18.अरहनाथ चालीसा
श्री अरहनाथ जिनेन्द्र गुणाकर,
ज्ञान दरस सुख बल रत्नाकर ।
कल्पवृक्ष सम सुख के सागर,
पार हुए निज आतम ध्याकर ।।
अरहनाथ वसु अरि के नाशक,
हुए हस्तिनापुर के शाषक ।
माँ मित्रसेना पिता सुदर्शन,
चक्रवर्ती बन दिया दिग्दर्शन ।।
सहस चौरासी आयु प्रभु की,
अवगाहना थी तीस धनुष की ।
वर्ण सुवर्ण समान था पीत,
रोग शोक थे तुमसे भीत ।।
ब्याह हुआ जब प्रीत कुमार का,
स्वपन हुआ साकार पिता का ।
राज्याभिषेक हुआ अरहजिन का,
हुआ अभ्युदय चक्र रतन का ।।
एक दिन देखा शरद ऋतू में,
मेघ विलीन हुए क्षण भर में ।
उदित हुआ वैराग्य ह्रदय में,
लौकंतिक सुर आये पल में ।।
अरविन्द पुत्र को देकर राज,
गए सहेतुक वन जिनराज ।
मंगसिर की दशमी उजियारी,
परम दिगंबर दीक्षा धारी ।।
पंचमुश्ठी उखाड़े केश,
तन से ममत्व रहा नहीं दलेश ।
नगर चक्रपुर गए पारण हित,
पड्गाहे भूपति अपराजित ।।
परसुख शुद्दाहार कराये,
पंचाशचर्य देव कराये ।
कठिन तपस्या करते वन में,
लीन रहे आतम चिंतन में ।।
कार्तिक मास द्वादशी उज्जवल,
प्रभु विराजे आम्र वृक्ष तल ।
अंतर ज्ञान ज्योति प्रगटाई,
हुए केवली श्री जिनराई ।।
देव करे उत्सव अति भव्य,
समोशरण की रचना दिव्य ।
सौलह वर्ष का मौन भंग कर,
सप्तभंग जिनवाणी सुखकर ।।
चौदह गुणस्थान बत्ताए,
मोह काय योग दर्शाये ।
सत्तावन आश्रय बतलाये,
इतने ही संवर गिनवाये ।।
संवर हेतु समता लाओ,
अनुप्रेक्षा द्वादश मन भाओ ।
हुए प्रबुद्ध सभी नर नारी,
दीक्षा व्रत धारे बहु भारी ।।
कुम्भार्प आदि गणधर तीस,
अर्ध लक्ष थे सकल मुनीश ।
सत्यधर्म का हुआ प्रचार,
दूर दूर तक हुआ विहार ।।
एक माह पहले निर्वेद,
सहस मुनि संग गए सम्मेद ।
चैत्र कृष्ण एकादशी के दिन,
मोक्ष गए श्री अरहनाथ जिन ।।
नाटक कूट को पूजे देव,
कामदेव चक्री जिनदेव ।
जिनवर का लक्षण था मीन,
धारो जैन धरम समीचीन ।।
प्राणी मात्र का जैन धरम हैं,
जैन धर्म हो परम धर्म हैं ।
पंचेंद्रियों को जीते जो नर,
जितेन्द्रिय वे बनाते जिनवर ।।
त्याग धर्म की महिमा गाई,
त्याग से ही सब सुखी हो भाई ।
त्याग कर सके केवल मानव,
हैं अक्षम सब देव और दानव ।।
हो स्वाधीन तजो तुम भाई,
बंधन में पीड़ा मन लाई ।
हस्तिनापुर में दूसरी नशिया,
कर्म जहाँ पर नसे घतिया ।।
जिनके चरणों में धरें,
शीश सभी नरनाथ ।
हम सब पूजे उन्हें,
कृपा करे अरहनाथ ।।
अरहनाथ वसु अरि के नाशक,
हुए हस्तिनापुर के शाषक ।
माँ मित्रसेना पिता सुदर्शन,
चक्रवर्ती बन दिया दिग्दर्शन ।।
सहस चौरासी आयु प्रभु की,
अवगाहना थी तीस धनुष की ।
वर्ण सुवर्ण समान था पीत,
रोग शोक थे तुमसे भीत ।।
ब्याह हुआ जब प्रीत कुमार का,
स्वपन हुआ साकार पिता का ।
राज्याभिषेक हुआ अरहजिन का,
हुआ अभ्युदय चक्र रतन का ।।
एक दिन देखा शरद ऋतू में,
मेघ विलीन हुए क्षण भर में ।
उदित हुआ वैराग्य ह्रदय में,
लौकंतिक सुर आये पल में ।।
अरविन्द पुत्र को देकर राज,
गए सहेतुक वन जिनराज ।
मंगसिर की दशमी उजियारी,
परम दिगंबर दीक्षा धारी ।।
पंचमुश्ठी उखाड़े केश,
तन से ममत्व रहा नहीं दलेश ।
नगर चक्रपुर गए पारण हित,
पड्गाहे भूपति अपराजित ।।
परसुख शुद्दाहार कराये,
पंचाशचर्य देव कराये ।
कठिन तपस्या करते वन में,
लीन रहे आतम चिंतन में ।।
कार्तिक मास द्वादशी उज्जवल,
प्रभु विराजे आम्र वृक्ष तल ।
अंतर ज्ञान ज्योति प्रगटाई,
हुए केवली श्री जिनराई ।।
देव करे उत्सव अति भव्य,
समोशरण की रचना दिव्य ।
सौलह वर्ष का मौन भंग कर,
सप्तभंग जिनवाणी सुखकर ।।
ह गुणस्थान बत्ताए,
मोह काय योग दर्शाये ।
सत्तावन आश्रय बतलाये,
इतने ही संवर गिनवाये ।।
संवर हेतु समता लाओ,
अनुप्रेक्षा द्वादश मन भाओ ।
हुए प्रबुद्ध सभी नर नारी,
दीक्षा व्रत धारे बहु भारी ।।
कुम्भार्प आदि गणधर तीस,
अर्ध लक्ष थे सकल मुनीश ।
सत्यधर्म का हुआ प्रचार,
दूर दूर तक हुआ विहार ।।
एक माह पहले निर्वेद,
सहस मुनि संग गए सम्मेद ।
चैत्र कृष्ण एकादशी के दिन,
मोक्ष गए श्री अरहनाथ जिन ।।
नाटक कूट को पूजे देव,
कामदेव चक्री जिनदेव ।
जिनवर का लक्षण था मीन,
धारो जैन धरम समीचीन ।।
प्राणी मात्र का जैन धरम हैं,
जैन धर्म हो परम धर्म हैं ।
पंचेंद्रियों को जीते जो नर,
जितेन्द्रिय वे बनाते जिनवर ।।
त्याग धर्म की महिमा गाई,
त्याग से ही सब सुखी हो भाई ।
त्याग कर सके केवल मानव,
हैं अक्षम सब देव और दानव ।।
हो स्वाधीन तजो तुम भाई,
बंधन में पीड़ा मन लाई ।
हस्तिनापुर में दूसरी नशिया,
कर्म जहाँ पर नसे घतिया ।।
जिनके चरणों में धरें, शीश सभी नरनाथ ।
हम सब पूजे उन्हें, कृपा करे अरहनाथ ।।