14. श्रीअनंतनाथ चालीसा
अनन्त चतुष्टय धारी ‘अनन्त,
अनन्त गुणों की खान“अनन्त’ ।
सर्वशुध्द ज्ञायक हैं अनन्त,
हरण करें मम दोष अनन्त ।
नगर अयोध्या महा सुखकार,
राज्य करें सिहंसेन अपार ।
सर्वयशा महादेवी उनकी,
जननी कहलाई जिनवर की ।
द्वादशी ज्येष्ठ कृष्ण सुखकारी,
जन्मे तीर्थंकर हितकारी ।
इन्द्र प्रभु को गोद में लेकर,
न्हवन करें मेरु पर जाकर ।
नाम “अनन्तनाथ’ शुभ बीना,
उत्सव करते नित्य नवीना ।
सार्थक हुआ नाम प्रभुवर का,
पार नहीं गुण के सागर का ।
वर्ण सुवर्ण समान प्रभु का,
जान धरें मति- श्रुत- अवधि का ।
आयु तीस लख वर्ष उपाई,
धनुष अर्घशन तन ऊंचाई ।
बचपन गया जवानी आई,
राज्य मिला उनको सुखदाई ।
हुआ विवाह उनका मंगलमय,
जीवन था जिनवर का सुखमय ।
पन्द्रह लाख बरस बीते जब,
उल्कापात से हुए विरत तब ।
जग में सुख पाया किसने-कब,
मन से त्याग राग भाव सब ।
बारह भावना मन में भाये,
ब्रह्मर्षि वैराग्य बढाये ।
“अनन्तविजय” सुत तिलक-कराकर,
देवोमई शिविका पधरा कर ।
गए सहेतुक वन जिनराज,
दीक्षित हुए सहस नृप साथ ।
द्वादशी कृष्ण ज्येष्ठ शुभ मासा,
तीन दिन का धारा उपवास ।
गए अयोध्या प्रथम योग कर,
धन्य ‘विशाख’आहार करा कर।
मौन सहित रहते थे वन में,
एक दिन तिष्ठे पीपल- तल में ।
अटल रहे निज योग ध्यान मेँ,
झलके लोकालोक ज्ञान मेँ ।
कृष्ण अमावस चैत्र मास की,
रचना हुई शुभ समवशरण की
जिनवर की वाणी जब खिरती,
अमृत सम कानों को लगती ।
चतुर्गति दुख चित्रण करते,
भविजन सुन पापों से डरते ।
जो चाहो तुम मुयित्त पाना,
निज आतम की शरण में जाना ।
सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चरित हैँ,
कहे व्यवहार मेँ रतनत्रय हैं ।
निश्चय से शुद्धातम ध्याकर,
शिवपट मिलना सुख रत्नाकर ।
श्रद्धा करके भव्य जनों ने,
यथाशक्ति व्रत धारे सबने ।
हुआ विहार देश और प्रान्त,
सत्पथ दर्शाये जिननाथ ।
अन्त समय गए सम्मेदाचल,
एक मास तक रहे सुनिश्चल ।
कृष्ण चैत्र अमावस पावन,
भोक्षमहल पहुंचे मनभावन ।
उत्सव करते सुरगण आकर,
कूट स्वयंप्रभ मन में ध्याकर ।
शुभ लक्षण प्रभुवर का ‘सेही’,
शोभित होता प्रभु- पद में ही ।
हम सब अरज करे बस ये ही,
पार करो भवसागर से ही ।
है प्रभु लोकालोक अनन्त,
झलकें सब तुम ज्ञान अनन्त ।
हुआ अनन्त भवों का अन्त,
अद्भुत तुम महिमां है “अनन्त’ ।
जाप:–ॐह्रीं अर्हं श्री अनन्तनाथाय नम: