17.कुन्थुनाथ चालीसा
दयासिन्धु कुन्थु जिनराज,
भवसिन्धु तिरने को जहाज ।
कामदेव… चक्री महाराज,
दया करो हम पर भी आज ।
जय श्री कुन्युनाथ गुणखान,
परम यशस्वी महिमावान ।
हस्तिनापुर नगरी के भूपति,
शूरसेन कुरुवंशी अधिपति ।
महारानी थी श्रीमति उनकी,
वर्षा होती थी रतनन की ।
प्रतिपदा बैसाख उजियारी,
जन्मे तीर्थकर बलधारी ।
गहन भक्ति अपने उर धारे,
हस्तिनापुर आए सुर सारे ।
इन्द्र प्रभु को गोद में लेकर,
गए सुमेरु हर्षित होकर ।
न्हवन करें निर्मल जल लेकर,
ताण्डव नृत्य करे भक्वि-भर 1
कुन्थुनाथ नाम शुभ देकर,
इन्द्र करें स्तवन मनोहर ।
दिव्य-वस्त्र- भूषण पहनाए,
वापिस हस्तिनापुर को आए ।
कम-क्रम से बढे बालेन्दु सम,
यौवन शोभा धारे हितकार ।
धनु पैंतालीस उन्नत प्रभु- तन,
उत्तम शोभा धारें अनुपम ।
आयु पिंचानवे वर्ष हजार,
लक्षण ‘अज’ धारे हितकार ।
राज्याभिषेक हुआ विधिपूर्वक,
शासन करें सुनीति पूर्वक ।
चक्ररत्तन शुभ प्राप्त हुआ जब,
ी कहलाए प्रभु तब ।
एक दिन गए प्रभु उपवन मेँ,
शान्त मुनि इक देखे मग में ।
इंगिन किया तभी अंगुलिसे,
“देखो मुनिको’ -कहा मंत्री से ।
मंत्री ने पूछा जब कारण,
“किया मोक्षहित मुनिपद धारण’ ।
कारण करें और स्पष्ट,
“मुनिपद से ही कर्म हों नष्ट’ ।
मंत्रो का तो हुआ बहाना,
किया वस्तुतः निज कल्याणा ।
चिन विरक्त हुआ विषयों से,
तत्व चिन्तन करते भावों से ।
निज सुत को सौंपा सब राज,
गए सहेतुक वन जिनराज ।
पंचमुष्टि से कैशलौंचकर,
धार लिया पद नगन दिगम्बर ।
तीन दिन बाद गए गजपुर को,
धर्ममित्र पड़गाहें प्रभु को ।
मौन रहे सोलह वर्षों तक,
सहे शीत-वर्षा और आतप ।
स्थिर हुए तिलक तरु- जल में,
मगन हुए निज ध्यान अटल में ।
आतम ने बढ़ गई विशुद्धि,
कैवलज्ञान की हो गई सिद्धि ।
सूर्यप्रभा सम सोहें आप्त,
दिग्मण्डल शोभा हुई व्याप्त ।
समोशरण रचना सुखकार,
ज्ञाननृपित बैठे नर- नार ।
विषय-भोग महा विषमय है,
मन को कर देते तन्मय हैं ।
विष से मरते एक जनम में,
भोग विषाक्त मरें भव- भव में ।
क्षण भंगुर मानब का जीवन,
विद्युतवन विनसे अगले क्षण ।
सान्ध्य ललिमा के सदृश्य ही,
यौवन हो जाता अदृश्य ही ।
जब तक आतम बुद्धि नही हो,
तब तक दरश विशुद्धि नहीं हौं ।
पहले विजित करो पंचेन्द्रिय,
आत्तमबल से बनो जितेन्द्रिय ।
भव्य भारती प्रभु की सुनकर,
श्रावकजन आनन्दित को कर ।
श्रद्धा से व्रत धारण करते,
शुभ भावों का अर्जन करते ।
शुभायु एक मास रही जब,
शैल सम्मेद पे वास किया तब ।
धारा प्रतिमा रोग वहॉ पर,
काटा क्रर्मबन्ध्र सब प्रभुवर ।
मोक्षकल्याणक करते सुरगण,
कूट ज्ञानधर करते पूजन ।
चक्री… कामदेव… तीर्थंकर,
कुंन्धुनाथ थे परम हितंकर ।
चालीसा जो पढे भाव से,
स्वयंसिद्ध हों निज स्वभाव से ।
धर्म चक्र के लिए प्रभु ने,
चक्र सुदर्शन तज डाला ।
इसी भावना ने अरुणा को,
किया ज्ञान में मतवाला ।
जाप:–ॐ ह्रीं अर्हं श्री कुन्थनाथाय नमः