3. श्री संभावनाथ चालीसा
श्री जिनदेव को कर कर वन्दन,
जिनवाणी को मन में ध्याय ।
काम असंभव कर दे संभव,
समदर्शी संभव जिनराय ।।1
जगतपुज्य श्री संभव स्वामी,
तीसरे तीर्थंकर हैं नामी ।
धर्म तीर्थ प्रगटाने वाले,
भव दुःख दूर भागने वाले ।।2
श्रावस्ती नगरी अति सोहे,
देवो के भी मनको मोहे ।
मात सुषेणा पिता द्रढ़राज,
धन्य हुए जन्मे जिनराज ।।3
फाल्गुन शुक्ल अष्टमी आए,
गर्भ कल्याणक देव मनाए ।
पूनम कार्तिक शुक्ल आई,
हुई पुन्य प्रगटे जिनराई ।।4
तीन लोक में खुशिया छाई,
शची प्रभु को लेने आई ।
मेरु पर अभिषेक रचाया,
संभव प्रभु शुभ नाम धराया ।।5
बिता बचपन यौवन आया,
पिता ने राज्याभिषेक कराया ।
मिली रानिया सब अनुरूप,
सुख भोगे चवालिस लक्ष पूर्व ।।6
एक दिन महल की छत के ऊपर,
देखे वन सुषमा मनहर ।
देखा मेघ महल हिमखण्ड,
हुआ नष्ट चली वायु प्रचण्ड ।।7
तभी हुआ वैराग्य एकदम,
गृह्बंधन लगा नागपाश सम ।
करते वस्तु स्वरूप चिंतवन,
देव लोकान्तिक करे समर्थन ।।8
निज सूत को देकर राज,
वन गमन करे जिनराज ।
हुए सवार सिद्धार्थ पालकी,
गए राह सहेतुक वन की ।।9
मंगसिर शुक्ल पूर्णिमा प्यारी,
सहस भूप संघ दीक्षा धारी ।
तजा परिग्रह केश लोंच कर,
ध्यान धरा पूरब को मुख कर ।।10
धारण कर उस दिन उपवास,
वन में ही किया निवास ।
आत्मशुद्धि का प्रबल प्रमाण,
तत्क्षण हुआ मनःपर्याय ज्ञान ।।11
प्रथामाहार हुआ मुनिवर का हुआ,
धन्य जीवन सुरेन्द्र का ।
पंचाश्चार्यो से देवों के हुए,
प्रजा जन सुखी नगर के ।।12
चौदह वर्षो की आतम सिद्धि,
स्वयं ही उपजी केवल ऋद्धि ।
कृष्ण चतुर्थी कार्तिक सार,
समोशरण रचना हितकार ।।13
खिरती सुखकारी जिनवाणी,
निज भाषा में समझे प्राणी ।
विषयभोग हैं विषसम विषमय,
इनमे मत होना तुम तन्मय ।।14
तृष्णा बढती हैं भोगो से,
काया घिरती हैं रोगों से ।
जिनलिंग से निज को पहचानो,
अपना शुद्धातम सरधानो ।।15
दर्शन ज्ञान चरित्र बताये,
मोक्ष मार्ग एकत्व दिखाये ।
जीवों का सन्मार्ग बताया,
भव्यो का उद्धार कराया ।।16
गणधर एक सौ पांच प्रभू के,
मुनिवर पंद्रह सहस संघ के ।
देवी देव मनुज बहुतेरे,
सभा में थे तिर्यंच घनेरे ।।17
एक महिना उम्र रही जब,
पहुँच गए सम्मेद शिखर तब ।
अचल हुए खडगासन प्रभु,
कर्म नाश कर हुए स्वयंभू ।।18
चैत सुदी षष्ठी थी न्यारी,
धवल कूट की महिमा भारी ।
साठ लाख पूर्व का जीवन,
पग में अश्व था शुभ लक्षण।।19
चालीसा श्री संभव नाथ,
पथ करो श्रद्धा के साथ ।
मनवांछित सब पूरण होवे,
अरुणा जनम मरण दुःख खोवे ।।20