15. श्री धर्मनाथ चालीसा

उत्तम क्षमा अदि दस धर्म,
प्रगटे मूर्तिमान श्रीधर्म ।
जग से हरण करे सन अधर्म, 
शाश्वत सुख दे प्रभु धर्म ।।

नगर रतनपुर के शासक थे, 
भूपति भानु प्रजा पालक थे।
महादेवी सुव्रता अभिन्न, 
पुत्रा आभाव से रहती खिन्न ।।

प्राचेतस मुनि अवधिलीन, 
मत पिता को धीरज दीन ।
पुत्र तुम्हारे हो क्षेमंकर,
 जग में कहलाये तीर्थंकर ।।

धीरज हुआ दम्पत्ति  मन में,
 साधू वचन हो सत्य जगत में ।
मोह सुरम्य विमान को तजकर,
 जननी उदर बसे प्रभु आकर ।।

तत्क्षण सब देवों के परिकर,
 गर्भाकल्याणक करें खुश होकर ।
तेरस माघ मास उजियारी,
 जन्मे तीन ज्ञान के धारी ।।

तीन भुवन द्युति छाई न्यारी, 
सब ही जीवों को सुखकारी ।
माता को निंद्रा में सुलाकर,
 लिया शची ने गोद में आकर ।।

मेरु पर अभिषेक कराया, 
धर्मनाथ शुभ नाम धराया ।
देख शिशु सौंदर्य अपार, 
किये इन्द्र ने नयन हजार ।।

बीता बचपन यौवन आया,
 अदभुत आकर्षक तन पाया ।
पिता ने तब युवराज बनाया,
 राज काज उनको समझाया ।।

चित्र श्रृंगारवती का लेकर, 
दूत सभा में बैठा आकर ।
स्वयंवर हेतु निमंत्रण देकर, 
गया नाथ की स्वीकृति लेकर ।।

मित्र प्रभाकर को संग लेकर,
 कुण्डिनपुर को गए धर्मं वर ।
श्रृंगार वती ने वरा प्रभु को,
 पुष्पक यान पे आये घर को ।।

मात पिता करें हार्दिक प्यार, 
प्रजाजनों ने किया सत्कार ।
सर्वप्रिय था उनका शासन, 
निति सहित करते प्रजापालन ।।

उल्कापात देखकर एकदिन, 
भोग विमुख हो गए श्री जिन ।
सूत सुधर्म को सौप राज,
 शिविका में प्रभु गए विराज ।।

चलते संग सहस नृपराज, 
गए शालवन में जिनराज ।
शुक्ल त्रयोदशी माघ महीना, 
संध्या समय मुनि पदवी गहिना ।।

दो दिन रहे ध्यान में लीना, 
दिव्या दीप्ती धरे वस्त्र विहिना ।
तीसरे दिन हेतु आहार, 
पाटलीपुत्र का हुआ विहार ।।

अन्तराय बत्तीस निखार,
 धन्यसेन नृप दे आहार ।
मौन अवस्था रहती प्रभु की, 
कठिन तपस्या एक वर्ष की ।।

पूर्णमासी पौष मास की, 
अनुभूति हुई दिव्यभास की ।
चतुर्निकाय के सुरगण आये,
 उत्सव ज्ञान कल्याण मनाये ।।

समोशरण निर्माण कराये, 
अंतरिक्ष में प्रभु पधराये ।
निराक्षरी कल्याणी वाणी, 
कर्णपुटो से पीते प्राणी ।।

जीव जगत में जानो अनन्त,
 पुद्गल तो हैं अनन्तानन्त ।
धर्म अधर्म और नभ एक, 
काल समेत द्रव्य षट देख ।।

रागमुक्त हो जाने रूप,
 शिवसुख उसको मिले अनूप ।
सुन कर बहुत हुए व्रतधारी, 
बहुतों ने जिन दीक्षा धारी ।।

आर्यखंड से हुआ विहार, 
भूमंडल में धर्मं प्रचार ।
गढ़ सम्मेद गए आखिर में,
 लीन हुए निज अन्तरंग में ।।

शुक्ल ध्यान का हुआ प्रताप,
 हुए अघाती धात निष्पाप ।
नष्ट किये जग के संताप,
 मुक्ति महल पहुचे आप ।।

सौरठा
ज्येष्ठ चतुर्थी शुक्ल पक्षवर, 
पूजा करे सुर, कूट सुदत्तवर ।
लक्षण वज्रदंड शुभ जान, 
हुआ धर्म से धर्म का मान ।।

जो प्रतिदिन प्रभु के गुण गाते, 
अरुणा वे भी शिवपद पाते