22.श्री नेमिनाथ- चालीसा
श्री जिनवाणी शीश धार कर,
सिध्द प्रभु का करके ध्यान ।
लिखू नेमि- चालीसा सुखकार,
नेमिप्रभु की शरण में आन ।
समुद्र विजय यादव कूलराई,
शौरीपुर राजधानी कहाई ।
शिवादेवी उनकी महारानी ,
षष्ठी कार्तिक शुक्ल बरवानी ।
सुख से शयन करे शय्या पर,
सपने देखें सोलह सुन्दर ।
तज विमान जयन्त अवतारे,
हुए मनोरथ पूरण सारे ।
प्रतिदिन महल में रतन बरसते,
यदुवंशी निज मन में हरषते ।
दिन षष्ठी श्रावण शुक्ला का,
हुआ अभ्युदय पुत्र रतन का ।
तीन लोक में आनन्द छाया,
प्रभु को मेरू पर पधराश ।
न्हवन हेतु जल ले क्षीरसागर,
मणियो के थे कलश मनोहर ।
कर अभिषेक किया परणाम,
अरिष्ट नेमि दिया शुभ नाम ।
शोभित तुमसे सस्य-मराल,
जीता तुमने काल – कराल ।
सहस अष्ट लक्षण सुललाम,
नीलकमल सम वर्ण अभिराम ।
वज्र शरीर दस धनुष उतंग,
लज्जित तुम छवि देव अनंग ।
घाचा-ताऊ रहते साथ,
नेमि-कूष्ण चचेरे भ्रात ।
धरा जब यौवन जिनराई,
राजुल के संग हुई सगाई ।
जूनागड़ को चली बरात,
छप्पन कोटि यादव साथ ।
सुना वहाँ पशुओं का क्रन्दन,
तोडा मोर – मुकुट और कंगन ।
बाडा खौल दिया पशुओं का,
धारा वेष दिगम्बर मुनि का ।
कितना अदभुत संयम मन में,
ज्ञानीजन अनुभव को मन में ।
नौ-नौ आंसू राजुल रोवे,
बारम्बार मूर्छित होवे ।
फेंक दिया दुल्हन श्रृंगार,
रो…रो कर यों करें पुकार ।
नौ भव की तोडी क्यों प्रीत,
कैसी है ये धर्म की रीत ।
नेमि दें उपदेश त्याग का,
उमडा सागर वैराग्य का ।
राजुल ने भी ले ली दीक्षा,
हुई संयम उतीर्ण परीक्षा।
दो दिन रहकर के निराहार,
तीसरे दिन स्वामी करे विहार ।
वरदत महीपति दे आहार,
पंचाश्चर्य हुए सुखकार ।
रहे मौन से छप्पन दिन तक,
तपते रहे कठिनतम तप व्रत ।
प्रतिपदा आश्विन उजियारी
हुए केवली प्रभु अविकारी ।
समोशरण की रचना करते,
सुरगण ज्ञान की पूजा करते ।
भवि जीवों के पुण्य प्रभाव से,
दिव्य ध्वनि खिरती सद्भाव से ।
जो भी होता है अतमज्ञ,
वो ही होता है सर्वज्ञ ।
ज्ञानी निज आत्म को निहारे,
अज्ञानी पर्याय संवारे ।
है अदभुत वैरागी दृष्टि,
स्वाश्रित हो तजते सब सृष्टि ।
जैन धर्मं तो धर्म सभी का,
है निज़घर्म ये प्राणीमात्र का।
जो भी पहचाने जिनदेव,
वो ही जाने आत्म देव ।
रागादि कै उन्मुलन को,
पूजें सब जिनदेवचरण को ।
देश विदेश में हुआ विहार,
गए अन्त में गढ़ गिरनार ।
सब कर्मों का करके नाश,
प्रभु ने पाया पद अविनाश ।
जो भी प्रभु की शरण ने आते,
उनको मन वांछित मिलजाते ।
ज्ञानार्जन करके शास्त्रों से,
लोकार्पण करती श्रद्धा से ।
हम बस ये ही वर चाहे,
निज आतम दर्शन हो जाए ।