23. श्रीपार्श्वनाथ चालीसा

शीश नवा अरिहंत को, सिद्धन करूँ प्रणाम ।
उपाध्याय आचार्य का ले सुखकारी नाम। ।
सर्व साधु और सरस्वती, जिन-मंदिर सुखकार ।
अहिच्छत्र और पार्श्व को, मन-मंदिर में धार ।।

पार्श्वनाथ जगत्-हितकारी,
 हो स्वामी तुम व्रत के धारी ।
सुर-नर-असुर करें तुम सेवा, 
तुम ही सब देवन के देवा ।।1

तुमसे करम-शत्रु भी हारा, 
तुम कीना जग का निस्तारा ।
अश्वसैन के राजदुलारे, 
वामा की आँखों के तारे ।।2

काशी जी के स्वामी कहाये, 
सारी परजा मौज उड़ाये ।
इक दिन सब मित्रों को लेके, 
सैर करन को वन में पहुँचे ।।3

हाथी पर कसकर अम्बारी, 
इक जगंल में गर्इ सवारी ।
एक तपस्वी देख वहाँ पर, 
उससे बोले वचन सुनाकर ।।4

तपसी! तुम क्यों पाप कमाते, 
इस लक्कड़ में जीव जलाते ।
तपसी तभी कुदाल उठाया,
उस लक्कड़ को चीर गिराया ।।5

निकले नाग-नागनी कारे, 
मरने के थे निकट बिचारे ।
रहम प्रभु के दिल में आया, 
तभी मंत्र-नवकार सुनाया ।।6

मरकर वो पाताल सिधाये, 
पद्मावति-धरणेन्द्र कहाये ।
तपसी मरकर देव कहाया, 
नाम ‘कमठ’ ग्रन्थों में गाया ।।7

एक समय श्री पारस स्वामी,
 राज छोड़कर वन की ठानी ।
तप करते थे ध्यान लगाये,
 इक-दिन ‘कमठ’ वहाँ पर आये ।।8

फौरन ही प्रभु को पहिचाना, 
बदला लेना दिल में ठाना ।
बहुत अधिक बारिश बरसार्इ, 
बादल गरजे बिजली गिरार्इ ।।9

बहुत अधिक पत्थर बरसाये, 
स्वामी तन को नहीं हिलाये ।
पद्मावती-धरणेन्द्र भी आए,
 प्रभु की सेवा में चित लाए ।।10

धरणेन्द्र ने फन फैलाया,
 प्रभु के सिर पर छत्र बनाया ।
पद्मावति ने फन फैलाया, 
उस पर स्वामी को बैठाया ।।11

कर्मनाश प्रभु ज्ञान उपाया, 
समोसरण देवेन्द्र रचाया ।
यही जगह ‘अहिच्छत्र‘ कहाये, 
पात्रकेशरी जहाँ पर आये ।।12

शिष्य पाँच सौ संग विद्वाना, 
जिनको जाने सकल जहाना ।
पार्श्वनाथ का दर्शन पाया, 
सबने जैन-धरम अपनाया ।।13

‘अहिच्छत्र‘ श्री सुन्दर नगरी, 
जहाँ सुखी थी परजा सगरी ।
राजा श्री वसुपाल कहाये, 
वो इक जिन-मंदिर बनवाये ।।14

प्रतिमा पर पालिश करवाया, 
फौरन इक मिस्त्री बुलवाया ।
वह मिस्तरी माँस था खाता, 
इससे पालिश था गिर जाता ।।15

मुनि ने उसे उपाय बताया, 
पारस-दर्शन-व्रत दिलवाया ।
मिस्त्री ने व्रत-पालन कीना, 
फौरन ही रंग चढ़ा नवीना ।।16

गदर सतावन का किस्सा है,
 इक माली का यों लिक्खा है ।
वह माली प्रतिमा को लेकर,
 झट छुप गया कुएँ के अंदर ।।17

उस पानी का अतिशय-भारी, 
दूर होय सारी बीमारी ।
जो अहिच्छत्र हृदय से ध्यावे,
 सो नर उत्तम-पदवी पावे ।।18

पुत्र-संपदा की बढ़ती हो,
 पापों की इकदम घटती हो ।
है तहसील आँवला भारी, 
स्टेशन पर मिले सवारी ।।19

रामनगर इक ग्राम बराबर,
 जिसको जाने सब नारी-नर ।
चालीसे को ‘चंद्र’ बनाये, 
हाथ जोड़कर शीश नवाये ।।20

नित चालीसहिं बार, पाठ करे चालीस दिन ।
खेय सुगंध अपार, अहिच्छत्र में आय के ।।
होय कुबेर-समान, जन्म-दरिद्री होय जो ।
जिसके नहिं संतान, नाम-वंश जग में चले ।।