8.पूजा-विनय पाठ

इह विधि ठाड़े होयके, प्रथम पढ़ें यो पाठ |
धन्य जिनेश्वर देव तुम! नाशे कर्म जु आठ ||

अनंत चतुष्टय के धनी, तुम ही हो सिरताज |
मुक्ति-वधू के कंत तुम, तीन भुवन के राज ||

तिहुँ जग की पीड़ा-हरन, भवदधि शोषणहार |
ज्ञायक हो तुम विश्व के, शिवसुख के कर्तार ||

हर्ता अघ-अंधियार के, कर्ता धर्म-प्रकाश |
थिरतापद दातार हो, धर्ता निजगुण रास ||

धर्मामृत उर जलधिसों, ज्ञानभानु तुम रूप |
तुमरे चरण-सरोज को, नावत तिहुं जग भूप ||

मैं वन्दौं जिनदेव को, कर अति निर्मल भाव |
कर्मबंध के छेदने, और न कछू उपाव ||

भविजन को भवकूपतैं, तुम ही काढ़नहार |
दीनदयाल अनाथपति, आतम गुणभंडार ||

चिदानंद निर्मल कियो, धोय कर्मरज मैल |
सरल करी या जगत में,भविजन को शिवगैल ||

तुम पदपंकज पूजतैं, विघ्न रोग टर जाय |
शत्रु मित्रता को धरै, विष निर्विषता थाय ||

चक्री खगधर इंद्र-पद, मिलें आपतैं आप |
अनुक्रमकर शिवपद लहें,नेम सकल हनि पाप ||

तुम बिन मैं व्याकुल भयो, जैसे जल बिन मीन |
जन्म जरा मेरी हरो, करो मोहि स्वाधीन ||

पतित बहुत पावन किये, गिनती कौन करेव |
अंजन से तारे प्रभु! जय!जय!जय! जिनदेव ||

थकी नाव भवदधिविषै तुम प्रभु पार करेव |
खेवटिया तुम हो प्रभु!जय! जय! जय! जिनदेव |

रागसहित जग में रुल्यो, मिले सरागी देव |
वीतराग भेंटो अबै, मेटो राग कुटेव ||

कित निगोद! कित नारकी!कित तिर्यंच अज्ञान |
आज धन्य! मानुष भयो, पायो जिनवर थान ||

तुमको पूजें सुरपती, अहिपति नरपति देव |
धन्य भाग्य मेरो भयो, करन लग्यो तुम सेव ||

अशरण के तुम शरण हो, निराधार आधार |
मैं डूबत भवसिंधु में, खेओ लगाओ पार ||

इन्द्रादिक गणपति थके, कर विनती भगवान |
अपनो विरद निहारि के, कीजै आप समान ||

तुमरी नेक सुदृष्टितें, जग उतरत है पार |
हा!हा! डूबो जात हौं, नेक निहारि निकार ||

जो मैं कहहूँ औरसों, तो न मिटे उर-झार |
मेरी तो तोसों बनी, तातैं करौं पुकार ||

वन्दौं पांचों परमगुरु, सुरगुरु वंदत जास |
विघनहरन मंगलकरन, पूरन परम प्रकाश ||

चौबीसों जिन पद नमौं, नमौं शारदा माय |
शिवमग-साधक साधु नमि,रच्यो पाठ सुखदाय ||