2.सम्मेदशिखर पूजन

-अथ स्थापना- शंभु छन्द-

गिरिवर सम्मेदशिखर पावन, 
श्रीसिद्धक्षेत्र मुनिगण वंदित।
सब तीर्थंकर इस ही गिरि से, 
होते हैं मुक्तिवधू अधिपति।।

मुनिगण असंख्य इस पर्वत से, 
निर्वाण धाम को प्राप्त हुये।
आगे भी तीर्थंकर मुनिगण का, 
शिवथल यह मुनिनाथ कहें।।1
-दोहा-
सिद्धिवधू प्रिय तीर्थकर, मुनिगण तीरथराज।
आह्वानन कर मैं जजूँ, मिले सिद्धिसाम्राज्य।।2

ॐ ह्रीं सम्मेदशिखरशाश्वतसिद्धक्षेत्र ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं।

ॐ ह्रीं सम्मेदशिखरशाश्वतसिद्धक्षेत्र ! अत्र तिष्ठ ठः ठः स्थापनं।

ॐ ह्रीं सम्मेदशिखरशाश्वतसिद्धक्षेत्र ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।'

चाल-नन्दीश्वर पूजा
भव भव में शीतल नीर, जी भर खूब पिया।
नहिं मिटी तृषा की पीर, आखिर ऊब गया।।
सम्मेदशिखर गिरिराज, पूजूँ मन लाके।
पा जाऊँ निज साम्राज्य, तीरथ गुण गाके।।1

ॐ ह्रीं विंशतितीर्थंकरअसंख्यमुनिगणसिद्धिपदप्राप्त सम्मेदशिखरशाश्वत-सिद्धक्षेत्राय जलं निर्वपामीति स्वाहा।

भव भव में त्रयविध ताप, अतिशय दाह करे।
चंदन से पूजत आप, अतिशय शांति भरे।।
सम्मेदशिखर गिरिराज, पूजूँ मन लाके।
पा जाऊँ निज साम्राज्य, तीरथ गुण गाके।।२।।

ॐ ह्रीं विंशतितीर्थंकरअसंख्यमुनिगणसिद्धिपदप्राप्त सम्मेदशिखरशाश्वत-सिद्धक्षेत्राय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।

हे नाथ ! सर्वसुखहेतु, सबकी शरण लिया।
अब अक्षय सुख के हेतु, तुम पद पुंज किया।।
सम्मेदशिखर गिरिराज, पूजूँ मन लाके।
पा जाऊँ निज साम्राज्य, तीरथ गुण गाके।।3

ॐ ह्रीं विंशतितीर्थंकरअसंख्यमुनिगणसिद्धिपदप्राप्त सम्मेदशिखरशाश्वत-सिद्धक्षेत्राय अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।

बहु वर्ण वर्ण के फूल, चरण चढ़ाऊँ मैं
मिल जाये भवदधिवूâल, समसुख पाऊँ मैं।।
सम्मेदशिखर गिरिराज, पूजूँ मन लाके।
पा जाऊँ निज साम्राज्य, तीरथ गुण गाके।।4

ॐ ह्रीं विंशतितीर्थंकरअसंख्यमुनिगणसिद्धिपदप्राप्त सम्मेदशिखरशाश्वत-सिद्धक्षेत्राय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।

बरफी पेड़ा पकवान, नित्य चढ़ाऊँ मैं।
हो क्षुधा व्याधि की हान, निजसुख पाऊँ मैं।।
सम्मेदशिखर गिरिराज, पूजूँ मन लाके।
पा जाऊँ निज साम्राज्य, तीरथ गुण गाके।।5

ॐ ह्रीं विंशतितीर्थंकरअसंख्यमुनिगणसिद्धिपदप्राप्त सम्मेदशिखरशाश्वत-सिद्धक्षेत्राय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।

कर्पूरज्योति उद्योत, आरति करते ही।
हो ज्ञानज्योति उद्योत, भ्रम तम विनशे ही।।
सम्मेदशिखर गिरिराज, पूजूँ मन लाके
पा जाऊँ निज साम्राज्य, तीरथ गुण गाके।।6

ॐ ह्रीं विंशतितीर्थंकरअसंख्यमुनिगणसिद्धिपदप्राप्त सम्मेदशिखरशाश्वत-सिद्धक्षेत्राय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।

वर धूप अग्नि में खेय, कर्म जलाऊँ मैं।
जिनपद पंकज को सेय, सौख्य बढ़ाऊँ मैं।।
सम्मेदशिखर गिरिराज, पूजूँ मन लाके।
पा जाऊँ निज साम्राज्य, तीरथ गुण गाके।।7

ॐ ह्रीं विंशतितीर्थंकरअसंख्यमुनिगणसिद्धिपदप्राप्त सम्मेदशिखरशाश्वत-सिद्धक्षेत्राय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।

लेकर बहुफल की आश, बहुत कुदेव जजे।
अब एक मोक्षफल आश, फल से तीर्थ जजें।।
सम्मेदशिखर गिरिराज, पूजूँ मन लाके।
पा जाऊँ निज साम्राज्य, तीरथ गुण गाके।।8

ॐ ह्रीं विंशतितीर्थंकरअसंख्यमुनिगणसिद्धिपदप्राप्त सम्मेदशिखरशाश्वत-सिद्धक्षेत्राय फलं निर्वपामीति स्वाहा।

वर अर्घ रजत के फूल, लेकर नित्य जजूँ।
होवे त्रिभुवन अनुवूâल, तीरथराज जजूँ।।
सम्मेदशिखर गिरिराज, पूजूँ मन लाके।
पा जाऊँ निज साम्राज्य, तीरथ गुण गाके।।9

ॐ ह्रीं विंशतितीर्थंकरअसंख्यमुनिगणसिद्धिपदप्राप्त सम्मेदशिखरशाश्वत-सिद्धक्षेत्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।

-दोहा-
झरने का अतिशीत जल,शांतीधार करंत।
त्रिभुवन में हो सुख अमल,सर्वशांति विलसंत।।10

शांतये शांतिधारा।

हरसिंगार गुलाब ले, तीर्थराज को नित्य।
पुष्पांजली चढ़ावते, मिले सर्वसुख इत्य।।11

दिव्य पुष्पांजलि:।
अथ प्रत्येक टोंक अर्घ

-सोरठा-
तीर्थराज सुर वंद्य, पूजत निज सुख संपदा।
मिले ज्ञान आनंद, पुष्पांजलि कर मैं जजूँ।।1

(इति पुष्पांजलिं क्षिपेत्)

श्री सम्मेद शिखर टोंक पूजन
सिद्धवर कूट नं. १
-शंभु छंद-

श्री अजितनाथ जिन कूट सिद्धवर से निर्वाण पधारे हैं।
उन संघ हजार महामुनिगण, हन मृत्यू मोक्ष सिधारे हैं।।

इससे ही एक अरब अस्सी, कोटी अरु चौवन लाख मुनी।
निर्वाण गये सबको पूजूँ, मैं पाऊँ निज चैतन्य मणी।।

-दोहा-
भाव सहित इस टोंक की, करूँ वंदना आज।
बत्तिस कोटि उपवास फल, अनुक्रम से निज राज्य।।1

ॐ ह्रीं सिद्धवरकूटात् सिद्धपदप्राप्त अजितनाथजिनेन्द्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।

धवल वूकूटनं. 2

श्री संभव जिनवर धवलकूट से, हजार मुनिसह मोक्ष गये।
इससे नौ कोड़िकोड़ि बाहत्तर, लाख बियालिस हजार ये।।

मुनि पाँच शतक मुनिराज सर्व, निर्वाण धाम को प्राप्त किये।
इन सबके चरण कमल पूजूँ, निजज्ञान ज्योति हो प्रगट हिये।।

-दोहा-
भाव सहित इस टोंक की, करूँ वंदना आज।
ब्यालिस लाख उपवास फल,अनुक्रम से शिवराज्य।।2

ॐ ह्रीं धवलकूटात् सिद्धपदप्राप्तसर्वमुनिसहित सम्भव नाथजिनेन्द्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।

आनन्द वूकूटनं.3
अभिनंदन जिन आनंद कूट से, हजार मुनिसह सिद्ध बने।
बाहत्तर कोड़िकोड़ि सत्तर, कोटि मुनि सत्तर लाख बने।।

ब्यालीस सहस अरु सातशतक, मुनि यहाँ से मोक्ष पधारे हैं।
इन सबके चरण कमल वंदूँ, ये सबको भवदधि तारे हैं।।

-दोहा-
भाव सहित इस टोंक की, करूँ वंदना नित्य।
एक लाख उपवास फल, मिले स्वात्म सुख नित्य।।3

ॐ ह्रीं आनन्दकूटात् सिद्धपदप्राप्तसर्वमुनिसहित अभिनन्दननाथजिनेन्द्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।

अविचल वूकूटनं. 4

श्री सुमतिनाथ अविचल सुकूट से, सहस साधु सह मोक्ष गये।
इक कोड़ि कोड़ि चौरासि कोटि, बाहत्तर लाख महामुनि ये।।

इक्यासी सहस सात सौ, इक्यासी मुनि इससे मोक्ष गये।
इन सबके चरण कमल पूजूँ, हो शांति अलौकिक प्रभो ! हिये।।

-दोहा-
भाव सहित इस टोंक की, करूँ वंदना आज।
एक कोटि बत्तीस लख, मिले सुफल उपवास।।4

ॐ ह्रीं अविचलकूटात् सिद्धपदप्राप्तसर्वमुनिसहित-सुमतिनाथजिनेन्द्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।

मोहन वूकूटनं. 5
श्री पद्म प्रभू मोहन सुकूट से, तीन शतक चौबिस मुनिसह।
निर्वाण पधारे आत्मसुधारस, पीते मुक्ति वल्लभा सह।।

इससे निन्यानवे कोटि सत्यासी, लाख तेतालिस सहस तथा।
मुनि सातशतक सत्ताइस सब, शिव पहुँचे पूजत हरूँ व्यथा।।

-दोहा-
जो वंदे इस टोंक को, स्वर्ग मोक्ष फल लेय।
एक कोटि उपवास फल, तत्क्षण उन्हें मिलेय।।5

ॐ ह्रीं मोहनकूटात् सिद्धपदप्राप्तसर्वमुनिसहित-पद्मप्रभजिनेन्द्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।

प्रभास वूकूटनं. 6
जिनवर सुपाश्र्व सुप्रभासकूट से, पाँच शतक मुनि साथ लिये।
उनचास कोटिकोटि चौरासी, कोटि सुबत्तिस लाखसु ये।।

मुनि सात सहस सात सौ ब्यालिस, कर्मनाश शिवनारि वरी।
मैं सबके चरण कमल पूजूँ, मेरी होवे शुभ पुण्य घड़ी।।

-दोहा-
भाव सहित इस टोंक की, करूँ वंदना आज।
बत्तिस कोटि उपवास फल, मिले मोक्ष सुख राज्य।।6

ॐ ह्रीं प्रभासकूटत्सिद्धपदप्राप्तसर्वमुनिसहित-सुपाश्र्वनाथजिनेन्द्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।

ललित वूकूटनं. 7
श्री चंद्रनाथ निज ललितकूट से, सहस मुनी सह मोक्ष गये।
इससे नव सौ चौरासि अरब, बाहत्तर कोटि अस्सि लख ये।।

चौरासि हजार पाँच सौ पंचानवे, साधुगण सिद्ध हुये।
इनके चरणों में बार-बार,प्रणमूँ शिव सुख की आश लिये।।

-दोहा-
भाव सहित इस टोंक की, करूँ वंदना आज।
छ्यानवे लाख उपवास फल, मिले सरें सब काज।।7

ॐ ह्रीं ललितकूटत्सिद्धपदप्राप्तसर्वमुनि-सहितचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।

सुप्रभ वूकूटनं. 8
श्री पुष्पदंत सुप्रभ सुकूट से, सहस साधु सह सिद्ध हुये।
इससे ही इक कोड़ाकोड़ी, निन्यानवे लाख महामुनि ये।।

पुनि सात सहस चार सौ अस्सी, मुनी मोक्ष को पाये हैं।
मैं पूजूँ अर्घ चढ़ाकर के, ये गुण अनंत निज पाये हैं।।

-दोहा-
भाव सहित इस टोंक को, जो वंदे कर जोड़।
एक कोटि उपवास फल, लहें विघ्न घनतोड़।।8

ॐ ह्रीं सुप्रभकूटत्सिद्धपदप्राप्तसर्वमुनिसहित-पुष्पदंतनाथजिनेन्द्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।

विद्युत्वर वूकूटनं. 9

श्री शीतलजिन विद्युत सुकूट से, सहस साधुसह मोक्ष गये।
इससे अठरा कोड़ाकोड़ी, ब्यालीस कोटि साधुगण ये।।

बत्तीस लाख ब्यालिस हजार, नव शतक पाँच मुनि मोक्ष गये।
इनके चरणारविंद पूजूँ, परमानंद सुख की आश लिये।।

-दोहा-
भाव सहित इस टोंक की, करूँ वंदना आज।
एक कोटि उपवास फल, क्रम से निज साम्राज्य।।9

ॐ ह्रीं विद्युत्वरकूटात् सिद्धपदप्राप्तसर्वमुनिसहित-शीतलनाथजिनेन्द्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।

संकुल वूकूटनं. 10
श्रेयांस प्रभू संकुल सुकूट से, एक सहस मुनि के साथे।
निर्वाण पधारे परम सौख्य को, प्राप्त किया भवरिपु घाते।।

इससे छ्यानवे कोटिकोटि, छ्यानवे कोटि छ्यानवे लक्ष।
नव सहस पाँच सौ ब्यालिस मुनि, शिव गये जजूँ कर चित्त स्वच्छ।।

-दोहा-
भाव सहित इस टोंक की, करूँ वंदना आज।
एक कोटि उपवास फल, मिले पुन: शिवराज।।10

ॐ ह्रीं संकुलकूटात् सिद्धपदप्राप्तसर्वमुनिसहित-श्रेयांसनाथजिनेन्द्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।

सुवीर वूकूटनं.11
श्री विमल जिनेंद्र सुवीर कूट से, छह सौ मुनि सह सिद्ध हुये।
इससे सत्तर कोड़ा कोड़ी अरु, साठ लाख छह सहस हुये।।

मुनि सात शतक ब्यालिस मुनी, सब कर्मनाश शिवधाम गये।
उन सबके चरण कमल पूजूँ, मेरे सब कारज सिद्ध भये।।

-दोहा-
भाव सहित इस टोंक की, करूँ वंदना आज।
एक कोटि उपवास फल, क्रम से शिव साम्राज्य।।11

ॐ ह्रीं सुवीरकूटात् सिद्धपदप्राप्तसर्वमुनिसहित-विमलनाथजिनेन्द्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।

स्वयंभू वूकूटनं. 12

वर कूट स्वयंभू से अनंत जिन, निज अनंत पद प्राप्त किया।
उन साथ सात हज्जार साधु ने, कर्मनाश निज राज्य लिया।।

इससे छ्यानवे कोटिकोटि, सत्तर करोड़ मुनि मोक्ष गये।
पुनि सत्तर लाख सत्तर हजार, अरु सात शतक मुनि मुक्त भये।।

-दोहा-
भाव सहित इस टोंक की, करूँ वंदना आज।
नव करोड़ उपवास फल, क्रम से शिव साम्राज्य।।12

ॐ ह्रीं स्वयंभूकूटात् सिद्धपदप्राप्तसर्वमुनिसहित-अनन्तनाथजिनेन्द्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।

सुदत्त वूकूटनं. 13

श्री धर्मनाथ जिन सुदत्त कूट से,कर्मनाश कर मोक्ष गये ।
उनके साथ आठ सौ इक मुनि,पूर्ण सौख्य पा मुक्त भये।।

उससे उनतिस कोड़ा कोड़ी,उन्निस कोटी साधू पूजूँ।
नौ लाख नौ सहस सात शतक,पंचानवे मुक्त गये पूजूँ।।

-दोहा-
भाव सहित इस टोंक की, करूँ वंदना नित्य।
एक कोटि उपवास फल, क्रम से अनुपम सिद्धि।।13

ॐ ह्रीं सुदत्तकूटात् सिद्धपदप्राप्तसर्वमुनिसहित-धर्मनाथजिनेन्द्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।

वुंâदप्रभ वूकूटनं.14

श्री शांतिनाथ जिन वुंâद कूट से, नव सौ मुनि सह मुक्ति गये।
नव कोटि कोटि नव लाख तथा, नव सहस व नौ सौ निन्यानवे।।

इस ही सुकूट से मोक्ष गये, इन सबके चरण कमल वंदूँ।
प्रभु दीजे परम शांति मुझको, मैं शीघ्र कर्म अरि को खंडूँ।।

-दोहा-
भाव सहित इस टोंक की, करूँ वंदना नित्य।
एक कोटि उपवास फल, मिले ज्ञान सुख नित्य।।14

ॐ ह्रीं वुंâदप्रभकूटात् सिद्धपदप्राप्तसर्वमुनिसहित-शांतिनाथजिनेन्द्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।

ज्ञानधर वूकूटनं. 15

-शंभु छन्द-

श्री वुंâथुनाथ जिन कूट ज्ञानधर, से निर्वाण पधारे हैं।
उन साथ में इक हजार साधू, सब कर्मनाश गुणधारे हैं।।

इससे छ्यानवे कोड़ा कोड़ी, छ्यानवे कोटि बत्तीस लाख।
छ्यानवे सहस सात सौ ब्यालिस, शिव पहुँचे मुनि पूजूँ आज।।

-दोहा-
भाव सहित इस टोंक को, जो वंदे सिर नाय।
एक कोटि उपवास फल, लहे स्वात्मनिधि पाय।।15

ॐ ह्रीं ज्ञानधरकूटात् सिद्धपदप्राप्तसर्वमुनिसहित-श्रीवुंâथुनाथfिजनेन्द्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।

नाटक वूकूटनं. 16
श्री अरहनाथ नाटक सुकूट से, सहस साधु सह मुक्ति गये।
इस ही से निन्यानवे कोटि, निन्यानवे लाख महामुनि ये।।

नव सौ निन्यानवे सर्व साधु, निर्वाण पधारे पूजूँ मैं।
सम्यक्त्व कली को विकसित कर,संपूर्ण दुःखों से छूटूँ मैं।।

-दोहा-
भाव सहित इस टोंक की, करूँ वंदना आज।
छ्यानवे कोटि उपवास फल, पाय लहँूं निजराज।।16

ॐ ह्रीं नाटककूटात् सिद्धपदप्राप्तसर्वमुनिसहित-अरनाथfिजनेन्द्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।

संबल वूकूटनं. 17
श्री मल्लिनाथ संबल सुकूट से, मोक्ष गये सब कर्म हने।
मुनि पाँच शतक प्रभु साथ मुक्ति को, प्राप्त किया गुण पाय घने।।

इस ही से छ्यानवे कोटि महामुनि, सर्व अघाती घाता था।
मैं परमानंदामृत हेतू इन पूजूँ गाऊँ गुण गाथा।।

-दोहा-
भाव सहित इस टोंक को, वंदूँ बारंबार।
एक कोटि प्रोषधमयी, फल उपवास जु सार।।17

ॐ ह्रीं संबलकूटात् सिद्धपदप्राप्तसर्वमुनिसहित-मल्लिनाथfिजनेन्द्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।

निर्जर वूकूटनं. 18
श्री मुनिसुव्रत निर्जरसुकूट से, सहस साधु सह मुक्ति गये।
इससे निन्यानवे कोटिकोटि, सत्यानवे कोटि महामुनि ये।।

नौ लाख नौ सौ निन्यानवे सब, मुनिराज मोक्ष को प्राप्त हुये।
हम इनके चरणों को पूजें, निज समतारस पीयूष पियें।।

-दोहा-
कोटि प्रोषध उपवास फल, टोंक वंदते जान।
क्रम से सब सुख पायके, अंत लहें निर्वाण।।18

ॐ ह्रीं निर्जरकूटात् सिद्धपदप्राप्तसर्वमुनिसहित-मुनिसुव्रतनाथfिजनेन्द्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।

ाqमत्रधर वूकूटनं. 19
-दोहा-
नमिजिनवर कूट मित्रधर से, इक सहस साधु सहमुक्ति गये।
इससे नव सौ कोड़ाकोड़ी, इक अरब लाख पैंतालिस ये।।

मुनि सात सहस नौ सौ ब्यालिस, सब सिद्ध हुए उनको पूजूँ।
निज आत्म सुधारस पान करूँ, दुःख दारिद संकट से छूटूँ।।

-दोहा-
भाव सहित इस टोंक की, करें वंदना भव्य।
एक कोटि उपवास फल, लहें नित्य सुख नव्य।।19

ॐ ह्रीं मित्रधरकूटात् सिद्धपदप्राप्तसर्वमुनिसहित-नमिनाथfिजनेन्द्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।

सुवर्णभद्र वूकूटनं. 20
श्री पाश्व्र्र सुवर्णभद्र कूट से, छत्तिस मुनि सह मुक्ति गये।
इससे ही ब्यासी कोटि चुरासी, लाख सहस पैंतालिस ये।।

पुनि सात शतक ब्यालीस मुनी, सब कर्मनाश शिवधाम गये।
उन सबको पूजूँ भक्ती से, इससे मनवांछित पूर्ण भये।।

-दोहा-
भाव सहित इस टोंक को, वंदूँ बारंबार।
सोलह कोटि उपवास फल, मिले भवोदधि पार।21

ॐ ह्रीं सुवर्णभद्रकूटात् सिद्धपदप्राप्तसर्वमुनिसहित-पाश्र्वनाथfिजनेन्द्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।

ऋषभदेव भगवान की टोंक नं. 21
-शेर छन्द-
वैâलाशगिरि से ऋषभदेव मुक्ति पधारे।
उन साथ मुनि दस हजार मोक्ष सिधारे।।

मैं बार बार प्रभूपाद वंदना करूँ।
निजात्म तत्त्व ज्ञानज्योति से हृदय भरूँं।।21

ॐ ह्रीं वैâलाशपर्वतात् सिद्धपदप्राप्तसर्वमुनिसहित श्री ़ऋषभदेवfिfजनेन्द्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।

वासुपूज्य भगवान की टोंक नं. 22
चंपापुरी से वासुपूज्य मोक्ष गये हैं।
उन साथ छह सौ एक साधु मुक्त भये हैं।।

इनके पदारविंद को मैं भक्ति से नमूँ।
निज सौख्य अतीन्द्रिय लहूँ संसार सुख वमूँ।।22

ॐ ह्रीं चंपापुरीक्षेत्रात् सिद्धपदप्राप्तसर्वमुनिसहित-वासुपूज्यfिजनेन्द्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।

नेमिनाथ भगवान की टोक नं. 23
गिरनार से नेमी प्रभू निर्वाण गये हैं।
शंबू प्रद्युम्न आदि मुनि मुक्त भये हैं।।

ये कोटि बाहत्तर व सात सौ मुनी कहे।
इन सबकी वंदना करूँ ये सौख्यप्रदकहे।।23

ॐ ह्रीं ऊर्जयंतगिरिक्षेत्रात् सिद्धपदप्राप्तसर्वमुनि-सहितनेमिनाथ जिनेन्द्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।

भगवान महावीर की टोक नं. 24
पावापुरी सरोवर से वीरप्रभू जी।
निज आत्म सौख्य पाया निर्वाण गये जी।।

इनके चरण कमल की मैं वंदना करूँ।
संपूर्ण रोग दुःख की मैं खंडना करूँ।।24

ॐ ह्रीं पावापुरीसरोवरात् सिद्धपदप्राप्तसर्वमुनि-सहितमहावीर जिनेन्द्राय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।

गणधर वूकूटनं. 25
चौबीस जिनेश्वर के गणीश्वर उन्हें जजूँ।
चौदह शतक उनसठ१ कहे उन सबको मैं भजूँ।।

ये सर्व ऋद्धिनाथ रिद्धि सिद्धि प्रदाता।
मैं अर्घ चढ़ाके जजूँ ये मुक्ति प्रदाता।।25

ॐ ह्रीं वृषभसेनादिगौतमान्त्य सर्वगणधरचरणेभ्यः अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।

-शंभु छन्द-
नंदीश्वर द्वीप बना कृत्रिम,उसमें बावन जिनमंदिर हैं।
इनमें जिनप्रतिमाएँ मनहर, उनकी पूजा सब सुखकर हैं।।

मैं पूजूँ अर्घ चढ़ा करके, संसार भ्रमण का नाश करूँ।
निज आत्म सुधारस पीकरके, निज में ही स्वस्थ निवास करूँ।।26

ॐ ह्रीं नन्दीश्वरद्वीपजिनालयजिनबिम्बेभ्यः अर्घं नर्वपामीति स्वाहा।

तीर्थंकर का शुभ समवसरण, अतिशायी सुंदर शोभ रहा।
श्री गंधकुटी में तीर्थंकर प्रभु, राज रहें मन मोह रहा।

मैं पूजूँ अर्घ चढ़ा करके, तीर्थंकर को जिनबिंबों को।
सब रोग शोक दारिद्र हरूँ, पा जाऊँ निज गुणरत्नों को।।27

ॐ ह्रीं समवसरणस्थितसर्वजिनबिम्बेभ्यः अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।

-पूर्णार्घ-शंभु छन्द-
गिरिवर सम्मेदशिखर से ही, अजितादि बीस तीर्थंकर जिन।
निज के अनन्त गुण प्राप्त किये, मैं उन्हें नमूँ पूूजूँ निशदिन।।

यह ही अनादि अनिधन चौबीसों, जिनवर की निर्वाणभूमि।
मुनि संख्यातीत मुक्तिथल हैं, पूजत मिलती निर्वाणभूमि।।1

ॐ ह्रीं त्रैकालिक सर्वतीर्थंकरमुनिगणसिद्धपदप्राप्त-सम्मेदशिखरशाश्वत-सिद्धक्षेत्राय पूर्णार्घं निर्वपामीति स्वाहा।

जाप्य मंत्र-ॐ ह्रीं चतुर्विंशतितीर्थंकरपंचकल्याणक तीर्थक्षेत्रेभ्यो नम:।

जयमाला
-दोहा-
चिन्मूरति चिंतामणि, चिन्मय ज्योतीपुंज।
गाऊँ गुणमणिमालिका, चिन्मय आतमवुंâज।।1

-शंभु छन्द-
जय जय सम्मेदशिखर पर्वत, जय जय अतिशय महिमाशाली।
जय अनुपम तीर्थराज पर्वत, जय भव्य कमल दीधित१माली।।

जय कूट सिद्धवर धवलकूट, आनंदकूट अविचलसुकूट।
जय मोहनकूट प्रभासकूट, जय ललितकूट जय सुप्रभकूट।।2

जय विद्युत संकुलकूट सुवीरकूट स्वयंभूकूट वंद्य।
जय जय सुदत्तकूट शांतिप्रभ, कूट ज्ञानधरकूट वंद्य।।

जय नाटक संबलकूट व निर्जर, कूट मित्रधरकूट वंद्य।
जय पाश्र्वनाथ निर्वाणभूमि, जयसुवरणभद्रसुकूट वंद्य।।3

जय अजितनाथ संभव अभिनंदन, सुमति पद्मप्रभ जिन सुपाश्र्व।
चंदाप्रभु पुष्पदंत शीतल, श्रेयांस विमल व अनंतनाथ।।

जय धर्म शांति वुंâथू अरजिन, जय मल्लिनाथ मुनिसुव्रत जी।
जय नमि जिन पाश्र्वनाथ स्वामी, इस गिरि से पाई शिवपदवी।।4

वैâलाशगिरी से ऋषभदेव, श्री वासुपूज्य चंपापुरि से।
गिरनारगिरी से नेमिनाथ, महावीर प्रभू पावापुरि से।।

निर्वाण पधारे चउ जिनवर, ये तीर्थ सुरासुर वंद्य हुए।
हुंडावसर्पिणी के निमित्त ये, अन्यस्थल से मुक्त हुए।।5

जय जय वैâलाशगिरी चंपा, पावापुरि ऊर्जयंत पर्वत।
जय जय तीर्थंकर के निर्वाणों, से पवित्र यतिनुत पर्वत।।

जय जय चौबीस जिनेश्वर के, चौदह सौ उनसठ गुरु गणधर।
जय जय जय वृषभसेन आदी, जय जय गौतम स्वामी गुरुवर।।6

सम्मेदशिखर पर्वत उत्तम, मुनिवृंद वंदना करते हैं।
सुरपति नरपति खगपति पूजें, भविवृंद अर्चना करते हैं।।

पर्वत पर चढ़कर टोेंक-टोंक पर, शीश झुकाकर नमते हैं।
मिथ्यात्व अचल शतखंड करें, सम्यक्त्वरत्न को लभते हैं।।7

इस पर्वत की महिमा अचिन्त्य, भव्यों को ही दर्शन मिलते।
जो वंदन करते भक्ती से, कुछ भव में ही शिवसुख लभते।।

बस अधिक उनंचास भव धर, निश्चित ही मुक्ती पाते हैं।
वंदन से नरक पशूगति से, बचते निगोद नहिं जाते हैं।।8

दस लाख व्यंतरों का अधिपति, भूतकसुर इस गिरि का रक्षक।
यह यक्षदेव जिनभाक्तिकजन, वत्सल है जिनवृष का रक्षक।।

जो जन अभव्य हैं इस पर्वत का, वंदन नहिं कर सकते हैं।
मुक्तीगामी निजसुख इच्छुक, जन ही दर्शन कर सकते हैं।।9

यह कल्पवृक्ष सम वांछितप्रद, चिंतामणि चिंतित फल देता।
पारसमणि भविजन लोहे को, वंâचन क्या पारस कर देता।।

यह आत्म सुधारस गंगा है, समरससुखमय शीतल जलयुत।
यह परमानंद सौख्य सागर, यह गुण अनंतप्रद त्रिभुवन नुत।।10

मैं नमूँ नमूँ इस पर्वत को, यह तीर्थराज है त्रिभवुन में।
इसकी भक्ती निर्झरणी में, स्नान करूँ अघ धो लूँ मैं।।

अद्भुत अनंत निज शांती को, पाकर निज में विश्राम करूँ।
निज ‘ज्ञानमती’ ज्योती पाकर, अज्ञान तिमिर अवसान करूँ।।।11

-दोहा-
नमूँ नमूँ सम्मेद गिरि, करूँ मोह अरि विद्ध।
मृत्युंजय पद प्राप्त कर, वरूँ सर्वसुख सिद्धि।।12

ॐ ह्रीं त्रैकालिकसर्वतीर्थंकरमुनिगणसिद्धपदप्राप्त सम्मेदशिखरशाश्वत-सिद्धक्षेत्राय जयमाला पूर्णार्घं निर्वपामीति स्वाहा।

शांतये शांतिधारा।
दिव्य पुष्पांजलिः।
-शेर छंद-
तीर्थंकरों के पंचकल्याणक जो तीर्थ हैं।
उनकी यशोगाथा से जो जीवन्त तीर्थ हैं।।

निज आत्म के कल्याण हेतु उनको मैं नमूँ।
फिर ‘‘चन्दनामती’’ पुन: भव वन में ना भ्रमूँ।।

।। इत्याशीर्वाद:।।