3. पावापुरी पूजा,प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका चन्दनामती

रचयित्री-प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका चन्दनामती
स्थापना (चैबोल छंद)
महावीर प्रभु जिस धरती से, कर्मनाश कर मोक्ष गये।
सिद्धशिला के स्वामी बनकर, सब कर्मों से छूट गये।।
पावापुर निर्वाणभूमि, तीरथ का अर्चन करना है।
आह्वानन स्थापन करने, जलमंदिर में चलना है।।1

ऊँ ह्रीं तीर्थंकरश्रीमहावीरनिर्वाणभूमिपावापुरीसिद्धक्षेत्र! अत्र अवतर अवतर संवौषट आह्वाहननं।

ऊँ ह्रीं तीर्थंकरश्रीमहावीरनिर्वाणभूमिपावापुरीसिद्धक्षेत्र! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थपनं।

ऊँ ह्रीं तीर्थंकरश्रीमहावीरनिर्वाणभूमिपावापुरीसिद्धक्षेत्र! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं।

अष्टक (शंभु छंद)
प्रभुवर ने जन्म जरा मृत्यू का, 
नाश किया शिवपद पाया।
जलधारा इसीलिए करने को, 
वीरचरण में मैं आया।।
निर्वाणभूमि पावापुर का, 
अर्चन सबको सुखकारी है।
सरवच बिच निर्मित जलमंदिर का, 
दर्शन निज हितकारी है।।1।।

ऊँ ह्रीं तीर्थंकरश्रीमहावीरनिर्वाणभूमिपावापुरीसिद्धक्षेत्राय जन्मजरामृत्युविनाशानाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।

सन्मतिजिन ने संसारताप को, 
तप के द्वारा नष्ट किया।
मैंने शीतल चन्दन लेकर, 
जिनवर के पद में चर्च दिया।।
निर्वाणभूमि पावापुर का, 
अर्चन सबको सुखकारी है।
सरवच बिच निर्मित जलमंदिर का,
 दर्शन निज हितकारी है।।2।।

ऊँ ह्रीं तीर्थंकरश्रीमहावीरनिर्वाणभूमिपावापुरीसिद्धक्षेत्राय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।

नश्वर तन द्वारा वीर प्रभू ने, 
अविनश्वर पद को पाया।
मोती सम अक्षत पुंजों को, 
इसलिए चढ़ाने मैं आया।।
निर्वाणभूमि पावापुर का, 
अर्चन सबको सुखकारी है।
सरवच बिच निर्मित जलमंदिर का, 
दर्शन निज हितकारी है।।3।।

ऊँ ह्रीं तीर्थंकरश्रीमहावीरनिर्वाणभूमिपावापुरीसिद्धक्षेत्राय अक्ष्ज्ञयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा।

यौवन में भ प्रभु वर्धमान को,
 विषयभोग नहिं लुभा सके।
वे पुष्प भी महिमाशाली हैं, 
जो प्रभुपद में हम चढ़ा सके।।
निर्वाणभूमि पावापुर का,
 अर्चन सबको सुखकारी है।
सरवच बिच निर्मित जलमंदिर का, 
दर्शन निज हितकारी है।।4।।

ऊँ ह्रीं तीर्थंकरश्रीमहावीरनिर्वाणभूमिपावापुरीसिद्धक्षेत्राय कामबाणविंसनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।

उग्रोग्र तपस्या के द्वारा, 
प्रभु ने क्षुधरोग विनाश किया।
मैंने नैवेद्य थाल द्वारा, 
प्रभु पूजन में विश्वास किया।।
निर्वाणभूमि पावापुर का, 
अर्चन सबको सुखकारी है।
सरवच बिच निर्मित जलमंदिर का,
 दर्शन निज हितकारी है।।5।।

ऊँ ह्रीं तीर्थंकरश्रीमहावीरनिर्वाणभूमिपावापुरीसिद्धक्षेत्राय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।

सन्मति ने शुक्लध्यान द्वारा,
 निज मोहकर्म का नाश किया।
घृतदीप जला आरति करके,
 मैंने निज ज्ञान प्रकाश किया।।
निर्वाणभूमि पावापुर का,
 अर्चन सबको सुखकारी है।
सरवच बिच निर्मित जलमंदिर का, 
दर्शन निज हितकारी है।।6।।

ऊँ ह्रीं तीर्थंकरश्रीमहावीरनिर्वाणभूमिपावापुरीसिद्धक्षेत्राय मोहान्धकार विनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा।

निज ध्यान अग्नि में घातिकर्म को, 
भस्म वीर ने कर डाला।
मैंने उनके सम्मुख अग्नी में,
 धूप जलाकर सुख माना।।
निर्वाणभूमि पावापुर का, 
अर्चन सबको सुखकारी है।
सरवच बिच निर्मित जलमंदिर का, 
दर्शन निज हितकारी है।।7।।

ऊँ ह्रीं तीर्थंकरश्रीमहावीरनिर्वाणभूमिपावापुरीसिद्धक्षेत्राय अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।

कर घाति अघाती कर्म नाश, 
प्रभु ने मुक्तीफल प्राप्त किया।
मैंने शिवफल की आशा से, 
प्रभु को अर्पित फल थाल किया।।
निर्वाणभूमि पावापुर का, 
अर्चन सबको सुखकारी है।
सरवच बिच निर्मित जलमंदिर का, 
दर्शन निज हितकारी है।।8।।

ऊँ ह्रीं तीर्थंकरश्रीमहावीरनिर्वाणभूमिपावापुरीसिद्धक्षेत्राय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।

जिस वसुधा से प्रभु महावीर ने,
अष्टम वसुधा प्राप्त किया।
’’चन्दनामती’’ उस वसुधा को, 
दे अघ्र्य सहज सुख प्राप्त हुआ।।
निर्वाणभूमि पावापुर का, 
अर्चन सबको सुखकारी है।
सरवच बिच निर्मित जलमंदिर का, 
दर्शन निज हितकारी है।।9।।

ऊँ ह्रीं तीर्थंकरश्रीमहावीरनिर्वाणभूमिपावापुरीसिद्धक्षेत्राय अनघ्र्यपदप्राप्तये अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा।

शेर छंद

पावापुरी सरोवर से स्वच्छ जल लिया।
प्रभु वीर के चरण में त्रयधार कर दिया।।
त्रयरत्न प्राप्ति हेतु मैंने प्रभु शरण लिया।
त्रयताप शांति हेतु मैंने यह यतन किया।।10।।
शांतये शांतिधारा।

पावापुरी सरोवर कमलों से भरा है।
कुछ पुष्प वही लेके मैंने थाल भरा है।।
पुष्पांजलि कर वीर प्रभु से याचना करूं।
आतम गुणों की प्रप्ति हेतु प्रार्थना करूं।।11।।
दिव्य पुष्पांजलिः।

-दोहा-
जलमंदिर में हैं बने, वीर चरण प्राचीन।
उनको अघ्र्य चढ़ाय मैं, करूं प्रदक्षिण तीन।।1

निर्वाणभूमि पावापुर का, अर्चन सबको सुखकारी है।
सरवच बिच निर्मित जलमंदिर का, दर्शन निज हितकारी है।।1

ऊँ ह्रीं पावापुरीसरोवरस्य मध्यस्थितजलमंदिरे भगवन्महावीर-चरणकमलायोः अघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।

गौतम गणधर के चरण, पूजूं मैं चितलाय।
केवलज्ञान हुआ वहीं, नमूं मोह नश जाय।2।।

ऊँ ह्रीं पावापुरीसरोवरस्य मध्यस्थितजलमंदिरे गौतमगणधरचरणेभ्यो अघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।

पूज्य सुधर्मा स्वामि के, गणधर चरण महान।
उनको अघ्र्य चढ़ाय मैं, पाऊं सम्यक् ज्ञान।।3।।

ऊँ ह्रीं पावापुरीसरोवरस्य मध्यस्थितजलमंदिरे श्रीसुधर्मास्वामिगणधरचरणेभ्यो अघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।

जिनमंदिर प्रांगण विषै, कई जिनालय जान।
उनमें स्थित बिम्ब सब, पूजूं करूं प्रणाम।।4।।

ऊँ ह्रीं पावापुरीसरोवरस्य मध्यस्थितजलमंदिरपरिसरे निर्मित जिनालयेषु विराजित समस्त जिनबिम्बेभ्यो अघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।

शंभु छंद
जलमंदिर के सम्मुख इस पांडुकशिला नाम उद्यान कहा।
प्रभु महावीर की खड्गासन प्रतिमा, से वह जिनधाम रहा।।
गणिनी माता श्री ज्ञानमती ने, पुण्य कार्य यह कर डाला।
उन महावीर को अघ्र्य चढ़ा, मैं जपूं वीर की ही माला।।5।।

ऊँ ह्रीं पावापुरीसिद्धक्षेत्रे जलमंदिरसम्मुखे विराजमान तीर्थंकरमहावीर खड्गासन जिनबिम्बेभ्यो अघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलिः

जाप्य मंत्र- ऊँ ह्रीं पावापुरीनिर्वाणभूमिपवित्रीकृतायश्रीमहावीर-जिनेन्द्राय नमः।

जयमाला
स्त्रग्विणी छंद

अर्चना मैं करूं पावापुरि तीर्थ की, 
जो है निर्वाणभूमी महावीर की।
वन्दना मैं करूं पावापुरि तीर्थ की, 
जो है कैवल्यभूमी गणाधीश की।।टेक.

जैनशासन के चैबीसवें तीर्थंकर, 
जन्मे कुण्डलपुरी राजा सिद्धार्थ घर।
रानी त्रिशला ने सपनों का फल पा लिया, 
बोलो जय त्रिशलानंदन महावीर की।।1।।

वीर वैरागी बनकर युवावस्था में, 
दीक्षा ले चल दिये घोर तप करने को।
मध्य में चन्दना के भी बंधन कटे, 
बोलो कौशाम्बी में जय महावीर की।।2

प्रभु ने बारह बरस तक तपस्या किया, 
केवलज्ञन तब प्राप्त उनको हुआ।
राजगिरि विपुलाचल पर प्रथम दिव्यध्वनि, 
खिर गई बोलो जय जय महावीर की।।3

तीस वर्षों में, प्रभु का भ्रमण जो हुआ, 
सब जगह समवसरणों की रचना हुई।
पावापुर के सरोवर से शिवपद लिया, 
बोलो जय पावापुर के महावीर की।।4

मास कार्तिक अमावस के प्रत्यूष में, 
कर्मों को नष्ट कर पहुंचे शिवलोक में।
तब से दीपावली पर्व है चल गया, 
बोलो सब मिल के जय जय महावीर की।।5

पावापुर के सरोवर में फूले कमल, 
आज भी गा रहे कीर्ति प्रभु की अमर।
वीर प्रभु के चरण की करो अर्चना, 
बोलो जय सिद्ध भगवन् महावीर की।।6

पंक में खिल के पंकज अलग जैसे हैं, 
मेरी आत्मा भी संसार में वैसे हे।
उसको प्रभु सम बनाने का पुरूषाथ्र कर, 
जय हो अंतिम जिनेश्वर महावीर की।।7

पूरे सरवर बिच एक मंदिर बना, 
जो कहा जाता जल मंदिर है सोहना।
पारकर पुल से जाकर करो वंदना, 
बोलो जय पास जाकर महावीर की।।8

लोग प्रतिवर्ष दीपावली के ही दिन, 
पावापुर में मानते हैं निर्वाणश्री।
भक्त निर्वाणलाडू चढ़ाते जहां, 
बोलो उस भूमि पर जय महावीर की।।9

वीर के शिष्य गौतम गणीश्वर ने भी, 
पाया कैवल्यपद वीर सिद्धि दिवस।
पूजा महावीर के संग करो उनकी भी, 
बोलो गौतम के गुरू जय महावीर की।।10

पावापुर में नमूं वीर के पदकमल, 
और गौतम, सुधर्मा के गणधर चरण।
’’चन्दनामति’’ चरणत्रय का अर्चन करो, 
बोलो जयरत्नत्रयपति महावीर की।।11

थाल पूर्णाघ्र्य का यह सजाया प्रभो, 
मैंने जयमाला में वह चढ़ाया प्रभो।
इससे आतमविशुद्धी बढ़े नित्य ही, 
भाव से बोलो जय प्रभु महावीर की।।12

धाम सिद्धी स्वयंवर का है तीर्थ ये, 
जिसने प्रभु वीर से पाई यशकीर्ति है।।
यदि वरण करना है वैसी सिद्धी प्रिया, 
अर्चना कर लो पावापुरी तीर्थ की।।13

ऊँ ह्रीं तीर्थंकरश्रीमहावीरनिर्वाणभूमिपावापुरीसिद्धक्षेत्राय जयमाला पूर्णाघ्र्य निर्वपामीति स्वाहा।
शांतये शांतिधारा, दिव्य पुष्पांजलिः

-दोहा-

सिद्धभूमि महावीर की, पूजा है सुखकार।
पावापुरिवर तीर्थ को, वन्दन बारम्बार।।

इत्याशीर्वादः पुष्पांजलिः