17.प्रभु पतित पावन मैं अपावन
17.प्रभु पतित पावन मैं अपावन,
चरण आयो सरण जी ।
यों विरद आप निहार स्वामी,
मेट जामन मरण जी ॥ 1
तुम ना पिछान्यो आन मान्यो,
देव विविध प्रकार जी ।
या बुद्धि सेती निज ना जान्यो,
भ्रम गिन्यो हितकार जी ॥ 2
भव विकट वन में करम बैरी,
ज्ञान धन मेरो हरयो ।
तब इष्ट भूल्यो भ्रष्ट होए,
अनिष्ट गति धरतो फिरयो ॥ 3
धन्य घड़ी यो धन्य दिवस यो ही,
धन्य जनम मेरो भयो ।
अब भाग्य मेरो उदय आयो,
दरश प्रभु जी को लाख लयो ॥ 4
छवि वीतरागी नगन मुद्रा,
दृष्टि नासा पै धरें ।
वसु प्रातिहार्य अनंत गुण जुट,
कोटि रवि छवि को धरें ॥ 5
मिट गयो तिमिर मिथ्यात मेरो,
उदय रवि आतम भयो ।
मो उर हरष एसो भयो,
मनु रंक चिंतामणि लयो ॥ 6
मैं हाथ जोड़ नवाय मस्तक,
वीनऊँ तुम चरण जी ।
सर्वोत्कृष्ट त्रिलोकपति जिन,
सुनहु तारण तरन जी ॥ 7
जाचूँ नहीं सुरवास पुनि,
नर राज परिजन साथ जी ।
"बुध" जाचहूँ तुम भक्ति भव भव,
दीजिये शिवनाथ जी ॥ 8