं दृमदं मिरदंग सजै।
गगनांगनगर्भगता सुगता।
ततता ततता अतता वितता।।
धृगतां धृगतां गति बाजत है।
सुरताल रसाल जु छाजत है।
सननं सननं सननं नभमें।
इक रूप अनेक जुधारि भ्रमैं।।
कै नारि सुबीन बजावति हैं।
तुमरो जस उज्ज्वल गावति हैं।
करताल विषै करताल धरै।
सुरताल विशाल जुनाद करै।।
इन आदि अनेक उछाह भरी।
सुर भक्ति करें प्रभुजी तुमरी।
तुमही जगजीवन के पितु हो।
तुमही बिन कारन के हितु हो।
तुमही सब विघ्न विनाशन हो।
तुमही निज आनन्द भासन हो।
तुम ही चितचिंतितदायक हो।
जगमांहि तुम्हीं सब लायक हो।।
तुम्हरे पन मंगलमांहि सहि।
जिय उत्तम पुन्य लियो सबही।।
हमको तुमरी सरनागत है।
तुमरे गुन में मन पागत है।।
प्रभु मो हिय आप सदा बसिये।
जबलों वसु कर्म नहीं नसिये।।
तबलों तुम ध्यान हिये वरतो।
तबलों श्रुतचिंतन चित्त रतो।।
तबलों व्रत चारित चाहतु हों।
तबलों शुभभाव सुगाहतु हों।।
तबलोंसत संगति नित्य रहो।
तबलों मम संजम चित्त गहों।।
जबलों नहिं नाश करों अरिकों।
शिवनारि वरों समताधरिको।।
यह द्यो तबलों हम्को जिनजी।
हम जाचतु हैं इतनी सुनजी।।
श्रीवीर जिनेशा नमित सुरेशा
नागनरेशा भगति भरा।।
वृन्दावन ध्यावें विघ्न नशावै।
वांछित पावे शर्मवरा।।
ऊँ ह्रीं श्री वर्द्धमान जिनेन्द्राय महार्ध्यम निर्वपामीति स्वाहा।
श्री सन्मते के जुगलपद, जो पूजै धरि प्रीत।
वृन्दावन सो चतुर नर, लहै मुक्ति नवनीत।।
श्री सरस्वती पूजा
दोहा
जनम जरा मृतु क्षय करै, हरै कुनय जड रीति।
भवसागरसौं ले तिरै, पूजै जिंवच प्रीति।।
ऊँ ह्रीं श्री जिनमुखोद्भव सरस्वत्यै पुष्पांजलः।
छीरोदधिगंगा विमल तरंगा, सलिल अभंगा, सुखगंगा।
भरि कंचन झारी, धार निकारी तृषा निवारी हित चंगा।।
तीर्थंकर की ध्वनि,गनधर ने सुनि,अंग रचे चुनि ज्ञानमई।
सो जिनवर वानी, शिवसुखदानी, त्रिभुवन पूज्य भई।।
ऊँ ह्रीं श्री जिनमुखोद्भभवसरस्वतीदेव्यै जलं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्पूर मंगाया चन्दन आया,केशर लाया रंग भरी।
शारदपद वन्दों,मन अभिनन्दों,पाप निकन्दों दाह हरपूज्तीर,
तीर्थंकर की ध्वनि,गनधर ने सुनि,अंग रचे चुनि ज्ञानमई।
सो जिनवर वानी, शिवसुखदानी, त्रिभुवन पूज्तीर्थ
ऊँ ह्रीं श्री जिनमुखोद्भभवसरस्वतीदेव्यै चन्दनम निर्वपामीति स्वाहा।
सुखदासक मोदं, धारक मोदं अति अनुमोदं चन्दसमं।
बहु भक्ति बढाई, कीरति गाई,होहु सहाई, मात ममं। हरी।।
तीर्थंकर की ध्वनि,गनधर ने सुनि,अंग रचे चुनि ज्ञानमई।
सो जिनवर वानी, शिवसुखदानी, त्रिभुवन पूज्तीर्थ
ऊँ ह्रीं श्री जिनमुखोद्भभवसरस्वतीदेव्यै अक्षतान निर्वपामीति स्वाहा।
बहु फूल सुवासं, विमल प्रकाशं, आनन्दरासं लाय धरे।।
मम काम मिटायो, शील बढायो, सुख उपजायो दोष हरे।
तीर्थंकर की ध्वनि,गनधर ने सुनि,अंग रचे चुनि ज्ञानमई।
सो जिनवर वानी, शिवसुखदानी, त्रिभुवन पूज्तीर्थ
ऊँ ह्रीं श्री जिनमुखोद्भभवसरस्वतीदेव्यै पुष्पम निर्वपामीति स्वाहा।
पकवान बनाया, बहुघृत लाया,सब विध भाया मिष्ट महा।
पूजूं थुति गाऊं, प्रीति बढाऊँ, क्शुधा नशाऊं हर्ष लहा।।
तीर्थंकर की ध्वनि,गनधर ने सुनि,अंग रचे चुनि ज्ञानमई।
सो जिनवर वानी, शिवसुखदानी, त्रिभुवन पूज्तीर्थ
ऊँ ह्रीं श्री जिनमुखोद्भभवसरस्वतीदेव्यै नैवेद्यम निर्वपामीति स्वाहा।
तीर्थंकर की ध्वनि,गनधर ने सुनि,अंग रचे चुनि ज्ञानमई।
सो जिनवर वानी, शिवसुखदानी, त्रिभुवन पूज्तीर्थ
तीर्थंकर की ध्वनि,गनधर ने सुनि,अंग रचे चुनि ज्ञानमई।
सो जिनवर वानी, शिवसुखदानी, त्रिभुवन पूज्तीर्थ
ऊँ ह्रीं श्री जिनमुखोद्भभवसरस्वतीदेव्यै पुष्पम निर्वपामीति स्वाहा।
कर दीपक-जोतं, तमक्षय होतं, ज्योति उदोतं तुमहि चढै।
तुम हो प्रकाशक, भरमविनाशक, हम घट भासक ज्ञानबढै।।
तीर्थंकर की ध्वनि,गनधर ने सुनि,अंग रचे चुनि ज्ञानमई।
सो जिनवर वानी, शिवसुखदानी, त्रिभुवन पूज्तीर्थ
ऊँ ह्रीं श्री जिनमुखोद्भभवसरस्वतीदेव्यै दीपं निर्वपामीति स्वाहा।
शुभगन्ध दशोंकर, पावक में धर, धूप मनोहर खेवत हैं।
सब पाप जलावे, पुण्य कमावे, दास कहावेसेवत हैं।।
तीर्थंकर की ध्वनि,गनधर ने सुनि,अंग रचे चुनि ज्ञानमई।
सो जिनवर वानी, शिवसुखदानी, त्रिभुवन पूज्तीर्थ
ऊँ ह्रीं श्री जिनमुखोद्भभवसरस्वतीदेव्यै धूपम निर्वपामीति स्वाहा।
बादाम छुहारी, लोंग सुपारी, श्रीफल भारी ल्यावत हैं।
मन वांछित दाता, मेट असाता, तुम गुन माता, ध्यावत हैं।
तीर्थंकर की ध्वनि,गनधर ने सुनि,अंग रचे चुनि ज्ञानमई।
सो जिनवर वानी, शिवसुखदानी, त्रिभुवन पूज्तीर्थ
ऊँ ह्रीं श्री जिनमुखोद्भभवसरस्वतीदेव्यै फलम निर्वपामीति स्वाहा।
नयनन सुखकारी, मृदुगुनधारी, उज्ज्वलभारी, मोलधरै।
शुभगन्धसम्हारा, वसननिहारा, तुम अन धारा ज्ञान करै।।
र्थंकर की ध्वनि,गनधर ने सुनि,अंग रचे चुनि ज्ञानमई।
सो जिनवर वानी, शिवसुखदानी, त्रिभुवन पूज्तीर्थ
ऊँ ह्रीं श्री जिनमुखोद्भभवसरस्वतीदेव्यै अर्ध्यम निर्वपामीति स्वाहा।
जलचन्दन अक्षत, फूल चरु, चत, दीप धूप अति फल लावै।
पूजा को ठानत, जो तुम जानत, सो नर द्यानत सुखपावै।।
ऊँ ह्रीं श्री जिनमुखोद्भभवसरस्वतीदेव्यै अर्ध्यम निर्वपामीति स्वाहा।।
जयमाला
सोरठा
ओंकार ध्वनिसार, द्वादशांगवाणी विमल।
नमों भक्ति उर धार, ज्ञान करै जडता हरै।।
पहलो आचारांग बखानो, पद अष्टादश सहस प्रमानो।
दूजो सुत्रकृतं अभिलाषं, पद छत्तीस सहस बयालिस पदसरधानम्।
तीजो ठानाअंग सुजानं, सहस बयालिस पदसरधानम्।
चौथो समवायांग निहारं, चौसठ सहस लाख इकधारम
पंचम व्याख्याप्रज्ञप्ति विसतारं, दोय लाख अट्ठाइस सहसं।
छट्ठो ज्ञातृकथा विसतारं, पाँच लाख छप्पन हज्जारं।।
सप्तम उपासकाध्ययनंगं, सत्तर सहस ग्यारलख भंगं।
अष्टम अंतकृत दस ईसं, सहस अट्ठाइस लाख तेइसं।।
नवमअनुत्तरदश सुविशालं, लाख बानवै सहस चवालं।
दशम प्श्नव्याकरण विचारं, लाख तिरानव सोल हजारं।।
ग्यारम सूत्रविपाक सुभाखं, एक कोड चौरासी लाखं।
चारकोडि अरु पंद्रह लाखं, दो हजार सब पद गुरु शाखं।।
द्वादश दृष्टि वाद पनभेदं, इकसौ आठ कोडि पंवेदं।
अडसठ लाख सहस छप्पन हैं, सहित पंचपद मिथ्या हन हैं।।
इक सौ बारह कोडि बखानो, लाख तिरासी उपर जानो।
ठावन सहस पंच अधिकाने, द्वादश अंग सर्वपद माने।।
कोडि इकावन आठ ही लाखं, सहस चुरासी छहसौ भाखं।
साढे इकीस श्लोक बताये, एक एक पद के ये गाये।।
धत्ता।
जा बानी के ज्ञात तै, सूझे लोक अलोक।
“द्यानत” जग जयवंत हो, सदा देत हों धोक।।
ऊँ ह्रीं श्री जिनमुखोद्भभवसरस्वतीदेव्यै महार्ध्यम निर्वपामीति स्वाहा।
श्री गौतम गणधर पूजा
श्री गौतम गणईश शीष यह तुम्हे नमा कर
आव्हानन अब करूँ आय तिष्ठो मानस पर।
पाके केवल ज्योति ज्ञाननिधि हुए गुणाकर।
निज लक्ष्मी का दान करो मेरे घट आ कर।
श्री गौतम गण ईश जी तिष्ठो मम उर आय।
ज्ञान-लक्ष्मी पति बने, मेरी मानव काय।
ऊँ ह्रीं कार्ति कृष्णामावस्यायां कैवल्यलक्ष्मी प्राप्त श्री गौतमगणधराय पुष्पांजलिः।
वसंतिका छन्द
गांगेय वारि शुचि प्रासुक दिव्य ज्योति।
जन्मादि कष्ट निज वारण को लिया ये।
संसार के अखिल त्रास निवारने को
योगीन्द्र गौतम –पदाम्बुज –में चढाता।
ऊँ ह्रीं कार्ति कृष्णामावस्यायां कैवल्यलक्ष्मी प्राप्तये श्री गौतम गणधराय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
कर्पूर युक्त मलयागिर को घिसाया
संसार ताप शमनार्थ इसे बनाया
संसार के अखिल त्रास निवारने को
योगीन्द्र गौतम –पदाम्बुज –में चढाता।
ऊँ ह्रीं कार्ति कृष्णामावस्यायां कैवल्यलक्ष्मी प्राप्तये श्री गौतम गणधराय सुगन्धं निर्वपामीति स्वाहा।
मुक्ताभ अक्षत सुगन्धि चुना चुना के,
व्याधिध्न अक्षत-पदार्थ सजा सजा के।
संसार के अखिल त्रास निवारने को
योगीन्द्र गौतम –पदाम्बुज –में चढाता।
ऊँ ह्रीं कार्ति कृष्णामावस्यायां कैवल्यलक्ष्मी प्राप्तये श्री गौतम गणधराय अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।
कन्दर्प दर्प दलनार्थ नवीन ताजे,
बेला गुलाब मच्कुन्द सु पार्जाती।
संसार के अखिल त्रास निवारने को
योगीन्द्र गौतम –पदाम्बुज –में चढाता।
ऊँ ह्रीं कार्ति कृष्णामावस्यायां कैवल्यलक्ष्मी प्राप्तये श्री गौतम गणधराय पुष्प